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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 147 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 147/ मन्त्र 4
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यो नो॑ अग्ने॒ अर॑रिवाँ अघा॒युर॑राती॒वा म॒र्चय॑ति द्व॒येन॑। मन्त्रो॑ गु॒रुः पुन॑रस्तु॒ सो अ॑स्मा॒ अनु॑ मृक्षीष्ट त॒न्वं॑ दुरु॒क्तैः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । अर॑रिऽवान् । अ॒घ॒ऽयुः । अ॒रा॒ति॒ऽवा । म॒र्चय॑ति । द्व॒येन॑ । मन्त्रः॑ । गु॒रुः । पुनः॑ । अ॒स्तु॒ । सः । अ॒स्मै॒ । अनु॑ । मृ॒क्षी॒ष्ट॒ । त॒न्व॑म् । दुः॒ऽउ॒क्तैः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो नो अग्ने अररिवाँ अघायुररातीवा मर्चयति द्वयेन। मन्त्रो गुरुः पुनरस्तु सो अस्मा अनु मृक्षीष्ट तन्वं दुरुक्तैः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। नः। अग्ने। अररिऽवान्। अघऽयुः। अरातिऽवा। मर्चयति। द्वयेन। मन्त्रः। गुरुः। पुनः। अस्तु। सः। अस्मै। अनु। मृक्षीष्ट। तन्वम्। दुःऽउक्तैः ॥ १.१४७.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 147; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे अग्ने यो अररिवानघायुररातिवा द्वयेन दुरुक्तैर्नोस्मान्मर्चयति ततो यो नस्तन्वमनुमृक्षीष्ट सोऽस्माकमस्मै पुनर्मन्त्रो गुरुरस्तु ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (यः) (नः) अस्मानस्माकं वा (अग्ने) विद्वन् (अररिवान्) प्राप्नुवन् (अघायुः) आत्मनोऽघमिच्छुः (अरातीवा) यो अरातिरिवाचरति (मर्चयति) उच्चरती (द्वयेन) द्विविधेन कर्मणा (मन्त्रः) विचारवान् (गुरुः) उपदेष्टा (पुनः) (अस्तु) भवतु (सः) (अस्मै) (अनु) (मृक्षीष्ट) शोधयतु (तन्वम्) शरीरम् (दुरुक्तैः) दुष्टैरुक्तैः ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    ये मनुष्याणां मध्ये दुष्टं शिक्षन्ते ते त्याज्याः। ये सत्यं शिक्षन्ते ते माननीयास्सन्तु ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (2)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वान् ! (यः) जो (अररिवान्) दुःखों को प्राप्त करता हुआ (अघायुः) अपने को अपराध की इच्छा करनेवाला (अरातीवा) न देनेवाला जन के समान आचरण करता (द्वयेन) दो प्रकार के कर्म से वा (दुरुक्तैः) दुष्ट उक्तियों से (नः) हम लोगों को (मर्चयति) कहता है उससे जो हमारे (तन्वम्) शरीर को (अनु, मृक्षीष्ट) पीछे शोधे (सः) वह हमारा और (अस्मै) उक्त व्यवहार के लिये (पुनः) बार-बार (मन्त्रः) विचारशील (गुरुः) उपदेश करनेवाला (अस्तु) होवे ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    जो मनुष्यों के बीच दुष्ट शिक्षा देते वा दुष्टों को सिखाते हैं, वे छोड़ने योग्य और जो सत्य शिक्षा देते वा सत्य वर्त्ताव वर्त्तनेवाले को सिखाते वे मानने के योग्य होवें ॥ ४ ॥

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    विषय

    पक्षान्तर में प्रभु का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् गुरो ! ( यः ) जो पुरुष (अररिवान्) किसी को कुछ नहीं देता और ( अघायुः ) दूसरे पर पापाचरण और आघात आदि का ही प्रयोग करने की चेष्टा करता है वह ( अराति वा ) अदानशील होकर ही (द्वयेन) भीतर कुछ और बाहर कुछ इस प्रकार के दो रूपों से ( मर्चयति ) लोगों को ठगता है । परन्तु ( यः ) जो ( नः ) हमारे बीच ( मन्त्रः ) मननशील और विचारवान् पुरुष है ( सः ) वह हमारा ( पुनः ) बार बार ( गुरुः ) उपदेष्टा (अस्तु ) हो । और (अस्मै ) उस गुरु के ( दुरुक्तैः ) दुःखदायी कठोर वचनों से भी शिष्यजन अपने अपने ( तन्वं ) शरीर और आत्मा को ( अनु मृक्षीष्ट ) उसके अनुकूल आचरण करके शुद्ध पवित्र करे ।

    टिप्पणी

    गीर्भिर्गुरूणां परुषाक्षराभिस्तिरस्कृता यान्ति नरा महत्वम् ॥ मनुष्य अपने गुरुजनों की कठोर वाणियों से तिरस्कार को प्राप्त होकर ही बड़े पद को प्राप्त करते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमा ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ३, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे सत्य वर्तन माणसांना दुष्ट शिक्षण देतात त्यांचा त्याग करावा व जे सत्यशिक्षण देतात ते माननीय ठरतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, whoever be envious, sinful and non giving and try to mislead us with evil words and double dealing in action, may the Agni mantra be our right guide and save us, and may the evil speaker and doer stew himself in his own juice and destroy himself with those very evil words.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The enlightened person is again eulogized.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned leader! wicked person approaches us and tries to behave like an enemy, reviles us with malignity of thought and speech. Let one thoughtful preceptor, who purified us (our body and soul), be his instructor and preceptor also.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who among men give bad teachings are to be shunned and those who teach truth must be revered.

    Foot Notes

    ( मर्चयति ) उच्चरति - Utters (reviles).

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