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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 174 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 174/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    ज॒घ॒न्वाँ इ॑न्द्र मि॒त्रेरू॑ञ्चो॒दप्र॑वृद्धो हरिवो॒ अदा॑शून्। प्र ये पश्य॑न्नर्य॒मणं॒ सचा॒योस्त्वया॑ शू॒र्ता वह॑माना॒ अप॑त्यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ज॒घ॒न्वान् । इ॒न्द्र॒ । मि॒त्रेरू॑न् । चो॒दऽप्र॑वृद्धः । ह॒रि॒ऽवः॒ । अदा॑शून् । प्र । ये । पश्य॑न् । अ॒र्य॒मण॑म् । सचा॑ । आ॒योः । त्वया॑ । शू॒र्ताः । वह॑मानाः । अप॑त्यम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जघन्वाँ इन्द्र मित्रेरूञ्चोदप्रवृद्धो हरिवो अदाशून्। प्र ये पश्यन्नर्यमणं सचायोस्त्वया शूर्ता वहमाना अपत्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जघन्वान्। इन्द्र। मित्रेरून्। चोदऽप्रवृद्धः। हरिऽवः। अदाशून्। प्र। ये। पश्यन्। अर्यमणम्। सचा। आयोः। त्वया। शूर्ताः। वहमानाः। अपत्यम् ॥ १.१७४.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 174; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे हरिव इन्द्र चोदप्रवृद्धस्त्वमदाशून् मित्रेरून् जघन्वानसि। अतो यो आयोरपत्यं वहमानास्त्वया शूर्त्ता हतास्ते सचा तत्सम्बन्धेन त्वामर्य्यमणं प्रपश्यन् ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (जघन्वान्) हतवान् (इन्द्र) सूर्यइव सभेश (मित्रेरून्) मित्रहिंसकान् शत्रून्। अत्र मित्रोपपदाद्रुष्धातोर्बाहुलकादौणादिको डुः प्रत्ययः (चोदप्रवृद्धः) चोदेन प्रेरणेन प्रवृद्धः (हरिवः) बह्वैश्वर्ययुक्त (अदाशून्) अदातॄन् (प्र) (ये) (पश्यन्) समीक्षन्ते (अर्य्यमणम्) न्यायेशम् (सचा) संयोगेन (आयोः) प्रापकस्य (त्वया) (शूर्त्ताः) विमर्द्दिताः (वहमानाः) नयन्तो धूर्त्ताः (अपत्यम्) सन्तानम् ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    ये मित्रवदाभाषमाणाः परिच्छिन्नाश्चतुराः शत्रवः सज्जनानुद्वेजयन्ति तान् राजा समूलघातं हन्यात्। न्यायासने स्थित्वा सुसमीक्ष्याऽन्यायं निवर्त्तयेत् ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (1)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (हरिवः) बहुत घोड़ोंवाले (इन्द्र) सूर्य के समान सभापति ! (चोदप्रवृद्धः) सदुपदेशों की प्रेरणा से अच्छे प्रकार बढ़े हुए आप (अदाशून्) दान न देने और (मित्ररून्) मित्रों की हिंसा करनेवाले शत्रुओं को (जघन्वान्) मारनेवाले हो इससे (ये) जो (आयोः) दूसरे को सुख पहुँचानेवाले सज्जन के (अपत्यम्) सन्तान को (वहमानाः) पहुँचाने अर्थात् अन्यत्र ले जानेवाले धूर्त्तजन (त्वया) आपने (शूर्त्ताः) छिन्न-भिन्न किये वे (सचा) उस सम्बन्ध से तुम (अर्य्यमणम्) न्यायाधीश को (प्र, पश्यन्) देखते हैं ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    जो मित्र के समान बातचीत करते हुए दुष्टप्रकृति चतुर शत्रुजन सज्जनों को उद्वेग कराते उनको राजा समूल जैसे वे नष्ट हों वैसे मारे और न्यायासन पर बैठ कर अच्छे प्रकार देख विचार अन्याय को निवृत्त करे ॥ ६ ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे मित्राप्रमाणे वागतात; परंतु दुष्ट चतुर असून सज्जनांना उद्वेग आणतात, त्यांना राजाने समूळ नष्ट करावे व न्यायासनावर बसून चांगल्या प्रकारे विचार करून अन्यायाचे निवारण करावे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of love and justice, inspired and self- exalted, master of horses of the wind, is destroyer of the betrayers of friends and selfish exploiters. Lord of honour and glory, those who see you as lord of justice and generosity and as friend of humanity are blest with progeny and family and they are strengthened and confirmed as brave and heroic by you.

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