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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 168 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 168/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - मरुतः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सा॒तिर्न वोऽम॑वती॒ स्व॑र्वती त्वे॒षा विपा॑का मरुत॒: पिपि॑ष्वती। भ॒द्रा वो॑ रा॒तिः पृ॑ण॒तो न दक्षि॑णा पृथु॒ज्रयी॑ असु॒र्ये॑व॒ जञ्ज॑ती ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सा॒तिः । न । वः॒ । अम॑ऽवती । स्वः॑ऽवती । त्वे॒षा । विऽपा॑का । म॒रु॒तः॒ । पिपि॑ष्वती । भ॒द्रा । वः॒ । रा॒तिः । पृ॒ण॒तः । न । दक्षि॑णा । पृ॒थु॒ऽज्रयी॑ । असु॒र्या॑ऽइव । जञ्ज॑ती ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सातिर्न वोऽमवती स्वर्वती त्वेषा विपाका मरुत: पिपिष्वती। भद्रा वो रातिः पृणतो न दक्षिणा पृथुज्रयी असुर्येव जञ्जती ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सातिः। न। वः। अमऽवती। स्वःऽवती। त्वेषा। विऽपाका। मरुतः। पिपिष्वती। भद्रा। वः। रातिः। पृणतः। न। दक्षिणा। पृथुऽज्रयी। असुर्याऽइव। जञ्जती ॥ १.१६८.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 168; मन्त्र » 7
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मरुतो वो या पिपिष्वत्यमवती स्वर्वती विपाका त्वेषा सातिर्नेवास्ति वो या पृणतो दक्षिणा नेव पृथुज्रय्यसुर्य्येव जञ्जती भद्रा रातिरस्ति तया सर्वान् वर्द्धय ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (सातिः) लोकानां विभक्तिः (न) इव (वः) युष्माकम् (अमवती) ज्ञानयुक्ता (स्वर्वती) विद्यमानसुखा (त्वेषा) प्रदीप्तिः (विपाका) विविधगुणैः परिपक्वा (मरुतः) विद्वांसः (पिपिष्वती) पिपींषि बहवोऽवयवा विद्यन्ते यस्याः सा (भद्रा) कल्याणकारिणी (वः) युष्माकम् (रातिः) दानम् (पृणतः) पालकस्य विद्यादिभिः प्रपूरकस्य वा (न) इव (दक्षिणा) दातुं योग्या (पृथुज्रयी) बहुवेगा (असुर्येव) असुषु प्राणेषु भवा विद्युदिव (जञ्जती) यथा युद्धे प्रवृत्ता सेना ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यैषां जीवानां पापपुण्यजन्या सुखदुःखफला गतिरस्ति तया सर्वे जीवा विचरन्ति। ये पुरुषार्थिनः सैन्याः शत्रूनिव पापानि विजित्य निवार्य धर्ममाचरन्ति ते सदैव सुखिनो भवन्ति ॥ ७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (मरुतः) विद्वानो ! (वः) तुम्हारी जो (पिपिष्वती) बहुत अङ्गोंवाली (अमवती) ज्ञानवती (स्वर्वती) जिसमें सुख विद्यमान (विपाका) विविध प्रकार के गुणों से परिपक्व (त्वेषा) उत्तम दीप्ति (सातिः) लोकों की विभक्ति अर्थात् विशेष भाग के (न) समान है और (वः) तुम्हारी जो (पृणतः) पालन करने वा विद्यादि गुणों से परिपूर्ण करनेवाले की (दक्षिणा) देने योग्य दक्षिणा के (न) समान (पृथुज्रयी) बहुत वेगवती (असुर्येव) प्राणों में होनेवाली बिजुली के समान वा (जञ्जती) युद्ध में प्रवृत्त झंझियाती हुई सेना के समान (भद्रा) कल्याण करनेवाली (रातिः) देनी है, उससे सबको बढ़ाओ ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो इन जीवों की पाप पुण्य से उत्पन्न हुई सुख दुःख फलवाली गति है, उससे समस्त जीव विचरते हैं। जो पुरुषार्थी जन सेना जन शत्रुओं को जैसे-वैसे पापों को जीत निवारि धर्म का आचरण करते हैं, वे सदैव सुखी होते हैं ॥ ७ ॥

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    विषय

    अमवती, जञ्जती

    पदार्थ

    १. हे (मरुतः) = प्राणो ! (वः सातिः) = आपकी प्राप्ति अर्थात् साधना द्वारा आपको अपनाना (न अमवती) = रोगोंवाला नहीं है, अर्थात् आपकी साधना से साधक नीरोग बनता है। आपकी यह प्राप्ति नीरोगता देने के कारण (स्वर्वती) = सब सुखों को देनेवाली है, (त्वेषा) = दीप्तिवाली है। प्राणसाधना से अशुद्धियों का क्षय होकर ज्ञान की दीप्ति होती ही है। (विपाका) = आपकी साधना ज्ञान के द्वारा हमारे जीवनों को परिपक्व करनेवाली है, (पिपिष्वती) = वासनाओं को यह पीस देनेवाली है। २. हे प्राणो ! (वः रातिः) = पूर्वार्द्ध में वर्णित आपकी देन 'नीरोगता, सुख, दीप्ति, परिपक्वता व वासनाविनाश' (भद्रा) = कल्याण करनेवाली हैं। वस्तुतः ये सब वस्तुएँ मिलकर ही कल्याण है। आपकी देन इस प्रकार कल्याण करनेवाली है (न) = जैसे (पृणत:) = दान देनेवाले का (दक्षिणा) = दान कल्याण करता है। दान लोभवृत्ति को नष्ट करके वासनाओं का उन्मूलन करता है, इस प्रकार यह प्राणसाधना वासनाओं का पेषण करती है। ३. यह प्राणसाधना पृथुज्रयी खूब वेगवाली है। नीरोगता लाकर हमारे जीवनों में स्फूर्ति देनेवाली है। (असुर्या इव) = उस महान् असुर- प्राणशक्ति के दाता प्रभु की प्राप्ति के लिए साधनभूत है, तथा (जञ्जती) = हमारे सब शत्रुओं का अभिभव करनेवाली है। प्राणसाधना से हमारा प्रभु से मेल होता है और हमारे सब शत्रुओं का विनाश होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना हमें सर्वथा नीरोग बनाती है व हमारे जीवनों का ठीक परिपाक करके हमें प्रभु से मिलाती है।

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    विषय

    वीरों की प्रबल शक्ति के लक्षण ।

    भावार्थ

    ( १ ) वायुओं का ( सातिः न अमवती स्वर्वती ) जलादि का विभाग और सेवन रोगकारी न होकर सुख देने वाला है । वह वायुओं का विभाग ( त्वेषा विपाका, पिपिष्वती ) वेगवान्, विविध फलों को पकाने वाला, मेघ के जलों को छिन्न भिन्न कर पीसने वाला होता है । वायुगणों का ( रातिः ) दान ( भद्रा ) सुखजनक, ( पृथुज्रयी ) बहु वेग युक्त ( असुर्या ) मेघ लाने वाला, ( जञ्जती ) बलात् सबको दबाने वाला, होती है । ( २ ) इसी प्रकार हे ( मरुतः ) विद्वान् जनो ! वीर पुरुषो ! ( वः ) आप लोगों का किया हुआ विभाग भी ( सातिः ) ( अमवती न ) अन्यों को कष्ट देने वाला न हो, प्रत्युत (स्वर्वती) सुख देने वाला हो । अथवा ( अमवती न स्वर्वती ) गृहों से युक्त गृह व्यवस्था या सहायकों से युक्त राज व्यवस्था या ज्ञान से युक्त विद्या के समान ( स्वर्वती ) सुख देने वाला हो । आप लोगों की ( त्वेषा ) दीप्ति, चमक, ज्ञान और प्रताप सूर्य की दीप्ति के समान ( विपाका ) फलों के समान, भोजनों को अग्निताप के समान, नाना प्रकार के उत्तम परिणामों को परिपक्व करने वाली, उत्तम फल वाली हो । और वह ( पिपिष्वती ) आप लोगों की ( सातिः ) सेनाओं की विभक्ति अर्थात् विविध भागों में विभक्त होना भी ( पिपिष्वती ) बहुत अवयवों वाली होकर भी ( पिपिस्वती ) दानों को चक्की के पाटों के समान शत्रु का प्रत्येक अंग पीस २ डालने वाली हो । और ( वः ) आप लोगों को ( रातिः ) दिया दान ( पृणतः ) पालन करने वाले यजमान स्वामी की दी ( दक्षिणा न ) दक्षिणा या काम करने के एवज में दिये वेतन के समान कार्य क्षमता को बढ़ाने वाला हो। और वह (पृथुज्रयी) बड़े बड़े लोगों में भी वेग या शक्ति पैदा कर देने वाला, (असुर्या इव) प्राणों की शक्ति के समान या मेघों के बीच उत्पन्न विद्युत् के समान या बलवान् पुरुषों की सेना के समान ( जञ्जती ) सबको अपने अधीन करने वाला (भद्रा) और कल्याणकारी सुखदायक हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, ४, निचृज्जगती । २,५ विराट् त्रिष्टुप् । ३ स्वराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, भुरिक् त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप् । ९ निचृत् त्रिष्टुप् । १० पङ्क्तिः ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. या जिवाच्या पाप-पुण्याने झालेली सुख-दुःख फल देणारी जी गती आहे त्यामुळेच संपर्ण जीव विचरण करतात. जे पुरुषार्थी सेनेद्वारे शत्रूंचा निःपात करतात, त्यांचे पाप नाहीसे करतात व धर्माचे आचरण करतात ते सदैव सुखी होतात. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Like your acquisition and distribution is your generosity and benevolence, powerful, blissful, lustrous, maturing and fruitful, abundant, auspicious, as the gift of a philanthropist yajamana, expansive and victorious like the breeze of life’s energy.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of p:ous persons.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned and brave persons ! you benefit all by your beneficial and liberal donation. It is full of knowledge and gives delight. In the present case, the merited mature brilliant fruitful, divided into several parts like the division of labor among workers. It is like the donation of sacrificial gift ( dakshina) from a wealthy and learned donor who fills all with knowledge and other virtues. It is a gigantic work, an army, like engaged in fighting in a battle with full force.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    All the persons get wealth in accordance with their meritorious and sinful acts. It ultimately results in happiness and misery. The industrious persons always enjoy happiness when they cast aside all sins like the brave soldiers annihilating their wicked enemies and become engaged in doing the righteous deeds.

    Foot Notes

    (साति:) लोकानां विभक्तिः = Division of labor among men. (अमवती) ज्ञानयुक्ता = Full of knowledge (deliberate). (पिपिष्वती) पिषींषि बहवः अवयवा विद्यन्ते यस्याः सा = Having several parts, divisions or departments. (असुर्या) असुषु प्राणेषु भवा विद्युत् इव = Like electricity force in the Pranas or vital breaths. ( जञ्जती ) यथा युद्धे प्रवृत्ता सेना = As an army engaged in a battle.

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