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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 174 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 174/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    दनो॒ विश॑ इन्द्र मृ॒ध्रवा॑चः स॒प्त यत्पुर॒: शर्म॒ शार॑दी॒र्दर्त्। ऋ॒णोर॒पो अ॑नव॒द्यार्णा॒ यूने॑ वृ॒त्रं पु॑रु॒कुत्सा॑य रन्धीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दनः॑ । विशः॑ । इ॒न्द्र॒ । मृ॒ध्रऽवा॑चः । स॒प्त । यत् । पुरः॑ । शर्म॑ । शार॑दीः । दर्त् । ऋ॒णोः । अ॒पः । अ॒न॒व॒द्य॒ । अर्णाः॑ । यूने॑ । वृ॒त्रम् । पु॒रु॒ऽकुत्सा॑य । र॒न्धीः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दनो विश इन्द्र मृध्रवाचः सप्त यत्पुर: शर्म शारदीर्दर्त्। ऋणोरपो अनवद्यार्णा यूने वृत्रं पुरुकुत्साय रन्धीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दनः। विशः। इन्द्र। मृध्रऽवाचः। सप्त। यत्। पुरः। शर्म। शारदीः। दर्त्। ऋणोः। अपः। अनवद्य। अर्णाः। यूने। वृत्रम्। पुरुऽकुत्साय। रन्धीः ॥ १.१७४.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 174; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयं सूर्यदृष्टान्तेनाह ।

    अन्वयः

    हे इन्द्र यद्यस्त्वं सप्तशारदीः पुरः शर्म च दर्त् मृध्रवाचो विशो दनः। स हे अनवद्य यथा सूर्यः पुरुकुत्साय यूने वृत्रं प्राप्यार्णा अपो वर्षयति तथा त्वमृणो रन्धीश्च ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (दनः) अनदः। अत्राद्यन्तवर्णविपर्ययोऽडभावश्च। (विशः) प्रजाः (इन्द्र) विद्युदग्निरिव वर्त्तमान (मृध्रवाचः) मृध्राः प्रवृद्धा वाणीः (सप्त) सप्तछन्दोन्विता (यत्) (पुरः) शत्रुनगर्यः (शर्म) गृहम् (शारदीः) शरदृतुसम्बन्धिनीः (दर्त्) विदारितवान्भवति। अत्र विकरणाभावः। (ऋणोः) प्राप्नुयाः (अपः) जलानि (अनवद्य) प्रशंसित (अर्णाः) नदी सम्बन्धिनीः। अर्ण इति नदी ना०। निघं० १। १३। (यूने) (वृत्रम्) मेघम् (पुरुकुत्साय) पुरवो बहवः कुत्सा वज्राः किरणा यस्मिन् (रन्धीः) संराध्नुहि। अत्राडभावः ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। राज्ञा शत्रुपुराणि वीरस्थानादि च विनाश्य ते निवारणीयाः सूर्यो जलेन यथा जगद्रक्षति तथा राज्ञा प्रजा रक्षणीयाः ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को सूर्य के दृष्टान्त से कहते हैं ।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) विद्युत् अग्नि के समान वर्त्तमान ! (यत्) जो आप (सप्त) सात (शारदीः) शरद् ऋतु सम्बन्धिनी (पुरः) शत्रुओं की नगरी और (शर्म) शत्रु घर को (दर्त्) विदारनेवाले होते हैं (मृध्रवाचः) अति बढ़ी हुई जिनकी वाणी उन (विशः) प्रजाओं को (दनः) शिक्षा देते राज्य के अनुकूल शासन देते हैं सो हे (अनवद्य) प्रशंसा को प्राप्त राजन् ! जैसे सूर्यमण्डल (पुरुकुत्साय) बहुत वज्ररूपी अपनी किरणें जिसमें वर्त्तमान उस (यूने) तरुण प्रबलतर वा सुख-दुख से मिलते न मिलते हुए संसार के लिये (वृत्रम्) मेघ को प्राप्त कराके (अर्णाः) नदी सम्बन्धी (अपः) जलों को वर्षाता वैसे आप (ऋणोः) प्राप्त होओ (रन्धीः) अच्छे प्रकार कार्य सिद्धि करनेवाले होओ ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। राजा को चाहिये कि शत्रुओं के पुर नगर, शरद् आदि ऋतुओं में सुख देनेवाले स्थान आदि वस्तु नष्ट कर शत्रुजन निवारणे चाहियें और सूर्य मेघजल से जैसे जगत् की रक्षा करता है, वैसे राजा को प्रजा की रक्षा करनी चाहिये ॥ २ ॥

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    विषय

    कटुभाषण का त्याग

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = विश्व के शासक प्रभो ! [इन्द्रो विश्वस्य राजति], आप (मृध्रवाचः) = [मृध् = to hurt, to kill] हिंसक [murderous] वाणीवाली (विशः) = प्रजाओं का (दनः) = [अदमयः] दमन करते हैं। (यत्) = क्योंकि यह कटुभाषी (सप्त) = सातों (शारदी:) = [शारदम् = corn, grain] अन्न से परिपोषित (पुरः) = नगरियों को तथा (शर्म) = सब सुख को (दर्त्) = विदीर्ण कर देता है। यह अन्नमयकोश त्वचा के सात आवरणोंवाला है, इसी से यहाँ इसे 'सप्तपुरः' इन शब्दों से स्मरण किया है। ये अन्न का विकार हैं, अतः इन्हें 'शारदी' कहा है। कटु शब्द सातों त्वचाओं का भेदन करके मर्मपीड़ा कर देता है। कटु शब्दों से सब सुख विनष्ट हो जाता है, अतः कटुभाषी व्यक्ति को दमन आवश्यक है। २. हे (अनवद्य) = सब अवद्यों-निन्दनीय तत्त्वों से रहित प्रभो! आप (अपः ऋणोः) = कर्मों को प्राप्त कराते हैं तथा (अर्णाः) = सब गतियों के कारणभूत रेतः कणों [जलों] को प्राप्त कराते हैं [आपः रेतः] । इन कर्मों व शक्तियों को प्राप्त कराके आप उन लोगों के स्वभाव में परिवर्तन करते हैं और वे कटुभाषण से दूर हो जाते हैं । ३. (यूने) = [यु मिश्रणामिश्रणयोः] बुराइयों का अमिश्रण व अच्छाइयों का मिश्रण करनेवाले (पुरु कुत्साय) = शत्रुओं का खूब ही हिंसन करनेवाले के लिए आप (वृत्रम्) = वासना को (रन्धी:) = विदीर्ण करते हैं। वासना के विनष्ट होने पर कटुभाषण का प्रसङ्ग नहीं रहता।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम कटुभाषण से दूर हों। इसके लिए कर्मों में लगे रहें और सोम का रक्षण करें।

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    विषय

    सेनापति के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! तू ( दनः ) दानशील चित्त वाले उदार ( विशः ) प्रजाओं को ( मृध्रवाचः ) अति कोमल वाणी बोलने वाला कर । वे धनादि के मद में परुष भाषण न किया करें । ( यत् ) जिस प्रकार सूर्य ( सप्त शारदीः दत् ) वर्ष की सातों ऋतुओं को खण्ड २ करता और ( अपः ऋणः ) मेघों द्वारा जल प्रदान करता है । और (यूने) संयोग विभाग करने में समर्थ ( पुरुकुत्साय ) बहुत से वज्रों से या विद्युत् से युक्त वायु के लिये ( वृत्रं ) जल या मेघ को छिन्न भिन्न करता है । उसी प्रकार ( यत् ) जब तू (सप्त) सात ( शारदीः पुरः ) शत्रुओं की हिंसाकारिणी पुरियों को ( दत् ) नाश करे, हे (अनवद्य) अनिन्दनीय ! हे स्तुत्य ! तू ( अर्णाः अपः ऋणोः ) जलों के समान ऐश्वर्यो को प्रदान कर और ( पुरुकुत्साय ) बहुत से शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित राष्ट्र के युवक गण के प्रोत्साहन के लिये या उसके बल पर ( वृत्रं ) नगर के घेरने वाले शत्रुओं को (रन्धीः) विनाश कर । अथवा—हे इन्द्र तू ( मृध्र वाचः विशः) बड़ी २ वाणियों वाली या उद्यम युक्त बलवान् वाणियों वाली प्रजाओं को भी (दनः) अपने अधीन दमन कर या उनको (दनः = नदः) और उत्साह से मुखरित वा सम्पन्न कर कि वे तेरी स्तुति करें । शेष पूर्ववत् ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ निचृत् पङ्क्तिः । २, ३, ६, ८, १० भुरिक् पङ्क्तिः । ४ स्वराट् पङ्क्तिः। ५,७,९ पङ्क्तिः । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. राजाने शत्रूचे पूर, नगर तसेच शरद ऋतूमध्ये सुख देणारी स्थाने इत्यादी गोष्टी नष्ट करून शत्रूंचे निवारण करावे व सूर्य मेघजलाने जसे जगाचे रक्षण करतो तसे राजाने प्रजेचे रक्षण केले पाहिजे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    You subdue and bring under rule the people who are violent in social discourse. You open the seven cities and the homes therein locked in winter snow. Lord adorable free from scandal, you break the cloud for rain showers and let the river waters flow for the sunny world of young humanity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The ruler should undertake protection and welfare of the subjects.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra! you are the President of the Assembly, and are quick like electricity and fire. You destroy seven fortificational boundaries of the wicked foes built by them, as an abode in autumn season for their comforts. You are the soft spoken teacher and as such give good lesson and proper instructions. So, O irreproachable ! you are like the sun who for the good of the world, possesses the rays to shower waters through the clouds and accomplish good works.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A king should destroy the towns and cities of his wicked foes and their places where their soldiers are hidden, so that they may not be able to attack him. As the sun protects the world by raising its rays, so the king also should protect his subjects.

    Foot Notes

    (दन:) अनदः । अत्नाद्यन्तवर्णविपर्ययोऽभावश्च = Give instructions or orders. (अर्णा:) नदीसम्बन्धिनी: । अर्ण इति नदीनाम ( NGT 1, 13 ) = Waters of the rivers etc. (वृत्तम् ) मेघम् = Cloud. ( पुरुकृत्साय) पुरवः बहवः, कुत्साः वज्राः किरणाः यस्मिन् = For (the solar system) which has several powerful rays.

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