ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 174/ मन्त्र 9
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
त्वं धुनि॑रिन्द्र॒ धुनि॑मतीर्ऋ॒णोर॒पः सी॒रा न स्रव॑न्तीः। प्र यत्स॑मु॒द्रमति॑ शूर॒ पर्षि॑ पा॒रया॑ तु॒र्वशं॒ यदुं॑ स्व॒स्ति ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । धुनिः॑ । इ॒न्द्र॒ । धुनि॑ऽमतीः । ऋ॒णोः । अ॒पः । सी॒राः । न । स्रव॑न्तीः । प्र । यत् । स॒मु॒द्रम् । अति॑ । शू॒र॒ । पर्षि॑ । पा॒रय॑ । तु॒र्वश॑म् । यदु॑म् । स्व॒स्ति ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं धुनिरिन्द्र धुनिमतीर्ऋणोरपः सीरा न स्रवन्तीः। प्र यत्समुद्रमति शूर पर्षि पारया तुर्वशं यदुं स्वस्ति ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। धुनिः। इन्द्र। धुनिऽमतीः। ऋणोः। अपः। सीराः। न। स्रवन्तीः। प्र। यत्। समुद्रम्। अति। शूर। पर्षि। पारय। तुर्वशम्। यदुम्। स्वस्ति ॥ १.१७४.९
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 174; मन्त्र » 9
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ प्रकारान्तरेण राजधर्मविषयमाह ।
अन्वयः
हे इन्द्र धुनिस्त्वं विद्युदग्निर्धुनिमतीरपः स्रवन्तीः सीरा न प्रजाः प्रार्णोः। हे शूर यद्यस्त्वं समुद्रमति पर्षि स यदुन्तुर्वशं स्वस्ति पारय ॥ ९ ॥
पदार्थः
(त्वम्) (धुनिः) कम्पकः (इन्द्र) सूर्य्यवद्वर्त्तमान (धुनिमतीः) कम्पयुक्ताः (ऋणोः) प्राप्नुयाः (अपः) जलानि (सीराः) नाडीः (न) इव (स्रवन्तीः) गच्छन्तीः (प्र) (यत्) यः (समुद्रम्) (अति) (शूर) शत्रुहिंसक (पर्षि) सिक्तमुदकम् (पारय) तीरे प्रापय। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (तुर्वशम्) यस्तूर्णकारी वशंगतस्तं मनुष्यम् (यदुम्) यत्नशीलम् (स्वस्ति) सुखम् ॥ ९ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा शरीरस्था विद्युन्नाडीषु रुधिरं गमयति सूर्यो जलं च जगति प्रापयति तथा प्रजासु सुखं गमयेद्दुष्टान् कम्पयेत् ॥ ९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब प्रकारान्तर से राजधर्म विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (इन्द्र) सूर्य के समान वर्त्तमान (धुनिः) शत्रुओं को कंपानेवाले ! (त्वम्) आप बिजुलीरूप सूर्यमण्डलस्थ अग्नि जैसे (धुनिमतीः) कंपते हुए (अपः) जलों को वा बिजुलीरूप जठराग्नि जैसे (स्रवतीः) चलती हुई (सीराः) नाड़ियों को (न) वैसे प्रजाजनों को (प्राणोः) प्राप्त हूजिये। हे (शूर) शत्रुओं की हिंसा करनेवाले ! (यत्) जो आप (समुद्रम्) समुद्र को (अति, पर्षि) अतिक्रमण करने उतरि के पार पहुँचते हो सो (यदुम्) यत्नशील और (तुर्वशम्) जो शीघ्र कार्यकर्त्ता अपने वश को प्राप्त हुआ उस जन को (स्वस्ति) कल्याण जैसे हो वैसे (पारय) समुद्रादि नद के एक तट से दूसरे तट को झटपट पहुँचवाइये ॥ ९ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे शरीरस्थ बिजुलीरूप अग्नि नाड़ियों में रुधिर को पहुँचाती है और सूर्यमण्डल जल को जगत् में पहुँचाता है, वैसे प्रजाओं में सुख को प्राप्त करावें और दुष्टों को कंपावें ॥ ९ ॥
विषय
समुद्र के पार
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = शत्रुओं को दूर भगानेवाले प्रभो ! (त्वं धुनिः) = आप हमारे काम-क्रोधादि शत्रुओं को कम्पित करनेवाले हैं। आप (सीराः न स्त्रवन्तीः) = नदियों की भाँति निरन्तर बहनेवाले (धुनिमती:) = काम-क्रोधादि को कम्पित करनेवाले (अपः) = कर्मों को (ऋणो:) = [अगमय:] प्राप्त कराइए । हम आपकी कृपा से (स्वभावतः) = इस प्रकार अपने नियत कर्मों को करनेवाले हों, जैसे नदियाँ स्वाभाविक रूप में बहती चलती हैं। यह निरन्तर कर्मों में लगे रहना हमें वासनाओं का शिकार होने से बचाता है। क्रियाशीलतारूप वज्र को हाथ में लेकर हम इन शत्रुओं को कम्पित करनेवाले होते हैं । २. हे शूर हमारी वासनाओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो! आप (यत्) = जब (समुद्रम्) = [कामो हि समुद्रः -अनन्तत्वात्] इस कामसमुद्र के (अतिपर्षि) = हमें पार ले जाते हैं तो (तुर्वशम्) = त्वरा से इनको वश में करनेवाले (यदुम्) = यत्नशील पुरुष को (स्वस्ति) = मङ्गल के लिए (प्रपारया) = प्रकृष्टतया पार ले जाते हैं। 'अत्रा जहाम अशिवा ये असन्' – सब अशिवों को हम यहाँ इस पार ही छोड़ जाते हैं और 'शिवान् वयमुत्तरेमाभि वाजान्' परले पार शिवशक्तियों को प्राप्त करनेवाले होते हैं। प्रभु उसी को इस काम-समुद्र से पार ले चलते हैं जो 'तुर्वश' (फुर्तीला) व 'यदु' (यत्नशील) बनता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम क्रियाशीलता के द्वारा कामादि शत्रुओं को कम्पित करके दूर करनेवाले हो।
विषय
शत्रुनाश, सेनासञ्चालन ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! सूर्य और विद्युत् के समान शत्रु को नाश करने हारे ! ( त्वं ) तू वायु के समान ( धुनिः ) शत्रु को कंपा देने हारा हो । ( न ) जिस प्रकार सूर्य या विद्युत् ( धुनिमतीः अपः ) कांपती हुई जल धाराओं को ( स्रवन्तीः सीराः ऋणोः ) बहती नदियों के रूप में बहा देता है उसी प्रकार तू भी ( धुनिमतीः ) शत्रु को कंपा देने वाले नायकों वाली ( अपः ) प्रजाओं को ( स्रवन्तीः सीराः न ) बहती नदियों या देह में बहती नाड़ियों के समान ( ऋणोः ) प्रवाह में सञ्चालित कर । ( यत् ) जो तू हे (शूर ) शूरवीर ! शत्रुहिंसक ! ( समुद्रमअति ) समुद्र को भी अतिक्रमण करके (पर्षि) अपनी प्रजा और सेना को पालन करने में समर्थ है इसलिये तू (तुर्वशं) शीघ्रता से जाने वाले अपने अधीन मनुष्य, अर्थात् तीव्र गतिवाले यानों से गमनागमन करने वाले अपने अधीन प्रजाजन को और ( यदुम् ) यत्नशील उद्यमी, पुरुषों को ( स्वस्ति ) सुख से, ( समुद्रम् अति पारय ) समुद्र के भी पार कर । उन संकटों से पार उतार । ( २ ) अध्यात्म में—सबका सञ्चालक परमेश्वर ‘धुनि’ है समस्त लोक और प्रकृति के सूक्ष्म परमाणु और आत्मा सहित लिङ्ग शरीर ‘धुनिमती आपः’ हैं। वह उनको आप से आप बहती नदियों के समान निरन्तर चला रहा है मानों वे अपनी ही प्रवृत्ति से निरन्तर से बह रहे हैं। वह परमेश्वर सब संकटों से जीवों को पार करता और पालन भी करता है। मनुष्य चतुर्वर्ग की कामना करने से ‘तुर्वश’, और यत्वान् होने ‘यदु’ है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ निचृत् पङ्क्तिः । २, ३, ६, ८, १० भुरिक् पङ्क्तिः । ४ स्वराट् पङ्क्तिः। ५,७,९ पङ्क्तिः । दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा शरीरातील विद्युतरूपी अग्नी नाड्यांमध्ये रक्त पोहोचवितो व सूर्यमंडल जगात जल पसरविते तसे प्रजेमध्ये सुख प्रसृत करावे आणि दुष्टांना भयभीत करावे. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of life and energy, you are a mover and shaker like the inspiration of soma and the speed of winds, shaking people out of lethargy and complacency. You set the waters aflow, shaking and overflowing the banks. Reach the people like roaring streams or like life-blood circulating through the veins of wealth and work. And, O lord of might and knowledge, if you swell the sea to the shores like the sun, then help the man of endeavour and the man of self-controlled speed and acceleration to cross the sea from shore to shore.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of a king are mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra! you are the Chief Commander of the army and full of splendor like the sun. You ary terrifier to your foes, like the thunderbolt in the solar world, which brings the stirring water. Approach your subjects. O destroyer of your foes! you have made comfortable arrangements and industrious naval force.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the sun brings water to the world through rains, in the same manner, a king should convey happiness to his subjects and should make the wicked tremble before him.
Foot Notes
(सीड्यः ) नाड्य: = Nerves. (तुर्बश ) य तूर्णाकारी वशंगतः तं मनुष्य = To an active obedient attendant.
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