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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 143 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 143/ मन्त्र 1
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    प्र तव्य॑सीं॒ नव्य॑सीं धी॒तिम॒ग्नये॑ वा॒चो म॒तिं सह॑सः सू॒नवे॑ भरे। अ॒पां नपा॒द्यो वसु॑भिः स॒ह प्रि॒यो होता॑ पृथि॒व्यां न्यसी॑ददृ॒त्विय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । तव्य॑सीम् । नव्य॑सीम् । धी॒तिम् । अ॒ग्नये॑ । वा॒चः । म॒तिम् । सह॑सः । सू॒नवे॑ । भ॒रे॒ । अ॒पाम् । नपा॑त् । यः । वसु॑ऽभिः । स॒ह । प्रि॒यः । होता॑ । पृ॒थि॒व्याम् । नि । असी॑दत् । ऋ॒त्वियः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र तव्यसीं नव्यसीं धीतिमग्नये वाचो मतिं सहसः सूनवे भरे। अपां नपाद्यो वसुभिः सह प्रियो होता पृथिव्यां न्यसीददृत्विय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। तव्यसीम्। नव्यसीम्। धीतिम्। अग्नये। वाचः। मतिम्। सहसः। सूनवे। भरे। अपाम्। नपात्। यः। वसुऽभिः। सह। प्रियः। होता। पृथिव्याम्। नि। असीदत्। ऋत्वियः ॥ १.१४३.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 143; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वद्विषयमाह ।

    अन्वयः

    अहमपांनपात् यः सूर्यः पृथिव्यामिव यो वसुभिः सह प्रियो होता ऋत्वियो न्यसीदत् तस्मात्सहसोऽग्नये सूनवे वाचः तव्यसीं नव्यसीं धीतिं मतिं प्रभरे ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (प्र) (तव्यसीम्) अतिशयेन बलवतीम् (नव्यसीम्) अतिशयेन नवीनाम् (धीतिम्) धियन्ति विजयं यया ताम् (अग्नये) अग्निवत्तीव्रबुद्धये (वाचः) वाण्याः (मतिम्) प्रज्ञाम् (सहसः) शरीरात्मबलवतः (सूनवे) (भरे) धरे (अपाम्) जलानाम् (नपात्) यो न पतति सः (यः) (वसुभिः) प्रथमकल्पैर्विद्वद्भिः (सह) (प्रियः) प्रीतः (होता) गृहीता (पृथिव्याम्) (नि) (असीदत्) सीदति (ऋत्वियः) य ऋतूनर्हति सः ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विदुषां योग्यताऽस्ति यथा सूर्योऽपां धर्त्ताऽस्ति तथा पवित्रान् धीमतः प्रियाचरणान् सद्यो विद्यानां ग्रहीतॄन् विद्यार्थिनो गृहीत्वा विद्याविज्ञानं सद्यो जनयेयुरिति ॥ १ ॥

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    हिन्दी (1)

    विषय

    अब विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    मैं (अपां, नपात्) जलों के बीच (यः) जो न गिरता वह सूर्य (पृथिव्याम्) पृथिवी पर जैसे वैसे जो (वसुभिः) प्रथम कक्षा के विद्वानों के (सह) साथ (प्रियः) प्रीतियुक्त (होता) ग्रहण करनेवाला (ऋत्वियः) ऋतुओं की योग्यता रखता हुआ (नि, असीदत्) निरन्तर स्थिर होता है उस (सहसः) शरीर और आत्मा के बलयुक्त अध्यापक के सकाश से (अग्नये) अग्नि के समान तीक्ष्णबुद्धि (सूनवे) पुत्र वा शिष्य के लिये (वाचः) वाणी की (तव्यसीम्) अत्यन्त बलवती (नव्यसीम्) अतीव नवीन (धीतिम्) जिससे विजय को धारण करें उस धारणा और (मतिम्) उत्तम बुद्धि को (प्र, भरे) अच्छे प्रकार धारण करता हूँ ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वानों की योग्यता है कि जैसे सूर्य जलों की धारणा करनेवाला है, वैसे पवित्र बुद्धिमान् प्रिय आचरण करने और शीघ्र विद्याओं को ग्रहण करनेवाले विद्यार्थियों को लेकर विद्या का विज्ञान शीघ्र उत्पन्न करावें ॥ १ ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात विद्वान व ईश्वराच्या गुणाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य जलाची धारणा करणारा असतो तसे विद्वानांनी पवित्र, बुद्धिमान प्रियाचरणी व तात्काळ विद्या ग्रहण करणाऱ्या विद्यार्थ्यांमध्ये विद्या विज्ञान उत्पन्न करावे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I bear and offer the highest, latest, joyously celebrative and most sacred worshipful homage in words of adoration to Agni, created of might, who is the grand child of waters of the skies, dearest favourite with the Vasu order of scholars, receiver and performer in yajna corresponding to the seasons and abiding with the earth.

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