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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 170 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 170/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    किं नो॑ भ्रातरगस्त्य॒ सखा॒ सन्नति॑ मन्यसे। वि॒द्मा हि ते॒ यथा॒ मनो॒ऽस्मभ्य॒मिन्न दि॑त्ससि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    किम् । न॒ । भ्रा॒तः॒ । अ॒ग॒स्त्य॒ । सखा॑ । सन् । अति॑ । म॒न्य॒से॒ । वि॒द्म । हि । ते॒ । यथा॑ । मनः॑ । अ॒स्मभ्य॑म् । इत् । न । दि॒त्स॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    किं नो भ्रातरगस्त्य सखा सन्नति मन्यसे। विद्मा हि ते यथा मनोऽस्मभ्यमिन्न दित्ससि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    किम्। न। भ्रातः। अगस्त्य। सखा। सन्। अति। मन्यसे। विद्म। हि। ते। यथा। मनः। अस्मभ्यम्। इत्। न। दित्ससि ॥ १.१७०.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 170; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे अगस्त्य भ्रातः विद्वन् सखा संस्त्वं नः किमति मन्यसे ? यथा ते मनोऽस्मभ्यं हि न दित्ससि तथेत्त्वा वयं विद्म ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (किम्) प्रश्ने (नः) अस्मान् (भ्रातः) बन्धो (अगस्त्य) अगस्तौ विज्ञाने साधो (सखा) मित्रम् (सन्) (अति) (मन्यसे) (विद्म) जानीयाम। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (हि) किल (ते) तव (यथा) (मनः) अन्तःकरणम् (अस्मभ्यम्) (इत्) एव (न) (दित्ससि) दातुमिच्छसि ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये येषां सखायस्ते मनःकर्मवाग्भिस्तेषां प्रियमाचरेयुर्यावज्ज्ञानं स्वस्य भवेत्तावन्मित्राय समर्पयेत् ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अगस्त्य) विज्ञान में उत्तमता रखनेवाले (भ्रातः) भाई विद्वान् (सखा) मित्र (सन्) होते हुए आप (नः) हम लोगों को (किम्) क्या (अति, मन्यसे) अतिमान करते हो ? अर्थात् हमारे मान को छोड़कर वर्त्तते हो ? (यथा) जैसे (ते) तुम्हारा अपना (मनः) अन्तःकरण (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (हि) ही (न)(दित्ससि) देना चाहते हो अर्थात् हमारे लिये अपने अन्तःकरण को उत्साहित क्या नहीं किया चाहते हो ? वैसे (इत्) ही तुमको हम लोग (विद्म) जानें ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो जिनके मित्र हों वे मन, वचन और कर्म से उनकी प्रसन्नता का काम करें और जितना विद्या, ज्ञान अपने को हो उतना मित्र के समर्पण करे ॥ ३ ॥

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    विषय

    अतिमान से दूर होना

    पदार्थ

    १. (अगस्त्य) = जीव ने गत मन्त्र में इन्द्र से कहा था कि हम भी तो आपके भाई मरुत् हैं । इस पर इन्द्र कहता है कि हे (अगस्त्य) = कुटिलगति को छोड़नेवाले जीव ! (नः भ्रातः) = हमारे भाई ! (सखा सन्) = हमारे मित्र होते हुए तुम (किम्) = क्यों (अति मन्यसे) = अतिमान करते हो हमारा ध्यान न करके अन्य ही बातों में उलझे रहते हो। २. हमने (ते मनः यथा) = तेरा मन जिस प्रकार का है उसे (हि) = निश्चय से (विद्म) = समझ लिया है। तू (इत्) = निश्चय से (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए इस मन को (न दित्ससि) = नहीं देना चाहता। कुछ देर तो तुझे अन्य बातों से हटकर मनोयोग से हमारे साथ भी बात करनी ही चाहिए। अपने सखा की एकदम उपेक्षा करना भी क्या ठीक है ?

    भावार्थ

    भावार्थ- मनुष्य को प्रभु-स्मरण अवश्य करना चाहिए। प्रभु से दूर होते ही अतिमान हमें आ घेरता है।

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    विषय

    पोषक नायक का प्रजा के प्रति कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (भ्रातः) सबके भरण पोषण करनेहारे ! हे (अगस्त्य) वृक्षादि स्थावर पदार्थों को भी वेग से उखाड़ फेंकने में समर्थ, वायु के समान बलशालिन् ! और उच्छेद्य अन्धकार को दूर हटाने वाले ज्ञान प्रकाश में उत्तम ! सूर्य के समान तेजस्विन् ! तू (नः) हमारा ( सखा ) मित्र ( सन् ) होकर हमारे समान ख्याति, नाम, कीर्त्तिवाला होकर ( नः अतिमन्यसे ) हम से अधिक अपने को मानता और हमें तिरस्कार करता है ( यथा ) जिस प्रकार ( ते मनः ) तेरा चित्त है, तेरा मनन सामर्थ्य है ( विद्महि ) हम भी उसे प्राप्त करें, जानें तू क्या ( अस्मभ्यम् इत ) हमें ही या हमें भी ( न दित्ससि ) नहीं देना चाहता ? क्यों नहीं ? देता ही है। प्राणगण आत्मा को कह रहे हैं वह सबका भरण पोषणकारी होने से भ्राता है । द्रष्ट्रा, श्रोता, मन्ता आदि समान नामों से कहलाने योग्य होने से ‘सखा’ है। उसके पास ‘मनः’ मनन सामर्थ्य, ज्ञान सामर्थ्य है। वह अपनी ज्ञान शक्ति ही इन्द्रियों को प्रदान करता है, उसी प्रकार अगस्त्य ज्ञानी पुरुष शिष्यों का सुहृत् है वह उनका अपमान न कर प्रत्युत अपना ज्ञान अन्यों को देना चाहता है। राजा ऐश्वर्य से सबका पोषक है वह प्रजा का अपमान न करके अपना चित्त उनके प्रति दे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ स्वराडनुष्टुप् । २ अनुष्टुप । ३ विराडनुष्टुप । ४ निचृदनुष्टुप् । ५ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे ज्याचे मित्र असतील त्यांनी मन, वचन व कर्माने त्यांच्या प्रसन्नतेसाठी काम करावे व जितकी विद्या व ज्ञान आपल्याजवळ असेल तितके मित्राला द्यावे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Brother Agastya, pioneer of vision, insight and foresight, you are our friend. Being a friend, why do you disdain us? Don’t you want to give us the secret of knowing your mind as it is?

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of a real friend.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O my brother Agastya (well-versed in several sciences) ! you are our friend. Why then do you treat us with indifference? We are anxious to know, what debars us to seek your favor?

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The friends always do good, whatever is good and pleasant to their friends. They know their mind, words and deeds. Whatever knowledge we possess, we should give it to our friends. You are the greatest friend.

    Foot Notes

    (अगस्त्य) अगस्तौ विज्ञाने साधो =Good or well versed in the knowledge of various sciences.

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