ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 168/ मन्त्र 8
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - मरुतः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्रति॑ ष्टोभन्ति॒ सिन्ध॑वः प॒विभ्यो॒ यद॒भ्रियां॒ वाच॑मुदी॒रय॑न्ति। अव॑ स्मयन्त वि॒द्युत॑: पृथि॒व्यां यदी॑ घृ॒तं म॒रुत॑: प्रुष्णु॒वन्ति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्रति॑ । स्तो॒भ॒न्ति॒ । सिन्ध॑वः । प॒विऽभ्यः॑ । यत् । अ॒भ्रिया॑म् । वाच॑म् । उत्ऽई॒रय॑न्ति । अव॑ । स्म॒य॒न्त॒ । वि॒ऽद्युतः॑ । पृ॒थि॒व्याम् । यदि॑ । घृ॒तम् । म॒रुतः॑ । प्रु॒ष्णु॒वन्ति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रति ष्टोभन्ति सिन्धवः पविभ्यो यदभ्रियां वाचमुदीरयन्ति। अव स्मयन्त विद्युत: पृथिव्यां यदी घृतं मरुत: प्रुष्णुवन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठप्रति। स्तोभन्ति। सिन्धवः। पविऽभ्यः। यत्। अभ्रियाम्। वाचम्। उत्ऽईरयन्ति। अव। स्मयन्त। विऽद्युतः। पृथिव्याम्। यदि। घृतम्। मरुतः। प्रुष्णुवन्ति ॥ १.१६८.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 168; मन्त्र » 8
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे विद्वांसो यद्यदा मरुतोऽभ्रियां वाचमुदीरयन्ति तदा सिन्धवः पविभ्यः प्रतिष्टोभन्ति यदि च मरुतो घृतं प्रुष्णुवन्ति तदा विद्युतः पृथिव्यामवस्मयन्त तद्वद्यूयं भवत ॥ ८ ॥
पदार्थः
(प्रति) (स्तोभन्ति) स्तभ्नन्ति। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (सिन्धवः) नद्यः (पविभ्यः) वज्रवत् किरणेभ्यः (यत्) यदा (अभ्रियाम्) अभ्रेषु भवां गर्जनाम् (वाचम्) वाणीम् (उदीरयन्ति) प्रेरते (अव) (स्मयन्त) ईषद्धसन्ति (विद्युतः) तडितः (पृथिव्याम्) भूमौ (यदि) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (घृतम्) उदकम् (मरुतः) (प्रुष्णुवन्ति) स्नेहयन्ति ॥ ८ ॥
भावार्थः
ये मनुष्या नदीवदार्द्रा तडिद्वत्तीव्रा विद्यां पठित्वाऽध्यापयन्ति ते सूर्यवत् सत्याऽसत्यप्रकाशका जायन्ते ॥ ८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे विद्वानो ! (यत्) जब (मरुतः) पवन (अभ्रियाम्) मेघों में हुई गर्जनारूप (वाचम्) वाणी को (उदीरयन्ति) प्रेरणा देते अर्थात् बद्दलों को गर्जाते हैं तब (सिन्धवः) नदियाँ (पविभ्यः) वज्र तुल्य किरणों से अर्थात् बिजुली की लपट-झपटों से (प्रति, ष्टोभन्ति) क्षोभित होती हैं और (यदि) जब पवन (घृतम्) मेघों के जल (प्रुष्णुवन्ति) वर्षाते हैं तब (विद्युतः) बिजुलियाँ (पृथिव्याम्) भूमि पर (अव, स्मयन्त) मुसुकियाती सी जान पड़ती हैं वैसे तुम होओ ॥ ८ ॥
भावार्थ
जो मनुष्य नदी के समान आर्द्रचित्त बिजुली के समान तीव्र स्वभाववाले विद्या को पढ़कर पढ़ाते हैं, वे सूर्य के समान सत्य और असत्य को प्रकाश करनेवाले होते हैं ॥ ८ ॥
विषय
मानस जप व वासना विनाश
पदार्थ
१. (यदि) = यदि (मरुतः) = प्राण, प्राणसाधना के होने पर (घृतम्) = हमारे जीवनों में मलों के क्षरण को तथा ज्ञानदीप्ति को (प्रष्णुवन्ति) = सींचते हैं, अर्थात् हमें स्वस्थ व दीप्त मस्तिष्क बनाते हैं तो (सिन्धवः) = [स्यन्दते] नदियों की भाँति कर्म-प्रवाह में चलनेवाले व्यक्ति (पविभ्य:) = [पवि=speech] ज्ञानवाणियों के द्वारा (प्रतिष्टोभन्ति) = वासनाओं को रोकनेवाले बनते हैं। स्वाध्याय के द्वारा ज्ञान को बढ़ाते हुए ये व्यक्ति वासनाओं से ऊपर उठते हैं । २. वासनाओं से ये इसलिए भी ऊपर उठ पाते हैं (यत्) = क्योंकि ये लोग (अभ्रियां वाचम्) = हृदयान्तरिक्ष में होनेवाली-नामजपन की वाणी को (उदीरयन्ति) = उच्चरित करते हैं। इस मानस जप का यह भी परिणाम होता है कि इनके हृदय में अशुद्ध भाव उत्पन्न ही नहीं होते। ३. इस प्रकार वासनाओं का विनाश होने पर (पृथिव्याम्) = इनके शरीर में (विद्युतः) = विशिष्ट दीप्तियाँ (अवस्मयन्त) = मुस्करा उठती हैं, विकसित हो जाती हैं। इनका अन्नमयकोश तेज से, प्राणमयकोश वीर्य से, मनोमयकोश ओज व बल से, विज्ञानमयकोश मन्यु से तथा आनन्दमयकोश सहस् से परिपूर्ण हो उठता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से मनोनिरोध होकर एकाग्र मन से मानस जप होने पर सब व्यसनों का विनाश होकर शक्तियों का विकास होता है।
विषय
वीरों की प्रबल शक्ति के लक्षण ।
भावार्थ
( यत् ) जब वायुगण ( अभ्रियां वाचम् ) मेघ से उत्पन्न वाणी अर्थात् गर्जना को ( उत् ईरयन्ति ) उत्पन्न करते हैं तब ( सिन्धवः ) जल धाराएं या वेगवान् जल धारा बहाने वाले मेघ ( पविभ्यः ) विद्युत् के आघातों से ( प्रति स्तोभन्ति ) बराबर विक्षुब्ध होते हैं और ( यद् मरुतः ईम् ) जब वायु गण सब तरफ ( प्रुष्णुवन्ति ) वर्षा करते हैं तब मानो ( पृथिव्याम् ) पृथिवी पर ( विद्युतः ) बिजुलियां ( अव स्मयन्त ) मानो नीचे को मुंह किये इषद् हास करतीं, मुस्कुराती हैं । इसी प्रकार विद्वान् लोग ! जब भी ( अभ्रियाम् ) मेघ के समान ज्ञान धाराओं के देने वाले निष्पक्षपात, प्रजापति पद पर स्थित होकर (पविभ्यः) परम पवित्र करने वाले ईश्वरोपासना तथा पवित्र कार्यों के लिये ( वाचम् उत् ईयन्ति ) वेद वाणी का उच्चारण करते हैं, तब वे (सिन्धवः) बहुत नदियों या बरसते मेघों या गर्जते समुद्रों के समान वे विद्वान् जन ( प्रति स्तोभन्ति ) ‘स्तोभ’ नामक सामगानोपयोगी ध्वनि को उत्पन्न करते हैं। और जब ( मरुतः ) ऋत्विग्जन ( पृथिव्यां ) पृथिवी पर (ईम्) इस अग्नि को ( घृतं ) घृत धारा (प्रुष्णुवन्ति) डालते हैं तब ( विद्युतः ) विशेष कान्तियुक्त अग्नि ज्वालाएं (अव स्मयन्त) प्रत्यक्ष रूप से मुस्कुराती हैं, चमक उठती हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, ४, निचृज्जगती । २,५ विराट् त्रिष्टुप् । ३ स्वराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, भुरिक् त्रिष्टुप् । ८ त्रिष्टुप् । ९ निचृत् त्रिष्टुप् । १० पङ्क्तिः ।
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे नदीप्रमाणे आर्द्र, विद्युतप्रमाणे तीव्र असतात व विद्येचे अध्ययन, अध्यापन करतात ती सूर्याप्रमाणे सत्य-असत्याचा प्रकाश करणारी असतात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
When the Maruts ride their chariots, the wheels rumble with thunder of the clouds and oceans pant and roll in awe, and when they shower torrents or rain on the earth, flashes of lightning flaunt with pride and lights of joy.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
In the praise of learned persons.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
When the winds carry the voice of the clouds, on account of the rains caused by the rays of the sun, the rivers are flooded. When the winds sprinkle water on earth, the lightnings smile in the firmament. You should O learned persons be like the winds, the lightnings and the rays of the sun.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those men who are of loving and kind nature like the rivers, are brilliant like the lightning, and teach after acquiring the knowledge of various sciences, become like the sun-the illuminators of truth.
Foot Notes
(पविभ्यः) वज्रवत् किरणेभ्यः – By the rays of the sun which are like the thunder bolt. (घृतम्) उदकम् = Water.
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