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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 157 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 157/ मन्त्र 5
    ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यु॒वं ह॒ गर्भं॒ जग॑तीषु धत्थो यु॒वं विश्वे॑षु॒ भुव॑नेष्व॒न्तः। यु॒वम॒ग्निं च॑ वृषणाव॒पश्च॒ वन॒स्पतीँ॑रश्विना॒वैर॑येथाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वम् । ह॒ । गर्भ॑म् । जग॑तीषु । ध॒त्थः॒ । यु॒वम् । विश्वे॑षु । भुव॑नेषु । अ॒न्तरिति॑ । यु॒वम् । अ॒ग्निम् । च॒ । वृ॒ष॒णौ॒ । अ॒पः । च॒ । वन॒स्पती॑न् । अ॒श्वि॒नौ॒ । ऐर॑येथाम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवं ह गर्भं जगतीषु धत्थो युवं विश्वेषु भुवनेष्वन्तः। युवमग्निं च वृषणावपश्च वनस्पतीँरश्विनावैरयेथाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवम्। ह। गर्भम्। जगतीषु। धत्थः। युवम्। विश्वेषु। भुवनेषु। अन्तरिति। युवम्। अग्निम्। च। वृषणौ। अपः। च। वनस्पतीन्। अश्विनौ। ऐरयेथाम् ॥ १.१५७.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 157; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे वृषणावश्विनौ युवं जगतीषु गर्भं धत्थो युवं ह विश्वेषु भुवनेष्वन्तरग्निं चैरयेथाम्। युवमपो वनस्पतींश्चैरयेथाम् ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (युवम्) (ह) किल (गर्भम्) गर्भमिव विद्याबोधम् (जगतीषु) विविधासु पृथिव्यादिषु सृष्टिषु (धत्थः) धरथः (युवम्) युवाम् (विश्वेषु) सर्वेषु (भुवनेषु) निवासाऽधिकरणेषु (अन्तः) मध्ये (युवम्) (अग्निम्) (च) (वृषणौ) वर्षयितारौ (अपः) (च) (वनस्पतीन्) (अश्विनौ) सूर्य्याचन्द्रमसाविवाध्यापकोपदेशकौ (ऐरयेथाम्) चालयेथाम् ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्या यथेह सूर्याचन्द्रमसौ विराजमानौ पृथिव्यां वृष्ट्या गर्भं धारयित्वा सर्वान् पदार्थान् जनयतस्तथा विद्यागर्भं धारयित्वा सर्वाणि सुखानि जनयेयुः ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (वृषणा) जल वर्षा करानेवाले (अश्विनौ) सूर्य और चन्द्रमा के समान अध्यापक और उपदेशक (युवम्) तुम दोनों (जगतीषु) विविध पृथिवी आदि सृष्टियों में (गर्भम्) गर्भ के समान विद्या के बोध को (धत्थः) धरते हो (युवं, ह) तुम्हीं (विश्वेषु) समस्त (भुवनेषु) लोक-लोकान्तरों के (अन्तः) बीच (अग्निम्) अग्नि को (च) भी (ऐरयेथाम्) चलाओ तथा (युवम्) तुम (अपः) जलों और (वनस्पतीन्) वनस्पति आदि वृक्षों को (च) डुलाओ ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य जैसे यहाँ सूर्य और चन्द्रमा विराजमान हुए पृथिवी में वर्षा से गर्भ धारण करा कर समस्त पदार्थों को उत्पन्न कराते हैं, वैसे विद्यारूप गर्भ को धारण करा के समस्त सुखों को उत्पन्न करावें ॥ ५ ॥

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    विषय

    जगती व भुवन-क्रियाशील व समृद्ध

    पदार्थ

    १. हे (वृषणौ) = शक्तिशाली (अश्विनौ) = प्राणापानो ! (युवम्) = आप (ह) = निश्चय से (जगतीषु) = गतिशील प्रजाओं में (गर्भम्) = गर्भवत् अन्दर वर्तमान उस प्रभु को (धत्थः) = धारण करते हो, अर्थात् आपकी साधना से ही एक क्रियाशील व्यक्ति अन्तःस्थित प्रभु का दर्शन कर पाता है। (युवम्) = आप दोनों ही (विश्वेषु) = सब (भुवनेषु अन्तः) = [becoming prosperous] तेज, वीर्यादि सम्पत्तियों से समृद्ध होनेवाले व्यक्तियों में गर्भवत् वर्तमान प्रभु को स्थापित करते हो, अर्थात् प्राणायाम की साधना से ही मनुष्य क्रियाशील बनता है और इन्हीं की साधना से तेजादि समृद्धियों को प्राप्त करता है। इस क्रियाशील व आत्मिक सम्पत्ति से समृद्ध पुरुष में ही प्रभु का दर्शन होता है। २. (युवम्) = = आप दोनों ही साधक में (अग्निं च) = अग्नि को भी (ऐरयेथाम्) प्रेरित करते हो। अग्नितत्त्व ही जीवन व उत्साह का प्रतीक है। इस अग्नितत्त्व के वर्धन के लिए ही आप (अपः) = जलों को (वनस्पतीन् च) = और वनस्पतियों को प्रेरित करते हो। यह साधक जलों और वनस्पतियों का प्रयोग करता हुआ अपने में अग्नितत्त्व का वर्धन करता है और इस अग्नितत्त्व के वर्धन से क्रियाशील व तेजस्विता आदि से समृद्ध बनकर प्रभु-दर्शन के योग्य बनता है। =

    भावार्थ

    भावार्थ - जलों व वनस्पतियों का प्रयोग करता हुआ प्राणसाधक अपने में अग्नितत्त्व का वर्धन करता है। इससे क्रियाशील व तेज समृद्ध बनकर यह अन्तः स्थित प्रभु का दर्शन करता है।

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    विषय

    स्त्री पुरुषों के गृहस्थसम्बन्धी कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( वृषणा ) उत्तम वृष्टि करने वालो सूर्य चन्द्र ! या सूर्य और वायु ! और उनके समान तेजस्वी और बलवान् स्त्री पुरुषो ! जिस प्रकार सूर्य और वायु ( जगतीषु गर्भम् ) भूमियों में और प्राणि योनियों में ऋत्वनुसार गर्भ धारण कराते हैं और ( जगतीषु ) तीनों लोकों में ( गर्भं ) वृष्टि योग्य जल को सूक्ष्म रूप से धारण कराते हैं उसी प्रकार से हे स्त्री पुरुषो ! आप दोनों (वृषणौ) कामनाओं, सुखों, वीर्यों के सेचन और वीर्य के रक्षण करने हारो ! आप ( जगतीषु ) गमन योग्य रात्रियों में ही ( गर्भं धत्थः ) गर्भाधान क्रिया द्वारा गर्भ धारण करो इससे अतिरिक्त निषिद्ध रात्रियों में नहीं । और ( जगतीषु ) आप दोनों प्रजाओं में ( गर्भं ) वशकारी प्रधान पुरुष को ( धत्थः ) धारण या स्थापन करो । ( युवं ) आप दोनों ( विश्वेषु भुवनेषु ) सब लोकों के बीच सुख से रहो । ( युवम् ) आप दोनों ( अग्निम् ) अग्नि, और ( अपः च ) जलों को और ( वनस्पतीन् च ) वनस्पतियों को भी ( ऐरयेथाम् ) कार्य में लाओ। अथवा ( अग्निम् ) अग्रणी नायक और विनीत पुत्र, विद्वान् ज्ञानी, ( अपः च ) आप्त पुरुषों और ( वनस्पतीन् ) वृक्ष के समान सबके शरणदाता और सेना के दलपतियों और ऐश्वर्य पालकों को ( ऐरयेथाम् ) सदा अपने योग्य कार्यों पर नियुक्त करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दीर्घतमाः ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप् । ५ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ विराट् त्रिष्टुप् । २, ४ जगती। ३ निचृज्जगती ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे येथे सूर्य व चंद्र विराजमान आहेत व वृष्टी करून पृथ्वीच्या गर्भातून सर्व पदार्थ उत्पन्न करतात तसे माणसांनी विद्यारूपी गर्भ धारण करून संपूर्ण सुख उत्पन्न करावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, leaders of humanity, harbingers of light and life, generous and brave, life of nature astir, you vest the moving spheres with living potentials for growth, you enrich all the living worlds of the universe with light and life. Come both of you, help and support, excite the fire, agitate the waters and inspire the herbs and trees of the nation with life anew, elevate, gear up and bring showers of fire and waters of action and ambition.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    In the praise of teacher-preacher combine.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers! you are like the sun and the moon, you shower happiness, sustain knowledge like the womb in various earth like planets. You set in motion fire, water and the trees of the forest to accomplish various purposes.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the sun and moon cause rains, so the teachers, preachers and other learned persons should create all kinds of happiness by founding the knowledge among the people.

    Foot Notes

    (गर्भम्) गर्भमिव विद्याबोधम् = Knowledge like the germ or womb. (अश्विनौ) सूर्याचन्द्रमसाविव अध्यापकोपदेशकौ = The teachers and preachers who are dispellers of the darkness of ignorance.

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