Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 174 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 174/ मन्त्र 8
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    सना॒ ता त॑ इन्द्र॒ नव्या॒ आगु॒: सहो॒ नभोऽवि॑रणाय पू॒र्वीः। भि॒नत्पुरो॒ न भिदो॒ अदे॑वीर्न॒नमो॒ वध॒रदे॑वस्य पी॒योः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सना॑ । ता । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । नव्याः॑ । आ । अ॒गुः॒ । सहः॑ । नभः॑ । अवि॑ऽरणाय । पू॒र्वीः । भि॒नत् । पुरः॑ । न । भिदः॑ । अदे॑वीः । न॒नमः॑ । वधः॑ । अदे॑वस्य । पी॒योः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सना ता त इन्द्र नव्या आगु: सहो नभोऽविरणाय पूर्वीः। भिनत्पुरो न भिदो अदेवीर्ननमो वधरदेवस्य पीयोः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सना। ता। ते। इन्द्र। नव्याः। आ। अगुः। सहः। नभः। अविऽरणाय। पूर्वीः। भिनत्। पुरः। न। भिदः। अदेवीः। ननमः। वधः। अदेवस्य। पीयोः ॥ १.१७४.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 174; मन्त्र » 8
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे इन्द्र त्वमविरणाय नभः सहो भवान् पूर्वीः पुरो भिनत् न भिदोऽदेवीर्ननमस्तेनादेवस्य पीयोर्वधो भवतीत्येतानि यानि ते सना ता नव्या आगुः ॥ ८ ॥

    पदार्थः

    (सना) सनानि प्रसिद्धानि शौर्याणि (ता) तानि तेजांसि (ते) तव (इन्द्र) सवितृवद्वर्त्तमान (नव्याः) नवा जनाइव (आ) (अगुः) आगच्छेयुः (सहः) सहसे। लङि मध्यमैकवचनेऽडभावः। (नभः) हिंसकान् (अविरणाय) युद्धनिवृत्तये (पूर्वीः) प्राचीनाः (भिनत्) अभिनत्। अत्राऽडभावः। (पुरः) शत्रूणां नगरीः (न) इव (भिदः) भिन्नाः (अदेवीः) असुरस्य दुष्टस्य नगरीः (ननमः) नमयति। अत्रान्तर्भावितो ण्यर्थः। नम धातोर्लेटि मध्यमैकवचने शपः श्लुः, श्लाविति द्विर्वचनम्। (वधः) नाशः (अदेवस्य) असुरस्य शत्रुगणस्य (पीयोः) स्थूलस्य। अत्र पीव धातोर्बाहुलकादौणादिको युक् प्रत्ययः ॥ ८ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। राजानः संग्रामादिष्वीदृशानि शूरताप्रदर्शकानि कर्माण्याचरेयुर्यानि दृष्ट्वैवादृष्टपूर्वकर्माणो नवीना दुष्टाः प्रजाजना बिभ्येयुः ॥ ८ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सूर्य के समान प्रतापवान् राजन् ! आप (अविरणाय) युद्ध की निवृत्ति के लिये (नभः) हिंसक शत्रुजनों को (सहः) सहते हो। आप जैसे (पूर्वीः) प्राचीन (पुरः) शत्रुओं की नगरियों को (भिनत्) छिन्न-भिन्न करते हुए (न) वैसे (भिदः) भिन्न अलग-अलग (अदेवीः) शत्रुवर्गों की दुष्ट नगरियों को (ननमः) नमाते ढहाते हो उससे (अदेवस्य, पीयोः) राक्षसपन संचारते हुए शत्रुगण का (वधः) नाश होता है, यह जो (ते) आपके (सना) प्रसिद्ध शूरपने के काम हैं (ता) उनको (नव्याः) नवीन प्रजाजन (आगुः) प्राप्त होवें ॥ ८ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। राजजन संग्रामादि भूमियों में ऐसे शूरता दिखलानेवाले कामों का आचरण करें, जिनको देखके ही जिन्होंने पिछली शूरता के काम नहीं देखे वे नवीन दुष्ट प्रजाजन भयभीत हों ॥ ८ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वासना-संहार

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) शक्तिशाली कर्मों को करनेवाले प्रभो ! (ते) = आपके (ता) = वे (नव्या स्तुत्यकर्म) = [नव गतौ, नु स्तुतौ] (आगुः) = हमें प्राप्त हों। आप ही (अविरणाय) = [अविनाशाय - सा०] हमारे अविनाश के लिए (पूर्वी: नभः) = [बह्वीः हिंसा:- सा०] इन विविध हिंसाओं को (सहः) = अभिभूत करते हैं। सब वासनाएँ हमारी हिंसा करनेवाली हैं, इसलिए वे यहाँ 'नभः' शब्द से कही गई हैं [नभ् हिंसायाम्] । इन वासनाओं का विनाश करके प्रभु हमारा रक्षण करते हैं । २. (न) = जैसे आप (पुरः भिनत्) = आसुर पुरियों का विदारण करते हैं, उसी प्रकार (अदेवी:) = सब अशुभ भावनाओं को (भिदः) = विदीर्ण करते हैं । (अदेवस्य) = इस असुर के जो कि (पीयोः) = हमारा हिंसन करनेवाला है, उसके (वधः) = आयुध को (ननमः) = आप झुका देते हैं। प्रभु कृपा होती है तो वासना का आयुध भी हम पर प्रभाव नहीं कर पाता। इस आयुध से आक्रान्त न होने पर ही हमारा जीवन पवित्र बना रहता है और हम विनष्ट नहीं होते।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें प्रभु के स्तुत्य कर्म प्राप्त हों । प्रभु कृपा से असुरों के आयुधों का हम पर आक्रमण न हो, अथवा आक्रमण प्रभावी न हो ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    दुष्टों का दमन ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! ( नव्याः ) नये विद्वान्, लोग (ते) तुझे (ता) वे अनेकानेक ( सना ) सनातन से चले आये प्रजापालनकारी धर्मों का (आ अगुः ) उपदेश करें, तुझे कहें । तू ( पूर्वी: ) पहले की ( नभः ) शत्रु सेनाओं को ( अ-वि-रणाय ) विशेष युद्धादि के न करने के लिये ( सहः ) पराजित कर । तू (पुरः) शत्रु की नगरियों को ( भिनत् ) तोड़ डाल, और (अदेवीः) दानशील करप्रद प्रजाओं से भिन्न ( भिदः ) फूट डालने या स्वयं फूटने वाली, अपने से भिन्न, द्रोही लोगों को ( ननमः ) निरन्तर नमा । और ( अदेवस्य ) करादि न देने वाले, अव्यवहारज्ञ, या देव, राजा को न स्वीकार करने वाले, अराजक, नीच ( पीयोः ) हिंसक पुरुष का ( वधः ) हनन कर, उसे दण्ड दे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ निचृत् पङ्क्तिः । २, ३, ६, ८, १० भुरिक् पङ्क्तिः । ४ स्वराट् पङ्क्तिः। ५,७,९ पङ्क्तिः । दशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. राजाने युद्धभूमीवर असा अभूतपूर्व पराक्रम दाखवावा की जे पाहून असा पराक्रम मागे कधी पाहिला नाही असे वाटून दुष्ट नवीन प्रजाजन भयभीत व्हावेत. ॥ ८ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of power and glory, ruler of the world, let the latest poets and citizens know and sing of your famous acts of valour, justice and generosity with universal courage. You have suppressed the old established strongholds of violence for the elimination of war and establishment of peace. You have broken the dens of sin and crime like the citadels of ancient demons, and you have destroyed the deadly weapons of the terrorist enemies of humanity.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The heroism should be the watchword of the rulers.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra ! you are the Commander in-Chief of the Army and shining like the sun. You are capable to put an end to the war. You have made the enemies to surrender and demolished the cities of the hostile wicked foes. You have defeated the powerful demon with your thunderbolt-like the divine power. Let these your glorious acts of heroism and your splendors be known to the other wicked persons also, so that they may not venture to do their evil designs.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The rulers should perform such heroic deeds in the battlefield and other places so that the other wicked subjects who have not seen such acts, may get frightened.

    Foot Notes

    (नभः) हिसकान् = To violent enemies. ( सना) सननि प्रसिद्धानि शौर्याणि = Famous heroic acts.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top