ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 34
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
पृ॒च्छामि॑ त्वा॒ पर॒मन्तं॑ पृथि॒व्याः पृ॒च्छामि॒ यत्र॒ भुव॑नस्य॒ नाभि॑:। पृ॒च्छामि॑ त्वा॒ वृष्णो॒ अश्व॑स्य॒ रेत॑: पृ॒च्छामि॑ वा॒चः प॑र॒मं व्यो॑म ॥
स्वर सहित पद पाठपृ॒च्छामि॑ । त्वा॒ । पर॑म् । अन्त॑म् । पृ॒थि॒व्याः । पृ॒च्छामि॑ । यत्र॑ । भुव॑नस्य । नाभिः॑ । पृ॒च्छामि॑ । त्वा॒ । वृष्णः॑ । अश्व॑स्य । रेतः॑ । पृ॒च्छामि॑ । वा॒चः । प॒र॒मम् । विऽओ॑म ॥
स्वर रहित मन्त्र
पृच्छामि त्वा परमन्तं पृथिव्याः पृच्छामि यत्र भुवनस्य नाभि:। पृच्छामि त्वा वृष्णो अश्वस्य रेत: पृच्छामि वाचः परमं व्योम ॥
स्वर रहित पद पाठपृच्छामि। त्वा। परम्। अन्तम्। पृथिव्याः। पृच्छामि। यत्र। भुवनस्य। नाभिः। पृच्छामि। त्वा। वृष्णः। अश्वस्य। रेतः। पृच्छामि। वाचः। परमम्। विऽओम ॥ १.१६४.३४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 34
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्विषयमाह ।
अन्वयः
हे विद्वँस्त्वा पृथिव्याः परमन्तं पृच्छामि। यत्र भुवनस्य नाभिरस्ति तं पृच्छामि। वृष्णोऽश्वस्य रेतस्त्वा पृच्छामि। वाचः परमं व्योम त्वां पृच्छामि ॥ ३४ ॥
पदार्थः
(पृच्छामि) (त्वा) त्वाम् (परम्) (अन्तम्) (पृथिव्याः) (पृच्छामि) (यत्र) (भुवनस्य) लोकसमूहस्य (नाभिः) बन्धनम् (पृच्छामि) (त्वा) (वृष्णः) वीर्यवर्षकस्य (अश्वस्य) अश्ववद्वीर्यवतः (रेतः) वीर्यम् (पृच्छामि) (वाचः) (परमम्) प्रकृष्टम् (व्योम) व्यापकमवकाशम् ॥ ३४ ॥
भावार्थः
अत्र चत्वारः प्रश्नाः सन्ति तदुत्तराण्युत्तरत्र मन्त्रे वर्त्तन्ते इत्थमेव जिज्ञासुभिर्विद्वांसो नित्यं प्रष्टव्याः ॥ ३४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे विद्वान् ! (त्वा) आपको (पृथिव्याः) पृथिवी के (परम्) पर (अन्तम्) अन्त को (पृच्छामि) पूछता हूँ, (यत्र) जहाँ (भुवनस्य) लोकसमूह का (नाभिः) बन्धन है उस को (पृच्छामि) पूछता हूँ, (वृष्णः) वीर्यवान् वर्षानेवाले (अश्वस्य) घोड़ों के समान वीर्यवान् के (रेतः) वीर्य को (त्वा) आपको (पृच्छामि) पूछता हूँ और (वाचः) वाणी के (परमम्) परम (व्योम) व्यापक अवकाश अर्थात् आकाश को आपको (पृच्छामि) पूछता हूँ ॥ ३४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में चार प्रश्न हैं और उनके उत्तर अगले मन्त्र में वर्त्तमान हैं। ऐसे ही जिज्ञासुओं को विद्वान् जन नित्य पूछने चाहिये ॥ ३४ ॥
विषय
चार प्रश्न
पदार्थ
१. (त्वा) = तुझसे, जिसका ध्यान प्रभु की ओर नहीं जा रहा उससे (पृच्छामि) = मैं पूछता हूँ = कि (पृथिव्याः) = इस पृथिवी का (परम् अन्तम्) = परला सिरा क्या है ? अथवा अन्तिम उद्देश्य क्या है ? (पर= अन्तिम, अन्त उद्देश्य ) । हमें यहाँ पृथिवी पर क्यों भेजा गया है ? हमें इसे क्या बनाना है। २. मैं तुझसे उस वस्तु को पृच्छामि पूछता हूँ यत्र - जहाँ कि भुवनस्य नाभिः = सारे ब्रह्माण्ड की नाभि है, केन्द्र है, बन्धन- स्थान है। क्या द्युलोक ही वह नाभि है, सारा कार्यकारणभाव क्या द्युलोक में ही विश्रान्त है ? ३. (त्वा) = तुझसे पृच्छामि पूछता हूँ कि (वृष्ण:) = तेजस्वी (अश्वस्य) = निरन्तर मार्ग को व्याप्त करनेवाले पुरुष की (रेतः) = शक्ति किसमें है ? ४. मैं (पृच्छामि) = तुझसे पूछता हूँ (वाच:) = वाणी के (परमं व्योम) = परम आकाश को ।
भावार्थ
भावार्थ- मन्त्र में चार प्रश्न पूछे हैं, अगले मन्त्र में उनका उत्तर देखिए -
विषय
पृथिवी के परम अन्त भुवन की नाभि, महान् आत्मा के विश्वोत्पादक सामर्थ्य और परमाश्रय विषयक प्रश्न और उत्तर ।
भावार्थ
हे विद्वन् ! मैं ( त्वां ) तुझ से ( पृथिव्याः परम् अन्तम् ) पृथिवी के उस परले अन्त को (पृच्छामि) पूछता हूं। मैं उस परले अन्त के विषय में (पृच्छामि) पूछता हूं (यत्र) जिस पर ( भुवनस्य नाभिः) समस्त संसार की धुरी टिकी है । मैं (त्वा पृच्छामि) तुझ से पूछता हूं ( वृष्णः) उस जल वर्षण करने वाले मेघ के समान सब भूमियों पर उत्पादक वीर्य के निषेक करने वाले ( अश्वस्य ) सर्व व्यापक सूर्य के समान सब उत्पादक भूमियों के भोक्ता परमेश्वर का ( रेतः ) वह उत्पादक वीर्य कौन सा है जिससे यह विविध प्रजाएं स्थावर जंगम, नाना लोक लोकान्तर उत्पन्न होते हैं। और ( पृच्छामि ) पूछता हूं कि ( वाचः ) वेद वाणी का (परमं ) सर्वोत्कृष्ट ( व्योम ) विशेष रक्षा स्थान, परमाश्रय कौनसा है । उत्तर अगले मन्त्र में स्पष्ट है । अथर्व ९ । १० । १३ ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ देवता-१-४१ विश्वेदेवाः । ४२ वाक् । ४२ आपः । ४३ शकधूमः । ४३ सोमः ॥ ४४ अग्निः सूर्यो वायुश्च । ४५ वाक् । ४६, ४७ सूर्यः । ४८ संवत्सरात्मा कालः । ४९ सरस्वती । ५० साध्याः । ५१ सूयः पर्जन्या वा अग्नयो वा । ५२ सरस्वान् सूर्यो वा ॥ छन्दः—१, ९, २७, ३५, ४०, ५० विराट् त्रिष्टुप् । ८, १८, २६, ३१, ३३, ३४, ३७, ४३, ४६, ४७, ४९ निचृत् त्रिष्टुप् । २, १०, १३, १६, १७, १९, २१, २४, २८, ३२, ५२ त्रिष्टुप् । १४, ३९, ४१, ४४, ४५ भुरिक त्रिष्टुप् । १२, १५, २३ जगती । २९, ३६ निचृज्जगती । २० भुरिक् पङ्क्तिः । २२, २५, ४८ स्वराट् पङ्क्तिः । ३०, ३८ पङ्क्तिः। ४२ भुरिग् बृहती । ५१ विराड्नुष्टुप् ॥ द्वापञ्चाशदृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात चार प्रश्न आहेत, त्यांची उत्तरे पुढच्या मंत्रात आहेत. असे जिज्ञासूंनी विद्वानांना नित्य विचारावे. ॥ ३४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
What is the ultimate end of the earth? I ask you. Where is the centre and centre-hold of the universe? I ask you. What is the life-seed of the mighty generative force of infinitive power and speed? I ask you. What is the ultimate sound source from where the first boom of the Word arises? I ask.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Four questions are set for the learned men.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person! I ask you about the last boundary of the earth ? I ask you about the navel of the world? I ask you about the nature of the semen or fecundating power of a virile person who is mighty like a horse. I ask you about the highest pitch of the holy speech ?
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
These are the four questions which have been answered in the next mantra. The seekers after knowledge should put such questions to scholars and get their satisfactory answers.
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