ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 166/ मन्त्र 9
ऋषिः - मैत्रावरुणोऽगस्त्यः
देवता - मरुतः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
विश्वा॑नि भ॒द्रा म॑रुतो॒ रथे॑षु वो मिथ॒स्पृध्ये॑व तवि॒षाण्याहि॑ता। अंसे॒ष्वा व॒: प्रप॑थेषु खा॒दयोऽक्षो॑ वश्च॒क्रा स॒मया॒ वि वा॑वृते ॥
स्वर सहित पद पाठविश्वा॑नि । भ॒द्रा । म॒रु॒तः॒ । रथे॑षु । वः॒ । मि॒थ॒स्पृध्या॑ऽइव । त॒वि॒षाणि॑ । आऽहि॑ता । अंसे॑षु । आ । वः॒ । प्रऽप॑थेषु । खा॒दयः॑ । अक्षः॑ । वः॒ । च॒क्रा । स॒मया॑ । वि । व॒वृ॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वानि भद्रा मरुतो रथेषु वो मिथस्पृध्येव तविषाण्याहिता। अंसेष्वा व: प्रपथेषु खादयोऽक्षो वश्चक्रा समया वि वावृते ॥
स्वर रहित पद पाठविश्वानि। भद्रा। मरुतः। रथेषु। वः। मिथस्पृध्याऽइव। तविषाणि। आऽहिता। अंसेषु। आ। वः। प्रऽपथेषु। खादयः। अक्षः। वः। चक्रा। समया। वि। ववृते ॥ १.१६६.९
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 166; मन्त्र » 9
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मरुतो वो रथेषु विश्वानि भद्रा मिथस्पृध्येव तविषाण्याहिता सन्ति वोंऽसेषु च प्रपथेषु खादयः सन्ति वोऽक्षश्चक्रा समयाऽऽवि ववृते ॥ ९ ॥
पदार्थः
(विश्वानि) सर्वाणि (भद्रा) कल्याणकारकानि (मरुतः) वायुवद्बलिनः (रथेषु) रमणीयेषु यानेषु (वः) युष्माकम् (मिथस्पृध्येव) यथा परस्परं पृत्सु संग्रामेषु भवा सेना तद्वत् (तविषाणि) बलानि (आहिता) समन्ताद्धृतानि (अंसेषु) स्कन्धेषु भुजेषु (आ) (वः) युष्माकम् (प्रपथेषु) प्रकृष्टेषु सरलेषु मार्गेषु (खादयः) खाद्यानि भक्षविशेषाणि (अक्षः) रथ्यो भागः (वः) युष्माकम् (चक्रा) चक्राणि (समया) निकटे (वि) (ववृते) वर्त्तते। अत्र तुजादीनामिति अभ्यासदीर्घः ॥ ९ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। ये स्वयं बलिष्ठाः कल्याणाचाराः सुमार्गगामिनः परिपूर्णधनसेनादिसहिताः सन्ति तेंऽजसा शत्रून् विजेतुं शक्नुवन्ति ॥ ९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (मरुतः) पवनों के समान वली सज्जनो ! (वः) तुम्हारे (रथेषु) रमणीय यानों में (विश्वानि) समस्त (भद्रा) कल्याण करनेवाले (मिथस्पृध्येव) संग्रामों में जैसे परस्पर सेना है वैसे (तविषाणि) बल (आहिता) सब ओर से धरे हुए हैं (वः) तुम्हारे (अंसेषु) स्कन्धों में उक्त बल है तथा (प्रपथेषु) उत्तम सीधे मार्गों में (खादयः) खाने योग्य विशेष भक्ष्य भोज्य पदार्थ हैं (वः) तुम्हारे (अक्षः) रथ का अक्षभाग धुरी (चक्रा) पहियों के (समया) समीप (आ, वि, ववृते) विविध प्रकार से प्रत्यक्ष वर्त्तमान है ॥ ९ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो आप बलवान्, कल्याण के आचरण करनेवाले, सुमार्गगामी, परिपूर्ण धन सेनादि सहित हैं, वे प्रत्यक्ष शत्रुओं को जीत सकते हैं ॥ ९ ॥
विषय
राष्ट्र के सैनिक
पदार्थ
१. हे (मरुतः) = [म्रियन्ते, न पलायन्ते] राष्ट्ररक्षक सैनिको! (वः रथेषु) = तुम्हारे रथों पर (विश्वानि भद्रा) = सब कल्याणकर वस्तुएँ आहिता रखी हैं, सब आवश्यक युद्ध-सामग्री वहाँ विद्यमान है, सब आवश्यक आयुध उसमें रखे हैं। (मिथ:) = परस्पर स्पृध्या इव स्पर्धा से ही मानो (तविषाणि) = [आहिता] तुममें बलों का स्थापन हुआ है। एक-दूसरे के साथ बल के दृष्टिकोण से स्पर्धा करते हुए ये सैनिक अपने को खूब बलवान् बनाते हैं । २. (प्रपथेषु) = युद्ध-यात्राओं के प्रकृष्ट मार्गों में (वः) = तुम्हारे (अंसेषु) = कन्धों पर (खादयः) = [खाद्-to hurt] शत्रुनाशक अस्त्र हैं और (वः) = तुम्हारे (अक्षः) = रथ का धुरा [axle] चक्रा (समया) = चक्रों के समीप विवावृते विशिष्ट वर्तनवाला होता है, अर्थात् तुम्हारा रथ कभी शिथिल गतिवाला नहीं होता।
भावार्थ
भावार्थ – सैनिकों के रथ आयुध- सम्पन्न हैं। सैनिक परस्पर स्पर्धा से बलों को बढ़ानेवाले हैं। इनके कन्धों पर अस्त्र हैं। इनके रथ सदा गतिशील हैं ।
विषय
स्पर्द्धावान् सशस्त्र वीरों का वर्णन।
भावार्थ
हे ( मरुतः ) वीर और विद्वान् पुरुषो ! ( वः रथेषु ) तुम्हारे वेग से जाने वाले रथों में ( विश्वानि ) सब प्रकार के ( भद्रा ) सुखकारी पदार्थ और ( मिथ:-स्पृध्या ) परस्पर स्पर्धा से लड़ने वाली सेना और ( तविषाणि ) बल वाले, प्रबल हथियार ( आहिता ) रखे होने चाहियें । इसी प्रकार ( वः ) तुम्हारे ( अंसेषु ) कन्धों पर भी और ( प्रपथेषु ) उत्तम उत्तम मार्गों में ( खादयः ) खाने योग्य फल आदि उत्तम पदार्थ और उत्तम शस्त्रादि हों और (वः) तुम्हारे रथ का (अक्षः) धुरा ( चक्रा समया ) दोनों चक्रों के निकट ही ( वि वावृते ) विशेष रूप से घूमे । ( २ ) प्राणों और वायुओं के वेग से गमनों में उत्तम सुख, परस्पर चाहने योग्य बल, अंगों और गृहों में उत्तम बल व खाद्य पदार्थ हों । अक्ष = अध्यक्ष आत्मा ( वः ) प्राणों के भीतरी और बाह्य साधनों के द्वारा विविध चेष्टाओं को करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मैत्रावरुणोऽगस्त्य ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, २, ८ जगती । ३, ५, ६, १२, १३ निचृज्जगती । ४ विराट् जगती । ७, ९, १० भुरिक् त्रिष्टुप् । ११ विराट् त्रिष्टुप् । १४ त्रिष्टुप् । १५ पङ्क्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे स्वतः बलवान, कल्याणमय वर्तन करणारे, सुमार्गगामी, परिपूर्ण धन व सेना यांनी युक्त असतात, ते प्रत्यक्ष शत्रूंना जिंकू शकतात. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Maruts, heroic warriors like the winds, in your chariots are collected materials for universal good of the people, and on your shoulders and in the chariots are blazing weapons in position competing, as if, in effectiveness. In your paths are provided materials for food and advancement, and the axles and wheels of the chariots are well aligned and balanced for fast and rhythmic movement.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of the Maruts further developed.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The Maruts (soldiers) are mighty like the winds. All good things are in their cars, and their armies are strong. When they are on march, they are welcomed and entertained. Their axles of both the chariot wheels turn together.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those soldiers can easily and sturdy enemies who are men of benevolent and are of good character. Such people follow noble path of righteousness and possess good wealth and army.
Foot Notes
(मिथस्पृध्येव) यथा परस्परं पृत्सु संग्रामषु भवा सेना तद्वत् = Like an army in the battles ( मरुतः) वांयुवद् बलिनः = Mighty like the winds. ( श्वादय:) खाद्यानि भक्ष्य विशेषाणि = Nourishing eatables (तविषाणि ) बलानि = Strength.
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