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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 166 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 166/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मैत्रावरुणोऽगस्त्यः देवता - मरुतः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    यत्त्वे॒षया॑मा न॒दय॑न्त॒ पर्व॑तान्दि॒वो वा॑ पृ॒ष्ठं नर्या॒ अचु॑च्यवुः। विश्वो॑ वो॒ अज्म॑न्भयते॒ वन॒स्पती॑ रथी॒यन्ती॑व॒ प्र जि॑हीत॒ ओष॑धिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । त्वे॒षऽया॑माः । न॒दय॑न्त । पर्व॑तान् । दि॒वः । वा॒ । पृ॒ष्ठम् । नर्याः॑ । अचु॑च्यवुः । विश्वः॑ । वः॒ । अज्म॑न् । भ॒य॒ते॒ । वन॒स्पतिः॑ । र॒थि॒यन्ती॑ऽइव । प्र । जि॒ही॒ते॒ । ओष॑धिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्त्वेषयामा नदयन्त पर्वतान्दिवो वा पृष्ठं नर्या अचुच्यवुः। विश्वो वो अज्मन्भयते वनस्पती रथीयन्तीव प्र जिहीत ओषधिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। त्वेषऽयामाः। नदयन्त। पर्वतान्। दिवः। वा। पृष्ठम्। नर्याः। अचुच्यवुः। विश्वः। वः। अज्मन्। भयते। वनस्पतिः। रथियन्तीऽइव। प्र। जिहीते। ओषधिः ॥ १.१६६.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 166; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे विद्वांसो यत्त्वेषयामा नर्या युष्मद्रथा दिवः पर्वतान्नदयन्त भुवः पृष्ठं वाऽचुच्यवुः तदा विश्वो वनस्पती रथियन्तीव वोऽज्मन्भयते ओषधिश्च प्रजिहीते ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (यत्) यदा (त्वेषयामाः) त्वेषे दीप्तौ सत्यां यामो गमनं येषान्ते (नदयन्त) नादयन्ति (पर्वतान्) मेघान् (दिवः) अन्तरिक्षस्य (वा) (पृष्ठम्) उपरिभागम् (नर्याः) नृभ्यो हिताः (अचुच्यवुः) प्राप्नुवन्ति (विश्वः) (वः) युष्माकम् (अज्मन्) अज्मनि पथि (भयते) कम्पते (वनस्पतिः) वनस्पतिर्वृक्षः (रथियन्तीव) आत्मनो रथिन इच्छन्तीव सेना (प्र) (जिहीते) प्राप्नोति (ओषधिः) सोमादिः ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। अन्तरिक्षप्रदेशेषु विद्वद्भिः प्रयुक्ताकाशयानानां महत्तरेण वेगेन कदाचिन्मेघविपर्याससम्भवस्तथा पृथिव्याः कम्पनेन वृक्षादीनां कम्पनसम्भवश्च ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! (यत्) जब (त्वेषयामाः) अग्नि का प्रकाश होने से गमन करनेवाले (नर्याः) मनुष्यों के लिये अत्यन्त साधक तुम्हारे रथ (दिवः) अन्तरिक्ष के (पर्वतान्) मेघों को (नदयन्त) शब्दायमान करते अर्थात् तुम्हारे रथों के वेग से अपने स्थान से तितर-वितर हुए मेघ गर्जनादि शब्द करते हैं (वा) अथवा पृथिवी के (पृष्ठम्) पृष्ठ भाग को (अचुच्यवुः) प्राप्त होते तब (विश्वः, वनस्पतिः) समस्त वृक्ष (रथियन्तीव) अपने रथी को चाहती हुई सेना के समान (वः) तुम्हारे (अज्मन्) मार्ग में (भयते) कँपता है अर्थात् जो वृक्ष मार्ग में होता वह थरथरा उठता और (ओषधिः) सोमादि ओषधि (प्र, जिहीते) अच्छे प्रकार स्थान त्याग कर देती अर्थात् कपकपाहट में स्थान से तितर-वितर होती है ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    अन्तरिक्ष के मार्गों में विद्वानों के प्रयोग किये हुए आकाशगामी यानों के अत्यन्त वेग से कभी मेघों के तितर-वितर जाने का सम्भव और पृथिवी के कम्पन से वृक्ष वनस्पति के कम्पने का सम्भव होता है ॥ ५ ॥

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    विषय

    दीप्त गायनवाले वायु

    पदार्थ

    १. (यत्) = जब (त्वेषयामाः) = दीप्त गमनोंवाले मरुत् [प्रबल वायुएँ] पर्वतान् पर्वतों को (नदयन्त) = गुञ्जायमान कर देते हैं - गुफाओं में वायु के प्रवेश से पर्वत गूँज-सा उठता है (वा) = अथवा (नर्याः) = वृष्टि के द्वारा अन्नोत्पादन करते हुए नर-हितकारी (मरुत् दिवः पृष्ठम्) = द्युलोक के पृष्ठ को (अचुच्यवुः) = क्षरित कर देते हैं, अर्थात् द्युलोक से वृष्टिकणों के रूप में जल को नीचे भेजते हैं, उस समय हे मरुतो ! (वः) = आपके (अज्मन्) = [passage] मार्ग में (विश्वः वनस्पतिः) = सब वनस्पतियाँ (भयते) = भयभीत होती हैं, गिरने के भय से काँप उठती हैं । (ओषधिः) = सब ओषधियाँ इस प्रकार (प्रजिहीत) = गतिवाली हो उठती हैं (इव) = जैसे कि (रथयन्ती) = रथ की कामना से रथारूढ़ हुई कोई स्त्री गतिमय हो जाती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- वायुओं के तीव्र गति से चलने पर पर्वत - कन्दराएँ गूँज उठती हैं, द्युलोकस्थ मेघ वृष्टिजल टपकाने लगते हैं और सब वनस्पतियाँ कम्पित हो उठती हैं।

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    विषय

    वायु के समान ही वीरों को शत्रूच्छेदन ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (नर्याः) सब मनुष्यों के हितकारी ( त्वेषयामाः ) तीव्र वेग से जाने वाले वायु गण ( पर्वतान् नदयन्त ) पर्वतों और मेघों को गुंजाते हैं ( दिवः पृष्ठं वा अचुच्युवुः ) आकाश या अन्तरिक्ष पृष्ठ को भी व्याप लेते हैं। जिस प्रकार वायुओं से ( विश्वः वनस्पतिः अज्मनि भयते ) सब बड़े वृक्ष उनके वेग के भय से कापते हैं और ( ओषधिः ) ओषधिएं (रथीयन्तीव) रथ पर चढ़ी स्त्री के समान खूब वेग से उड़तीसी दीखती हैं उसी प्रकार ( नर्याः ) सब मनुष्यों के हितकारी वीर और सज्जन पुरुषों के रथ आदि ( त्वेषयामाः ) दीप्ति, विद्युत् के द्वारा चलने बाले आकाश में ( पर्वतान् नदयन्त ) पर्वतों की शोभा बढ़ावें और पृथ्वी पर ( पर्वतान् नदयन्त ) पर्वतों को गुंजावें । वे ( दिवः पृष्ठं ) भूमि और अन्तरिक्ष के पृष्ठ पर भी ( अचुच्युवुः ) चलें । हे वीर पुरुषो ! ( वः अज्मन् ) आपके उखाड़ फेंकने वाले बल के आधार पर ( विश्वः ) सब ( वनस्पतिः ) सैन्य दल के रक्षक शत्रुजन तथा ऐश्वर्यपालक जन भी ( भयते ) भय खाते हैं । और ( ओषधिः ) दाहकारी अस्त्रों के धारण करने वाली सेना भी ( रथीयन्तीव ) रथ को चाहने वाली नव वधू के समान भीरु होकर मानो अपने रथवान्, नायक को चाहती हुई ( प्र जिहीते ) खूब कांप जाती वा आगे बढ़ती है । इति प्रथमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मैत्रावरुणोऽगस्त्य ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, २, ८ जगती । ३, ५, ६, १२, १३ निचृज्जगती । ४ विराट् जगती । ७, ९, १० भुरिक् त्रिष्टुप् । ११ विराट् त्रिष्टुप् । १४ त्रिष्टुप् । १५ पङ्क्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वानांच्या प्रयोगामुळे अंतरिक्षात याने अत्यंत वेगाने जातात, तेव्हा कधी कधी मेघ इकडे तिकडे विखुरण्याची शक्यता असते व पृथ्वीच्या कंपनाने वृक्ष वनस्पती कंपित होण्याची शक्यता असते. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    When the man-made meteors of rockets blazing through sky and space roar through mountains of earth and clouds of dust and vapour, making them reverberate, and thus reach the top of heaven, then all the bio-world on your way shakes in fear and celestial herbs like soma shake off from the root like astronauts floating from their seat in the control chamber.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The theme of Maruts goes further.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons ! your vehicles of various kinds are beneficent to men. With dazzling speed, they make the clouds roaring and you shake the firmaments high back in your heroic strength. Because of it, the owners of the trees become apprehensive of accident at this approach. Then bushes wave to and from like an army loving its chariots.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is possible that there may be some sort of noise in the clouds, caused by the great speed of the aircrafts used by leading brave people in the sky. And similarly because of the quaking of the earth, there is the possibility of the shaking of the tress and plants etc.

    Foot Notes

    (पर्वतान्) मेघान् = Clouds ( त्वेषयामा:) त्वेषे दीप्तौ सत्यां यामः गमनं येषां ते=Brilliant when marching. ( अज्मन्) अज्मनि पथि = On the way.

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