ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 169/ मन्त्र 8
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्वं माने॑भ्य इन्द्र वि॒श्वज॑न्या॒ रदा॑ म॒रुद्भि॑: शु॒रुधो॒ गोअ॑ग्राः। स्तवा॑नेभिः स्तवसे देव दे॒वैर्वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । माने॑भ्यः । इ॒न्द्र॒ । वि॒श्वऽज॑न्या । रद॑ । म॒रुत्ऽभिः॑ । शु॒रुधः॑ । गोऽअ॑ग्राः । स्तवा॑नेभिः । स्त॒व॒से॒ । दे॒व॒ । दे॒वैः । वि॒द्याम॑ । इ॒षम् । वृ॒जन॑म् । जी॒रऽदा॑नुम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं मानेभ्य इन्द्र विश्वजन्या रदा मरुद्भि: शुरुधो गोअग्राः। स्तवानेभिः स्तवसे देव देवैर्विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। मानेभ्यः। इन्द्र। विश्वऽजन्या। रद। मरुत्ऽभिः। शुरुधः। गोऽअग्राः। स्तवानेभिः। स्तवसे। देव। देवैः। विद्याम। इषम्। वृजनम्। जीरऽदानुम् ॥ १.१६९.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 169; मन्त्र » 8
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे देवेन्द्र यथा वयं मानेभ्यस्स्तवसे स्तवानेभिर्मरुद्भिर्देवैर्विश्वजन्या शुरुधो गोअग्रा अप इषं वृजनं जीरदानुं च विद्याम तथैता एतच्च त्वं रद ॥ ८ ॥
पदार्थः
(त्वम्) (मानेभ्यः) सत्कारेभ्यः (इन्द्र) सभेश (विश्वजन्या) या विश्वं जनयन्ति ताः। अत्र भव्यगेयेति कर्त्तरि जन्यशब्दः सुपां सुलुगिति जसस्स्थाने आकारादेशः। (रद) विलिख। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (मरुद्भिः) मरुद्विद्याविद्भिः (शुरुधः) ये शुरून् हिंसकान् सूर्यकिरणान् दधति धरन्ति ते (गोअग्राः) गावः सूर्यकिरणा अग्रे यासान्ताः (स्तवानेभिः) सर्वविद्यास्तावकैः (स्तवसे) स्तुतये (देव) विद्वन् (देवैः) विद्वद्भिः (विद्याम) जानीयाम (इषम्) अन्नम् (वृजनम्) बलम् (जीरदानुम्) जीवस्वरूपम् ॥ ८ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्विदुषां सत्कारेण विद्या अधीत्य पदार्थविद्याविज्ञानं प्राप्तव्यम् ॥ ८ ॥अस्मिन् सूक्ते विद्वदादिगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेदितव्या ॥इत्येकोनषष्ट्युत्तरं शततमं सूक्तं नवमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (देव) विद्वान् (इन्द्र) सभापति ! जैसे हम लोग (मानेभ्यः) सत्कारों से (स्तवसे) स्तुति के लिये (स्तवानेभिः) समस्त विद्याओं की स्तुति प्रशंसा करनेवाले (मरुद्भिः) पवनों की विद्या जाननेवाले (देवैः) विद्वानों से (विश्वजन्या) विश्व को उत्पन्न करने और (शुरुधः) निज हिंसक किरणों के धारण करनेवाले (गो अग्राः) जिनके सूर्य किरण आगे विद्यमान उन जल और (इषम्) अन्न (वृजनम्) बल और (जीरदानुम्) जीवनस्वरूप को (विद्याम) जानें वैसे इन जल और अन्नादि को (त्वम्) आप (रद) प्रत्यक्ष जानो अर्थात् उनका नाम धामरूप सब प्रकार जानो ॥ ८ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को योग्य है कि विद्वानों के सत्कार से विद्याओं को अध्ययन कर पदार्थविद्या के विज्ञान को प्राप्त होवें ॥ ८ ॥इस सूक्त में विद्वान् आदि के गुणों का वर्णन होने से इसके अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह एकसौ उनहत्तरवाँ सूक्त और नवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
कैसी सम्पत्तियाँ
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! आप (मानेभ्यः) = पूजा करनेवालों के लिए-उपासकों के लिए (मरुद्भिः) = इन प्राणों के द्वारा (विश्वजन्याः) = सर्वलोकहितकारी अथवा सब शक्तियों के विकास के लिए उत्तम (शुरुधः) = शोक को रोकनेवाली, दुःखों को दूर करनेवाली गो (अग्राः) = ज्ञानवाणियों के प्रमुख स्थानवाली-ज्ञान प्राप्ति के साधनों को जुटाने में लगनेवाली सम्पत्तियों को (रदा) = लिखते हैं, अर्थात् प्राप्त कराते हैं । २. इन सम्पत्तियों को प्राप्त करके ये देव आपका स्तवन करते हैं। आपके स्तवन के अभाव में इन सम्पत्तियों की ही विपत्तियाँ बन जाने की आशंका होती है। ये सम्पत्तियाँ विश्वजन्य नहीं रहतीं, भोगविलास का साधनमात्र रह जाती हैं, ये शोकवर्धक होती हैं और मनुष्य को ज्ञान से दूर ले जाती हैं। इसलिए (देव) = दिव्यगुणों के पुञ्ज प्रभो! आप (स्तवानेभिः) = द्युतिशील (देवैः) = इन देववृत्ति के पुरुषों से (स्तवसे) = स्तुति किये जाते हैं। इस प्रकार स्तुति से (आराधित) = आपसे हम (इषम्) = प्रेरणा को (वृजनम्) = पाप के वर्जन को व (जीरदानुम्) = दीर्घजीवन को प्राप्त करें ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु की पूजा करें। प्रभु हमें वे सम्पत्तियाँ दें जोकि सर्वलोकहितकारीहमारी सब शक्तियों का विकास करनेवाली, शोक को दूर करनेवाली व ज्ञान का उपकरण बननेवाली हों ।
विषय
वायु, सूर्यवत् विद्वानों का संशयच्छेदन ।
भावार्थ
सूर्य या विद्युत् जिस प्रकार ( शु-रुधः ) अन्धकार के नाशक किरणों को धारने वाली, (गो-अग्राः) किरणों को अपने अग्र भागों पर रखने वाली (विश्वजन्या) सबके हितार्थ अन्नादि के पैदा करने वाली मेघमालाओं को (मरुद्भिः) वायुओं द्वारा छिन्न भिन्न करता है और सब को उनका सुख प्रदान करता है । उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! आचार्य ! विद्वन् ! तू ( विश्वजन्या ) समस्त ज्ञानों को उत्पन्न करने वाली ( शुरुधः ) शीघ्र ही दुःखों को रोकने और अज्ञान का नाश करने वाली ( गो-अग्राः ) श्रेष्ठ वाणियों को ( मानेभ्यः ) अपना मान करने वाले, ज्ञान करने वाले, उत्तम शिष्यों के लिये ( रद ) खोल २ कर रख । हे ( देव ) ब्रह्म दान के दातः ! तू ( मरुद्भिः ) प्राणों के समान प्रिय ( स्तवानैः ) स्तुतिशील, ( देवैः ) विद्या की कामना करने वाले शिष्य जनों से इस प्रकार ( स्तवसे ) प्रार्थना किया जाता है कि हम ( इषं ) सन्मार्ग में उत्तम प्रेरणा, ( वृजनं ) पापों का निवारक बल और ( जीर-दानुम् ) जीवन देने वाला अमृत ( विद्याम ) प्राप्त करें । इति नवमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ३, भुरिक् पङ्क्तिः । २ पङ्क्तिः । ५, ६ स्वराट् पङक्तिः । ४ ब्राह्मयुष्णिक्। ७, ८ निचृत् त्रिष्टुप् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी विद्वानांचा सत्कार करून विद्याध्ययन व पदार्थ विद्येचे विज्ञान प्राप्त करावे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of light and power, adored by admirers of brilliance and generosity, for the sake of honour and prestige and in honour of the venerables, split and know the sun-light headed powers of nature such as waters and herbs with the help of the Maruts, catalytic, analytical and universally creative energy waves of nature, and let us know and acquire wealth of food, energy, onward progress and the breath and freshness of life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The men should acquire physical disciplines.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O INDRA (President of the Assembly) ! associated with the Maruts (aeronautical scientists) who admire all sciences for glorifying you, may we know the nature of the waters. It gives happiness and is useful to all. It has the rays of the sun destroying the germs of diseases and food. Such bright persons are the leaders, and they transform the nature of the soul. You should also note down all this for the guidance of the people.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should acquire the knowledge of all sciences by honoring the learned who are experts.
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