ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 158/ मन्त्र 5
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
न मा॑ गरन्न॒द्यो॑ मा॒तृत॑मा दा॒सा यदीं॒ सुस॑मुब्धम॒वाधु॑:। शिरो॒ यद॑स्य त्रैत॒नो वि॒तक्ष॑त्स्व॒यं दा॒स उरो॒ अंसा॒वपि॑ ग्ध ॥
स्वर सहित पद पाठन । मा॒ । ग॒र॒न् । न॒द्यः॑ । मा॒तृऽत॑माः । दा॒साः । यत् । ई॒म् । सुऽस॑मुब्धम् । अ॒व॒ऽअधुः॑ । शिरः॑ । यत् । अ॒स्य॒ । त्रै॒त॒नः । वि॒ऽतक्ष॑त् । स्व॒यम् । दा॒सः । उरः॑ । अंसौ॑ । अपि॑ । ग्धेति॑ ग्ध ॥
स्वर रहित मन्त्र
न मा गरन्नद्यो मातृतमा दासा यदीं सुसमुब्धमवाधु:। शिरो यदस्य त्रैतनो वितक्षत्स्वयं दास उरो अंसावपि ग्ध ॥
स्वर रहित पद पाठन। मा। गरन्। नद्यः। मातृऽतमाः। दासाः। यत्। ईम्। सुऽसमुब्धम्। अवऽअधुः। शिरः। यत्। अस्य। त्रैतनः। विऽतक्षत्। स्वयम्। दासः। उरः। अंसौ। अपि। ग्धेति ग्ध ॥ १.१५८.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 158; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे विद्वांसो दासाः सुममुब्धं यन्मामीमवाधुस्तं मा मातृतमा नद्यो न गरन्। यद्यस्त्रैतनो दासोऽस्य मम शिरो वितक्षत् स स्वयं उरो अंसावपि ग्ध ॥ ५ ॥
पदार्थः
(न) (मा) माम् (गरन्) निगलेयुः (नद्यः) सरितः (मातृतमाः) अतिशयेन मातर इव वर्त्तमानाः (दासाः) सुखप्रदाः (यत्) यम् (ईम्) सर्वतः (सुसमुब्धम्) सुष्ठुसम्यगृजुम् (अबाधुः) अधो धरन्तु (शिरः) (यत्) यः (अस्य) (त्रैतनः) यस्त्रीणि शरीरात्ममनोजानि सुखानि तनोति स एव (वितक्षत्) तक्षतु (स्वयम्) (दासः) सेवकः (उरः) वक्षःस्थलम् (अंसौ) भुजमूले (अपि) (ग्ध) हन्तु। हन्तेर्लुङि छान्दसमेतत् ॥ ५ ॥
भावार्थः
मनुष्यैरेवं प्रयतितव्यं यतो नदीसमुद्रा न निमज्जयेयुः। दासः शूद्रादिः सेवायां नियुक्तोऽप्यतिसरलस्वभावं पुरुषमालस्येन पीडयति ततस्तं सुशिक्षेतानुचितत्वे ताडयेच्च। स्वशरीराङ्गानि सदा पोषणीयानि च ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे विद्वानो ! (दासाः) सुख देनेवाले दास जन (सुसमुब्धम्) अति सूधे स्वभाववाले (यत्) जिस मुझे (ईम्) सब ओर से (अबाधुः) पीड़ित करें उस (मा) मुझे (मातृतमाः) माताओं के समान मान करने-करानेवाली (नद्यः) नदियाँ (न) न (गरन्) निगलें न गलावें, (यत्) जो (त्रैतनः) तीन अर्थात् शारीरिक, मानसिक और आत्मिक सुखों का विस्तार करनेवाला (दासः) सेवक (अस्य) इस मेरे (शिरः) शिर को (वितक्षत्) विविध प्रकार की पीड़ा देवे वह (स्वयम्) आप अपने (उरः) वक्षःस्थल और (अंसौ) स्कन्धों को (अपि, ग्ध) काटे ॥ ५ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि ऐसा प्रयत्न करें जिससे नदी और समुद्र आदि न डुबा मारें। शूद्र आदि दास जनसेवा करने पर नियत हुआ भी आलस्यवश अति सूधे स्वभाववाले स्वामी को पीड़ा दिया करता अर्थात् उनका काम मन से नहीं करता, इससे उसको अच्छी शिक्षा देवे और अनुचित करने में ताड़ना भी दे तथा अपने अपने शरीर के अङ्गों की सदा पुष्टि करें ॥ ५ ॥
विषय
त्रैतन
पदार्थ
१. (मा) = मुझे (नद्यः) = ये विषयों के जल [नदनात्] (न गरन्) = निगल न जाएँ । (मातृतमाः) = ये मेरे जीवन को उत्तम बनानेवाले हों। प्रभु ने इनका निर्माण पतन के लिए न करके उत्थान के लिए ही तो किया है। (दासा:) = मेरा उपक्षय करनेवाली [दसु उपक्षये] इन वासनाओं ने (यत्) = जो (ईम्) = निश्चय से (सुसमुब्धम्) = [संकुचितसर्वाङ्गम् - सा०] संकुचित सब अङ्गोंवाले मुझको (अव अधुः) = नीचे स्थापित कर दिया है। वासनाओं के कारण मेरे सब अङ्गों की शक्तियाँ संकुचित हो गई हैं और मेरा पतन हो गया है। २. इस दास- इस विनाश करनेवाली वासना का (यत् शिरः) = जो सिर है उसे (त्रैतन:) = [त्रि-तन्] 'ज्ञान, कर्म व उपासना ' – इन तीनों का विस्तार करनेवाला ही (वितक्षत्) = विशेषरूप से काटनेवाला होता है। मेरे त्रैतन बनने पर (दास:) = यह क्षय करनेवाली वासना (स्वयम्) = अपने-आप ही जहाँ अपने सिर को विदीर्ण करे वहाँ (उरः) = अपनी छाती को और (अंसौ अपि) = अपने कन्धों को भी (ग्ध) = विदीर्ण करनेवाली हो [ग्ध हन्तेर्लुङि रूपम् - सा०] जब मैं ज्ञान, कर्म और उपासना का विस्तार करूँ, उस समय मेरे ज्ञान-विस्तार से इस वासना का शिरच्छेद हो जाए। मेरे कर्म-विस्तार से इसके कन्धे विदीर्ण हो जाएँ और उपासना के विस्तार से इसका उरो विदारण हो जाए। इस प्रकार त्रैतन बनकर मैं वासना का समूलोन्मूलन करनेवाला बनूँ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ने विषयों को उन्नति-साधन के लिए बनाया है। इनमें फँसकर हम अपना नाश कर बैठते हैं। हम त्रैतन बनें और वासना का उन्मूलन करके विषयों का यथायोग करते हुए उन्नत हों ।
विषय
मामतेय दीर्घतमा का रहस्य ।
भावार्थ
( यत् ) जब ( दासाः ) सुख देने वाले भृत्यजन या राष्ट्र के नाशकारी शत्रुजन ( सु-समुब्धम् ) अच्छी प्रकार धन धान्य से परिपूर्ण, सुसम्पन्न ( मुझ ) राष्ट्रपति को ( अव अधुः ) नीचे गिराने का यत्न करें उस समय ( मातृतमाः ) उत्तम माताओं के समान अति हितकारिणी, ज्ञानवान् ( नद्यः ) और धनैश्वर्य से सम्पन्न और उत्तम उपदेश देने वाली विद्वान् और आत प्रजाएं ( मा न गरन् ) मुझे निगलने का यत्न न करें, प्रत्युत मेरी रक्षा करें । ( यत् ) जब ( त्रैतनः ) धन जन और कोष, तीनों प्रकार की शक्तियों को बढ़ाने वाला ( दासः ) सुखप्रद भृत्यजन और उक्त तीनों प्रकार की शक्तियों को बढ़ाकर राष्ट्र को नाश करने वाला शत्रुजन ( अस्य शिखाः ) इस राष्ट्र के शिर को ( वि तक्षत् ) विविध और विपरीत मार्ग से नाश करता है तब वह मानो ( स्वयं ) अपने ही आप ( उरः अंसौ अपि ग्ध ) अपने ही छाती और कन्धों पर आघात करता है । प्रजा का उत्तम बलवान् नायक राजा का घात करना अपना ही नाश कर लेना है। इसी प्रकार बलवान् राज्य से निर्बल का शत्रुता करना अपने आप अपने पर विपत्ति मोल लेना है। ब्रह्मचारी पक्ष में—( यद् ईं सुसमुब्धम् दासाः अव अधुः ) जब इस अति उत्तम विनीत विद्यार्थी को विद्यादि के दाता अपने अधीन रखें तब ( मातृतमाः नद्यः न मा गरन् ) नदियों के समान ममता से अश्रु बहाने वाली उत्तम माताएं मुझे अपने स्नेहमय मोह के पाश में न डुबो लें। जो गुरु विद्यादाता तीनों शरीर, आत्मा, मन के बल और त्रिविध वेद विद्या से युक्त होकर ( अस्यशिरः वि तक्षत् ) इस मुझ विद्यार्थी के शिर या मस्तक को विवध उपायों से गढ़ता है, शिल्पी के समान उत्तम बनाता है वही ( स्वयं ) स्वयं (उरः अंसौ अपि ग्ध) उस विद्यार्थी के वक्षस्थल और कंधों को भी अपने आप प्राप्त कर उनको भी गढ़कर बनावे । अर्थात् ज्ञाता का ही कर्त्तव्य है कि वह विद्यार्थी के मस्तक के साथ साथ हृदय और बाहु बल की भी वृद्धि करे । अध्यात्म में—दास कर्म-इन्द्रियगण जब आत्मा को नीचे गिरावें तब मातृतम नदी, गुरुजन क्यों न मुझे उपदेश करें। चेतन दास मन ही मेरा शिरो भाग को बनाता है वही ( उरः अंसौ ) छाती बाहू आदि अंगों को भी वश करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः– १, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् । ३ भुरिक् पङ्क्तिः । ६ निचृदनुष्टुप् ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी असा प्रयत्न केला पाहिजे की ज्यामुळे नदी व समुद्रात बुडता कामा नये. सरळमार्गी मालकास सेवेसाठी नेमलेला शूद्र दास आळशीपणाने त्रास देतो अर्थात मनापासून काम करीत नाही. त्यासाठी त्याला चांगले शिक्षण द्यावे व अनुचित वागल्यास ताडनाही करावी, तसेच शरीराच्या अवयवांना पुष्ट करावे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let the streams be most motherly and kind saviours to me, simple, natural and unhurtful person as I am. Let not the streams swallow me even if savages were to throw me down into the water. If a thrice torturous person were to try to cut the head of such a person, then may the evil intentioned person cut his own torso and his own shoulders.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Guidelines about behavior with a servant imparted.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons ! if servants who are supposed to serve and give me happiness, annoy me though I am of a very simple fair and straightforward nature, let them not put me into embarrassment. Let not the mother-like rivers harm me in any way. If a servant creates trouble for me by being disobedient and unruly, he may hurt or harm himself in his chest and shoulders, because of his sinful act.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should endeavor in such a manner by practice of swimming and building embankments, that the river and sea may not drown one. Sometimes, a servant also troubles a man of very upright nature by being indolent. On such occasions, he should be given proper instructions and be even punished when be behaves improperly or impolitely. One should always strengthen one's limbs.
Foot Notes
(दासा:) सुखप्रदा: = Givers of happiness. ( त्रैतन:) यः त्निणि शरीरात्ममनोजानि सुखानि तनोति सः = He who extends physical, mental and spiritual happiness.
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