ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 146/ मन्त्र 3
स॒मा॒नं व॒त्सम॒भि सं॒चर॑न्ती॒ विष्व॑ग्धे॒नू वि च॑रतः सु॒मेके॑। अ॒न॒प॒वृ॒ज्याँ अध्व॑नो॒ मिमा॑ने॒ विश्वा॒न्केताँ॒ अधि॑ म॒हो दधा॑ने ॥
स्वर सहित पद पाठस॒मा॒नम् । व॒त्सम् । अ॒भि । स॒ञ्चर॑न्ती॒ इति॑ स॒म्ऽचर॑न्ती । विष्व॑क् । धे॒नू इति॑ । वि । च॒र॒तः॒ । सु॒मेक्के॒ इति॑ सु॒ऽमेके॑ । अ॒न॒प॒ऽवृ॒ज्यान् । अध्व॑नः । मिमा॑ने॒ इति॑ । विश्वा॑न् । केता॑न् । अधि॑ । म॒हः । दधा॑ने॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
समानं वत्समभि संचरन्ती विष्वग्धेनू वि चरतः सुमेके। अनपवृज्याँ अध्वनो मिमाने विश्वान्केताँ अधि महो दधाने ॥
स्वर रहित पद पाठसमानम्। वत्सम्। अभि। सञ्चरन्ती इति सम्ऽचरन्ती। विष्वक्। धेनू इति। वि। चरतः। सुमेके इति सुऽमेके। अनपऽवृज्यान्। अध्वनः। मिमाने इति। विश्वान्। केतान्। अधि। महः। दधाने इति ॥ १.१४६.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 146; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मनुष्या यूयं यथा द्यावापृथिव्यौ समानं वत्समभिसंचरन्ती सुमेकेऽध्वनोऽनपवृज्यान् मिमाने महो विश्वान् केतानधि दधाने धेनूइव विष्वग् विचरतः तथेमे विदित्वा पक्षपातं विहाय सर्वेषां कामान् पूरयत ॥ ३ ॥
पदार्थः
(समानम्) तुल्यम् (वत्सम्) वत्सवद्वर्त्तमानोऽहोरात्रः (अभि) अभितः (संचरन्ती) सम्यग् गच्छन्ती (विष्वक्) विषुं व्याप्तिमञ्चति (धेनू) धेनुरिव वर्त्तमाने (वि) (चरतः) (सुमेके) सुष्ठुमेकः प्रक्षेपो ययोस्तौ (अनपवृज्यान्) अपवर्जितुमनर्हान् (अध्वनः) मार्गस्य (मिमाने) निर्माणकर्तृणी (विश्वान्) समग्रान् (केतान्) बोधान् (अधि) (महः) महतः (दधाने) ॥ ३ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः सूर्यवत् न्यायगुणाकर्षकप्रकाशका नानाविधमार्गान् निर्मिमाणा धेनुवत् सर्वान्पुष्यन्तः समग्रा विद्या धरन्ति ते दुःखरहिताः स्युः ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! तुम लोग जैसे सूर्यलोक और भूमण्डल दोनों (समानम्) तुल्य (वत्सम्) बछड़े के समान वर्त्तमान दिन-रात्रि को (अभि, सं, चरन्ति) सब ओर से अच्छे प्रकार प्राप्त होते हुए (सुमेके) सुन्दर जिनका त्याग करना (अध्वनः) मार्ग से (अनपवृज्यान्) न दूर करने योग्य पदार्थों को (मिमाने) बनावट (=रचना) करनेवाले (महः) बड़े बड़े (विश्वान्) समग्र (केतान्) बोधों को (अधि, दधाने) अधिकता से धारण करते हुए (धेनू) गौओं के समान (विष्वक्, वि, चरतः) सब ओर से विचर रहे हैं, वैसे इन्हें जान, पक्षपात को छोड़, सब कामों को पूरा करो ॥ ३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सूर्य के समान न्याय गुणों के आकर्षण और प्रकाश * करनेवाले, नानाविध मार्गों का निर्माण करते हुए धेनु के समान सबकी पुष्टि करते हुए समग्र विद्याओं को धारण करते हैं, वे दुःखरहित होते हैं ॥ ३ ॥ * गुणों को आकर्षण करनेवालों का प्रकाश- हस्तलेख ॥ सं० ॥
विषय
मामतेय का अन्धत्व
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (ये) = जो (ते) = आपकी (पायवः) = रक्षणशक्तियाँ हैं वे (मामतेयम्) = [ममतायाः पुत्रम्] ममता के पुत्र, ममता के पुतले मुझे (अन्धं पश्यन्तः) = अन्धा सा हुआ हुआ देखती हुई (दुरितात्) = दुरित से, कुमार्ग पर भटकने से (अरक्षन्) = रक्षा करती हैं, बचाती हैं। ममता के कारण मनुष्य अन्धा हो जाता है, वह अपने कर्तव्य कर्म को नहीं देख पाता। उस समय प्रभु ही उसे मार्गभ्रष्ट होने से बचाते हैं। २. प्रभुकृपा से मार्गभ्रष्ट होने से बचे हुए (तान् सुकृतः) = उन पुण्यशाली लोगों को विश्ववेदाः वह सर्वज्ञ प्रभु ही ररक्ष फिर पाप में गिरने से बचाते हैं। प्रभु से रक्षित होने पर (दिप्सन्तः) = हिंसित करते हुए इत् भी रिपवः काम-क्रोधादि शत्रु (अह) निश्चय से (न देभुः) = हिंसित नहीं कर पाते। प्रभुरक्षित पर कामादि का आक्रमण नहीं होता।
भावार्थ
भावार्थ- जब मनुष्य ममता से अन्धा हो जाता है, तब प्रभु की रक्षण शक्तियाँ ही उसे दुरित से बचाकर उत्तम मार्ग पर ले जानेवाली होती हैं।
विषय
सूर्य पृथिवी के समान स्त्रीपुरुष के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
सूर्य पृथ्वी के समान स्त्री पुरुष के कर्त्तव्य ( वत्सम् अभि संचरन्ती धेनू ) गौ जिस प्रकार बछड़े के सदा समीप रहती है उसी प्रकार माता पिता (धेनू) बालक को दूध और अन्न से पोषण करने वाले ( समानं वत्सम् अभि संचरन्ती ) एक ही संतान या पुत्र को समान रूप से प्रेम पूर्वक प्राप्त होते हुए ( विश्वम् ) सब प्रकार से ( वि चरतः ) विविध उपाय और धर्माचरण आदि कार्य करें। वे दोनों ( सुमेके ) उत्तम शोभायुक्त कर्मों और हृष्ट पुष्टांग वाले वीर्यवान्, उत्तम सन्तान उत्पन्न करने हारे (अनपवृज्यान्) कभी परित्याग न करने योग्य, या निन्द्य पदार्थों और आचरणों से रहित ( अध्वनः ) उत्तम मार्गों को ( मिमाने ) जाते और ( विश्वान् केतान् ) सब प्रकार के ज्ञानों और ( महः ) बड़े बड़े कार्यों को भी ( दधाने ) अपने में धारण करते हुए सूर्य पृथिवी के समान रहें । ( २ ) सूर्य और पृथ्वी उत्तम मेघों से जल वर्षण करने से ‘सुमेक = सुमेध’ है । उपदेश देने ले आचार्य और सर्वत्र व्यापक होने से परमेश्वर और अधीन वसने से शिष्य तीनों ‘वत्स’ हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, २ विराट् त्रिष्टुप । ३, ५ त्रिष्टुप् । ४ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे सूर्याप्रमाणे न्यायगुण, आकर्षण व प्रकाशयुक्त असतात. नानाविध मार्गाची निर्मिती करीत धेनुप्रमाणे सर्वांची पुष्टी करीत संपूर्ण विद्या धारण करतात ती दुःखरहित होतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Two cows, the earth and the sun, beautiful and co-existent, tending the same calf, the day-night cycle, equally well, traversing their orbits without deviating, go round and round, sustaining and revealing the great banners of the identity of various objects in space.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
In praise of the enlightened persons.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Heaven and earth are like the two well disposed milch cows moving towards their common progeny in the form of day and night. They fully nourish the calf, uphold the paths that are free from all that is to be avoided. O enlightened persons ! like the milch cows you should also try to understand unprejudiced and fulfil the Able desires of all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those charming persons who like the sun attract and illuminate, they find various paths. They treat all like the milch cows, uphold all sciences and get off from all miseries.
Foot Notes
(वत्सम् ) वत्सवद् वर्तमान: अहोरात्नः तम् = Day an 1 night like the calf of the milch cows in the form of heaven and earth. ( सुमेके) सुष्ठु मेक: प्रक्षेपो यस्य = Throwing away all undesirable things. (केतान्) बोधान् = Knowledge.
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