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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 146 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 146/ मन्त्र 4
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    धीरा॑सः प॒दं क॒वयो॑ नयन्ति॒ नाना॑ हृ॒दा रक्ष॑माणा अजु॒र्यम्। सिषा॑सन्त॒: पर्य॑पश्यन्त॒ सिन्धु॑मा॒विरे॑भ्यो अभव॒त्सूर्यो॒ नॄन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धीरा॑सः । प॒दम् । क॒वयः॑ । न॒य॒न्ति॒ । नाना॑ । हृ॒दा । रक्ष॑माणाः । अ॒जु॒र्यम् । सिसा॑सन्तः । परि॑ । अ॒प॒श्य॒न्त॒ । सिन्धु॑म् । आ॒विः । ए॒भ्यः॒ । अ॒भ॒व॒त् । सूर्यः॑ । नॄन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धीरासः पदं कवयो नयन्ति नाना हृदा रक्षमाणा अजुर्यम्। सिषासन्त: पर्यपश्यन्त सिन्धुमाविरेभ्यो अभवत्सूर्यो नॄन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    धीरासः। पदम्। कवयः। नयन्ति। नाना। हृदा। रक्षमाणाः। अजुर्यम्। सिसासन्तः। परि। अपश्यन्त। सिन्धुम्। आविः। एभ्यः। अभवत्। सूर्यः। नॄन् ॥ १.१४६.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 146; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    ये धीरासः कवयो हृदा नाना नॄन् रक्षमाणा सिषासन्तः सिन्धुं सूर्यइवाजुर्यं पदं नयन्ति ते परमात्मानं पर्यपश्यन्त य एभ्यो विद्याभिशिक्षे प्राप्याविरभवत् सोऽपि तत्पदमाप्नोति ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (धीरासः) ध्यानवन्तो विद्वांसः (पदम्) पदनीयम् (कवयः) विक्रान्तप्रज्ञाः शास्त्रविदो विद्वांसः (नयन्ति) प्राप्नुवन्ति (नाना) अनेकान् (हृदा) हृदयेन (रक्षमाणाः) ये रक्षन्ति ते अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (अजुर्यम्) यदजूर्षु हानिरहितेषु साधु (सिषासन्तः) संभक्तुमिच्छन्तः (परि) सर्वतः (अपश्यन्त) पश्यन्ति (सिन्धुम्) नदीम् (आविः) प्राकट्ये (एभ्यः) (अभवत्) भवति (सूर्य्यः) सवितेव (नॄन्) नायकान् मनुष्यान् ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सर्वानात्मवत्सुखदुःखव्यवस्थायां विदित्वा न्यायमेवाश्रयन्ति तेऽव्ययं पदमाप्नुवन्ति यथा सूर्यो जलं वर्षयित्वा नदीः पिपर्त्ति तथा विद्वांसो सत्यवचांसि वर्षयित्वा मनुष्यात्मनः पिपुरति ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो (धीरासः) ध्यानवान् (कवयः) विविध प्रकार के पदार्थों में आक्रमण करनेवाली बुद्धियुक्त विद्वान् (हृदा) हृदय से (नाना) अनेक (नॄन्) मुखियों की (रक्षमाणाः) रक्षा करते और (सिषासन्तः) अच्छे प्रकार विभाग करने की इच्छा करते हुए (सूर्यः) सूर्य के समान अर्थात् जैसे सूर्यमण्डल (सिन्धुम्) नदी के जल को स्वीकार करता वैसे (अजुर्यम्) हानिरहित (पदम्) प्राप्त करने योग्य पद को (नयन्ति) प्राप्त होते हैं वे परमात्मा को (परि, अपश्यन्त) सब ओर से देखते अर्थात् सब पदार्थों में विचारते हैं जो (एभ्यः) इनसे विद्या और उत्तम शिक्षा को पाके (आविः) प्रकट (अभवत्) होता है वह भी उस पद को प्राप्त होता है ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सबको आत्मा के समान सुख-दुःख की व्यवस्था में जान न्याय का ही आश्रय करते हैं वे अव्यय पद को प्राप्त होते हैं। जैसे सूर्य जल को वर्षा कर नदियों को भरता पूरी करता है वैसे विद्वान् जन सत्य वचनों को वर्षा कर मनुष्यों के आत्माओं को पूर्ण करते हैं ॥ ४ ॥

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    विषय

    गूढ़ शत्रु का नाशक मन्त्र

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (यः) = जो (अररिवान्) = दान न देनेवाला- कृपण अतएव अपवित्र जीवनवाला (अघायुः) = मन में सदा (अघ) = [पाप] की भावना करनेवाला (अरातीवा) = मन में शत्रुता का भाव रखनेवाला (द्वयेन) = 'मन में कुछ बाहर कुछ' इस प्रकार द्विविध भाव से (नः मर्चयति) = हमें हिंसित करता है [to hurt] व प्राप्त होता है [to go], (सः मन्त्रः) = उस द्वारा हमें दी जानेवाली वह सलाह (पुनः) = फिर (अस्मै गुरुः अस्तु) = इसके लिए ही निगलनेवाली हो [गरिता - सा०], अर्थात् उस गलत मन्त्रण से वह स्वयं ही विनष्ट होनेवाला हो। संसार में इस प्रकार छल छिद्रवाले व्यक्ति बहुत होते हैं-ऊपर से मीठे, अन्दर विषभरे। ये मीठी-मीठी बातों से हमें गलत मार्ग पर ले जाकर विनष्ट कर डालते हैं। २. उनका अशुभ मन्त्रण उन्हीं को नष्ट करनेवाला हो । यह द्विविध नीतिवाला दुष्ट पुरुष (दुरुक्तैः) = अपने दुरुक्तों से- अशुभ विचारों व मन्त्रों से (तन्वम् अनुमृक्षीष्ट) = अपने शरीर को ही अनुक्रमेण लुप्त करनेवाला हो, अपना ही सफाया करनेवाला हो। ये अशुभ मन्त्रणाएँ उसे ही नाश की ओर ले जानेवाली हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ - मित्र की आकृतिवाले गूढ़ शत्रु के मन्त्र उसे ही निगलनेवाले हों। इन दुष्ट मन्त्रणाओं से उसका स्वयं ही नाश हो जाए।

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    विषय

    विद्वानों का प्रभु-दर्शन ।

    भावार्थ

    (धीरासः) ध्यान और धारणशील ( कवयः ) दीर्घदर्शी शास्त्रज्ञ विद्वान् ( हृदा ) हृदय से, मनन और भक्ति द्वारा ( नाना नॄन् ) बहुत से लोगों को ( रक्षमाणाः ) संकटों से और नरक में गिरने से बचाते हुए स्वयं ( सिन्धुम् इव ) जल को सूर्य के समान ( सिन्धुम् ) समुद्र के समान अथाह आनन्द सागर प्रभु को ( सिषासन्तः ) प्राप्त होते हुए, उसका भजन सेवन करते हुए उसको ( परि अपश्यन्त ) भली प्रकार साक्षात् करते हैं । और वे उस ( अजुर्य ) अनिवाशी नित्य ( पदं ) परम प्राप्तव्य पद मोक्ष को ( नयन्ति ) स्वयं प्राप्त होते और औरों को भी वहां तक पहुंचाते हैं । ( एभ्यः ) इनके हित के लिये वह (सूर्यः) सर्वोत्पादक और सर्वप्रेरक, सर्वप्रकाशक तेजोमय प्रभु ( आविः अभवत् ) प्रत्यक्ष होता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १, २ विराट् त्रिष्टुप । ३, ५ त्रिष्टुप् । ४ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सर्वांना आपल्या आत्म्याप्रमाणे सुख-दुःख होते ही व्यवस्था जाणून जे न्यायाचा अवलंब करतात त्यांना अव्यय पद प्राप्त होते. जसा सूर्य जलाचा वर्षाव करून नद्यांना पूर्ण जलयुक्त करतो तसे विद्वान लोक सत्यवचनाचा वर्षाव करून माणसांच्या आत्म्यांना पूरित करतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Poets and scholars, wise and meditative, protecting and guiding people with their heart in many ways, lead them to positions of undecaying value. Keen to share the joy and generosity of life wide as the sea, they look round and the sun reveals itself to them.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Duties of the enlightened narrated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The wise meditators protect men in various styles. They live in their hearts and try to share with them. their own wealth and other things. They also bring them undecaying reality of life, the way sun brings water through the rains to the river. One who manifests his powers having received knowledge from them and good education, attains God.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the sun fills up the rivers through rain, likewise, the enlightened persons fill the souls of men with spiritual peace, enable them to attain God.

    Foot Notes

    ( पदम् ) बदनीयम् = Attainable and knowable reality. (सिवासन्त ) संभवतुं इच्छन्त: = Desiring to divide or share with others.

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