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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 143 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 143/ मन्त्र 8
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अप्र॑युच्छ॒न्नप्र॑युच्छद्भिरग्ने शि॒वेभि॑र्नः पा॒युभि॑: पाहि श॒ग्मैः। अद॑ब्धेभि॒रदृ॑पितेभिरि॒ष्टेऽनि॑मिषद्भि॒: परि॑ पाहि नो॒ जाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप्र॑ऽयुच्छन् । अप्र॑युच्छत्ऽभिः । अ॒ग्ने॒ । शि॒वेभिः॑ । नः॒ । पा॒युऽभिः॑ । पा॒हि॒ । श॒ग्मैः । अद॑ब्धेभिः । अदृ॑पितेभिः । इ॒ष्टे॒ । अनि॑मिषत्ऽभिः । परि॑ । पा॒हि॒ । नः॒ । जाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अप्रयुच्छन्नप्रयुच्छद्भिरग्ने शिवेभिर्नः पायुभि: पाहि शग्मैः। अदब्धेभिरदृपितेभिरिष्टेऽनिमिषद्भि: परि पाहि नो जाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप्रऽयुच्छन्। अप्रयुच्छत्ऽभिः। अग्ने। शिवेभिः। नः। पायुऽभिः। पाहि। शग्मैः। अदब्धेभिः। अदृपितेभिः। इष्टे। अनिमिषत्ऽभिः। परि। पाहि। नः। जाः ॥ १.१४३.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 143; मन्त्र » 8
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे इष्टेऽग्ने अग्निवद् विद्वन् त्वमप्रयुच्छन्सन्नप्रयुच्छद्भिः शिवेभिः पायुभिः शग्मैर्विद्वद्भिस्सह नः पाहि यास्त्वमनिमिषद्भिरदब्धेभिरदृपितेभिराप्तैस्सह नः परिपाहि ॥ ८ ॥

    पदार्थः

    (अप्रयुच्छन्) प्रमादमकुर्वन् (अप्रयुच्छद्भिः) प्रमादरहितैर्विद्वद्भिस्सह (अग्ने) विद्याविज्ञानप्रकाशयुक्त (शिवेभिः) कल्याणकारिभिः (नः) अस्मान् (पायुभिः) रक्षकैः (पाहि) रक्ष (शग्मैः) सुखप्रापकैः (अदब्धेभिः) अहिंसकैः (अदृपितेभिः) मोहादिदोषरहितैः (इष्टे) पूजितुं योग्य। अत्र संज्ञायां क्तिच्। (अनिमिषद्भिः) नैरन्तर्येणालस्यरहितैः (परि) सर्वतः (पाहि) (नः) अस्मान् (जाः) यो जनयति सुखानि सः ॥ ८ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैस्सततमिदमेष्टव्यं प्रयतितव्यं च धार्मिकैर्विद्वद्भिस्सह धार्मिका विद्वांसोऽस्मान् सततं रक्षेयुरिति ॥ ८ ॥अत्र विद्वदीश्वरगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति त्रिचत्वारिंशदुत्तरं शततमं सूक्तं द्वादशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (इष्टे) सत्कार करने योग्य तथा (अग्ने) विद्या विज्ञान के प्रकाश से युक्त अग्नि के समान विद्वान् ! आप (अप्रयुच्छन्) प्रमाद को न करते हुए (अप्रयुच्छद्भिः) प्रमादरहित विद्वानों के साथ वा (शिवेभिः) कल्याण करनेवाले (पायुभिः) रक्षक (शग्मैः) सुखप्रापक विद्वानों के साथ (नः) हम लोगों की (पाहि) रक्षा करो तथा (जाः) सुखों की उत्पत्ति करानेवाले आप (अनिमिषद्भिः) निरन्तर आलस्यरहित (अदब्धेभिः) हिंसा और (अदृपितेभिः) मोहादि दोषरहित विद्वानों के साथ (नः) हम लोगों की (परि, पाहि) सब ओर से रक्षा करो ॥ ८ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को निरन्तर यह चाहना और ऐसा प्रयत्न करना चाहिये कि धार्मिक विद्वानों के साथ धार्मिक विद्वान् हमारी निरन्तर रक्षा करें ॥ ८ ॥इस सूक्त में विद्वान् और ईश्वर के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ की साथ सङ्गति जानना चाहिये ॥यह एकसौ तेंतालीसवाँ सूक्त और बारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    अप्रमत्त 'रक्षक'

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = परमात्मन्! आप (अप्रयुच्छन्) = किसी भी प्रकार का प्रमाद न करते हुए (अप्रयुच्छद्भिः) = प्रमादशून्य (शिवेभिः) = कल्याणकर (शग्मैः) = सुखप्रद (पायुभिः) = रक्षणों से (न:) = हमें (पाहि) = बचाइए। आपका रक्षण हमें सदा प्राप्त हो। ये रक्षण हमें कल्याण व सुख देनेवाले हों। २. हे प्रभो ! इष्टे यज्ञों के होने पर आप (अदब्धेभिः) = अहिंसित, (अदृपितेभिः) = किसी भी दूसरे से अपरिभूत (अनिमिषद्भिः) = निमेषशून्य-आलस्य रहित, सदा जागरित रक्षणों से (नः) = हमारी (जा:) = [प्रजा] प्रजाओं को (परिपाहि) = सर्वतः रक्षित कीजिए। हम यज्ञशील हों और हमारी प्रजाएँ प्रभु से रक्षणीय हों। प्रभु के रक्षण अहिंसित व किसी से भी पराभव के योग्य नहीं होते।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम यज्ञशील बनें और प्रभु के रक्षणों के पात्र हों।

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    विषय

    विद्वान को अप्रमादी रहने का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे विद्वन् ! ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! ज्ञानप्रकाशक ! हे नायक ! तू ( अप्रयुच्छद्भिः ) प्रमाद से रहित ( विशेभिः ) कल्याणकारी, (शग्मैः) सुख शान्ति प्राप्त कराने वाले, ( पायुभिः ) रक्षक और पावन करने वाले ( अदब्धेभिः ) दूसरों से न मारे जाने वाले, ( अदृपितैः ) अन्यों को क्लेश न पहुंचाने वाले और मोह, गर्व आदि से रहित, (अनिमिषद्भिः) आंख न झपकने वाले, सदा सावधान, कर्त्तव्य पर सदा दृष्टि रखने वाले विद्वान् पुरुषों सहित आप स्वयं ( अप्रयुच्छन् ) कभी भी प्रमाद न करता हुआ ( नः जाः ) हमारी प्रजाओं को ( परि पाहि ) सब प्रकार से रक्षा कर । अथवा—( जा त्व नः परिपाहि ) तू स्वयं पिता के समान उत्पादक सब को सुखजनक होकर हमारी सब प्रकार से रक्षा कर । परमेश्वर पक्ष की योजना विस्तार भय से नहीं लिखी ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ७ निचृज्जगती । २, ३, ५, विराङ्जगती । ४, ६ जगती । ८ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    मन्त्रार्थ

    (इष्टे अग्ने) हे एषणीय-वाञ्छनीय अग्नि ! तू (अप्रयुच्छन्) प्रमादरहित-सावधानता से प्रयुक्त निरन्तर स्वकर्म करता हुआ (अप्रयुच्छद्भिः) प्रमादरहित विद्वानों से उपयुक्त हुआ (शिवेभिः शग्मैः पायुभिः-नः पाहि) शान्तिप्रद तथा सुखकर रक्षणसाधनों से हमारी रक्षा कर (अदब्धेभिः-अपृपितेभिः-अनिमि पद्भिः) श्रहिंसित अशिथिलों, निरन्तर कर्म साधकों, गुणों से (न:-जा: परिपाहि) हमारी पुत्रादि प्रजाओं की सब ओर से रक्षा कर ॥८॥

    टिप्पणी

    अक्रः अन्यैः अनाक्रान्तः” (सायणः) ' अक्रः अन्यैरक्रान्तः (दयानन्दः)

    विशेष

    ऋषिः - दीर्घतमाः (आयु-जीवन का "आयुर्वेदीर्घम् " [तां० १३७ ११।१२] चाहने वाला “तमु कांक्षायाम्" [दिबा०]) देवता - अग्निः ( सर्वत्र लोकों में प्रकाशमान अग्नि)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी सतत ही इच्छा बाळगावी व असा प्रयत्न करावा की धार्मिक विद्वानांनी धार्मिक विद्वानासह सतत आमचे रक्षण करावे. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, holy power, brilliant and blazing, ever wakeful, active and working relentlessly, protect us with good, protective and preservative, and blissful modes of life, by noble, protective and blissful people. Power dear, creator and giver of joy and comfort, protect, promote and advance us all round by sober, irresistible and intrepidable modes and people ever watchful and working without a wink of sleep.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of a scholar are mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O venerable scholar! you shine like the fire and are ever vigilant. You guard pious, well-meaning joy-bestowing and learned persons. Protect us from all sides. O generator of happiness ! along with ever alert, loving and enlightened person, for they are knowledgeable, detached and minus vices.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should always desire and endeavor, and seek protection from righteous learned persons and their company.

    Foot Notes

    (अप्रयुच्छन्) प्रमादमकुर्वन् = Alert or vigilant (अद्ब्देभिः) अहिन्सकैः = Non-violent. (अदूपितेभिः) मोहादिदोष रहितै: = Free from ignorance attachment and vices. (जा: ) यः जनयति सुखानि = Creator of happiness.

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