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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 146 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 146/ मन्त्र 2
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒क्षा म॒हाँ अ॒भि व॑वक्ष एने अ॒जर॑स्तस्थावि॒तऊ॑तिर्ऋ॒ष्वः। उ॒र्व्याः प॒दो नि द॑धाति॒ सानौ॑ रि॒हन्त्यूधो॑ अरु॒षासो॑ अस्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒क्षा । म॒हान् । अ॒भि । व॒व॒क्षे॒ । ए॒ने॒ इति॑ । अ॒जरः॑ । त॒स्थौ॒ । इ॒तःऽऊ॑तिः । ऋ॒ष्वः । उ॒र्व्याः । प॒दः । नि । द॒धा॒ति॒ । सानौ॑ । रि॒हन्ति॑ । ऊधः॑ । अ॒रु॒षासः॑ । अ॒स्य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उक्षा महाँ अभि ववक्ष एने अजरस्तस्थावितऊतिर्ऋष्वः। उर्व्याः पदो नि दधाति सानौ रिहन्त्यूधो अरुषासो अस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उक्षा। महान्। अभि। ववक्षे। एने इति। अजरः। तस्थौ। इतःऽऊतिः। ऋष्वः। उर्व्याः। पदः। नि। दधाति। सानौ। रिहन्ति। ऊधः। अरुषासः। अस्य ॥ १.१४६.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 146; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यथा उर्व्या महानुक्षा अजर ऋष्वः सूर्य एने द्यावापृथिव्यावभि ववक्षे इत ऊतिः सन् पदो निदधाति अस्यारुषासः सानावूधो रिहन्ति यो ब्रह्माण्डस्य मध्ये तस्थौ तद्वद् यूयं भवत ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (उक्षा) सेचकः (महान्) (अभि) (ववक्षे) संहन्ति। अयं वक्षसङ्घात इत्यस्य प्रयोगः। (एने) द्यावापृथिव्यौ (अजरः) हानिरहितः (तस्थौ) तिष्ठति (इतऊतिः) इतः ऊती रक्षणाद्या क्रिया यस्मात् सः (ऋष्वः) गतिमान् (उर्व्याः) पृथिव्याः (पदः) पदान् (नि, दधाति) (सानौ) विभक्ते जगति (रिहन्ति) प्राप्नुवन्ति (ऊधः) जलस्थानम् (अरुषासः) अहिंसमानाः किरणाः (अस्य) मेघस्य ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा सूत्रात्मा वायुर्भूमिं सूर्यं च धृत्वा जगद्रक्षति यथा वा सूर्यः पृथिव्या महान् वर्त्तते तथा वर्त्तितव्यम् ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे (उर्व्याः) पृथिवी से (महान्) बड़ा (उक्षा) वर्षा जल से सींचनेवाला (अजरः) हानिरहित (ऋष्वः) गतिमान् सूर्यः (एने) इन अन्तरिक्ष और भूमिमण्डल को (अभि, ववक्षे) एकत्र करता है (इतऊतिः) वा जिससे रक्षा आदि क्रिया प्राप्त होतीं ऐसा होता हुआ (पदः) अपने अंशों को (नि, दधाति) निरन्तर स्थापित करता है (अस्य) इस सूर्य की (अरुषासः) नष्ट न करती हुई किरणें (सानौ) अलग-अलग विस्तृत जगत् में (ऊधः) जलस्थान को (रिहन्ति) प्राप्त होती हैं वा जो ब्रह्माण्ड के बीच में (तस्थौ) स्थिर है उसके समान तुम लोग होओ ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को जैसे सूत्रात्मा वायु, भूमि और सूर्यमण्डल को धारण करके संसार की रक्षा करता है वा जैसे सूर्य पृथिवी से बड़ा है, वैसा वर्त्ताव वर्त्तना चाहिये ॥ २ ॥

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    विषय

    प्रभुभक्त बनूँ न कि प्रभुविमुख

    पदार्थ

    १. (यविष्ठ) = युवतम ! बुराइयों को हमसे अधिक से अधिक दूर करनेवाले और अच्छाइयों का हमारे साथ सम्पर्क करानेवाले प्रभो! (मे) = मेरे (अस्य) = इस (मंहिष्ठस्य) = पूजा की प्रबल भावना से युक्त (प्रभृतस्य) = प्रकर्षेण सम्पादित (वचसः) = प्रार्थना वचन को (बोध) = जानिए, सुनिए । २. हे (स्वधावः) = आत्मधारण शक्तिसम्पन्न प्रभो! संसार में (त्व:) = कोई एक तो कुछ पुरुष तो (पीयति) = आपकी हिंसा करते हैं, कभी आपका स्मरण नहीं करते, संसार के विषयों की (ममता) = उन्हें आपके ध्यान से विमुख किये रहती है। (त्वः) = कोई एक (अनुगृणाति) = आपके स्तुतिवचनों का उच्चारण करता है। कोई विरला व्यक्ति ही विषयों से पराङ्मुख होकर आपकी ओर झुकता है। ३. मैं तो हे (अग्ने) = परमात्मन्! (वन्दारुः) = आपकी वन्दनावाला बनकर आपके (तन्वम्) = शक्ति- विस्तार के प्रति [तन् विस्तारे] वन्दे नतमस्तक होता हूँ। मुझे सर्वत्र आपकी शक्ति ही कार्य करती हुई दृष्टिगोचर होती है।

    भावार्थ

    भावार्थ-संसार में मनुष्य दो भागों में बँटे हुए हैं- कुछ प्रभुभक्त हैं, कुछ प्रभु से विमुख। मैं प्रभुभक्त बनकर प्रभु के शक्तिविस्तार को देखता हुआ नतमस्तक होऊँ।

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    विषय

    बैल, मेघ, सूर्यादिवत् जगत्-धारक प्रभु और राष्ट्र धारक राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( उक्षा ) भार उठाने में समर्थ बैल जिस प्रकार भारी बोझ उठाता है और जिस प्रकार ( महान् ) बड़ा ( उक्षा ) सेचक, जल वर्षक सूर्य ( एने वचक्षे ) आकाश पृथिवी इन दोनों को धारण करता है, और जिस प्रकार सूर्य ( ऋष्वः ) सर्वत्र दर्शनीय और महान् होकर ( अजरः तस्थौ ) अविनाशी होकर विराजता है और जिस प्रकार सूर्य ( उर्व्याः सानौ ) पृथ्वी के उच्च प्रदेश पर ( पदः निदधाति ) अपने किरणों को डालता है और ( अस्य अरुषास ) इसके प्रकाशमान किरण ( ऊधः ) जल मय प्रदेशों को ( रिहन्ति ) स्पर्श कर मानो जल पान कर उनको सुखा देते हैं । अथवा ( अस्य ) इसके किरण ( ऊधः ) रात्रि को स्पर्श करते हैं और उसी प्रकार ( महान् उक्षा ) बड़ा भारी सुखों का वर्षक और जगत् भार के उठाने वाला प्रभु परमेश्वर ( एने ) इन पृथिवी और आकाश दोनों को ( अभि ववक्षे ) सब प्रकार से धारण करें रहा है । वह ( इतः-ऊतिः ) इस लोक की सब प्रकार से रक्षा करता हुआ ( ऋष्वः ) महान् व्यापक ( अजरः ) अविनाशी होकर (तस्थौ) विराजता है। वह (ऊर्व्याः) महती प्रकृति के ( सानौ ) समग्र ऐश्वर्य में भी (पदः) अपनी पूर्व की गति शक्तियों को (निदधाति) स्थापित करता है । और ( अस्य ऊधः ) उसके स्तन के समान आनन्द रस से भरे उत्तम रूप को (अरुषासः) रोष रहित, एवं अहिंसक सौम्यजन ही ( रिहन्ति ) आस्वाद लेते हैं। इसी प्रकार राजा, विद्वान् प्रजाओं पर सुख वर्षक होकर स्व, पर दोनों सेनाओं को धारण करे । वह ( इतः ऊतिः ) अपने पक्ष से से सुरक्षित होकर महान् ( अजरः ) शत्रु को उखाड़ ने में सामर्थ्यवान् होकर ( तस्थौ ) रण में ठहरे । वह ( ऊर्व्याः ) विशाल राज्य भूमि के (सानौ पदः निदधाति) उच्च से उच्च पद या अधिकार की चट्टान पर पैरों के समान ( पदः ) पदों, पदाधिकारियों को नियुक्त करे । (अरुषासः) सौम्य तेजस्वी लोग ( अस्य ) इसके ( ऊधः ) बहुत ऐश्वर्य या जीवनाश्रय जल को धारण करने वाले मेघ के समान सर्वोपरि उपकारक स्वरूप को ( रिहन्ति ) स्वयं उपभोग करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, २ विराट् त्रिष्टुप । ३, ५ त्रिष्टुप् । ४ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूत्रात्मा वायू, भूमी व सूर्यमंडलाला धारण करून जगाचे रक्षण करतो व जसा सूर्य पृथ्वीहून महान आहे, तसे माणसांनी आचरण करावयास हवे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The mighty sun, far greater than the earth and other planets, generously radiating floods of light and waves of gravitational energy, holds the earth and skies. Ever young and awfully moving, it is stable, providing protection and stability to its family. On top, it maintains its degree and distance from the earth while its light rays touch and drink up the reservoirs of water.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The above theme is further developed.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The sun is a great sustainer of the earth, undelaying and grand, and imparts protection. It keeps feet over this world which is divided in many categories and upholds the heaven and the earth. His emergent rays make the cloud to rain water. Likewise, an enlightened person stands in this universe shedding his light of knowledge everywhere.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A man should be like the solar power which upholds the universe.

    Foot Notes

    (उक्षा) सेचक: = Sprinkler or Showerer. (ऊध:) जलस्थानम् = Place of water. ( अरुषासः ) अहिंसमाना: किरणा: Protective rays. ( सानौ ) विभक्ते जगति = In the world divided in various categories.

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