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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 175 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 175/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वं हि शूर॒: सनि॑ता चो॒दयो॒ मनु॑षो॒ रथ॑म्। स॒हावा॒न्दस्यु॑मव्र॒तमोष॒: पात्रं॒ न शो॒चिषा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । हि । शूरः॑ । सनि॑ता । चो॒दयः॑ । मनु॑षः । रथ॑म् । स॒हऽवा॑न् । दस्यु॑म् । अ॒व्र॒तम् । ओषः॑ । पात्र॑म् । न । शो॒चिषा॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं हि शूर: सनिता चोदयो मनुषो रथम्। सहावान्दस्युमव्रतमोष: पात्रं न शोचिषा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। हि। शूरः। सनिता। चोदयः। मनुषः। रथम्। सहऽवान्। दस्युम्। अव्रतम्। ओषः। पात्रम्। न। शोचिषा ॥ १.१७५.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 175; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राज्यविषये सेनापतिविषयमाह ।

    अन्वयः

    हे सेनेश हि यतः शूरस्सनिता त्वं मनुषो रथं चोदयः। सहावाञ्छोचिषा पात्रं नाव्रतं दस्युमोषस्तस्मान्मान्यभाक् स्याः ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (हि) यतः (शूरः) निर्भयः (सनिता) संविभक्ता (चोदयः) प्रेरय (मनुषः) मनुष्यान् (रथम्) युद्धाय प्रवर्त्तितम् (सहावान्) बलवान्। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः। (दस्युम्) प्रसह्यपरस्वापहर्त्तारम् (अव्रतम्) दुःशीलम् (ओषः) दहसि (पात्रम्) (न) इव (शोचिषा) प्रदीप्तयाऽग्निज्वालया ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    ये सेनापतयो युद्धसमये रथादियानानि योधॄँश्च युद्धाय प्रचालयितुं जानन्ति ते वह्निः काष्ठमिव दस्यून् भस्मीकर्त्तुं शक्नुवन्ति ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब राजविषय में सेनापति के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे सेनापति ! (हि) जिस कारण (शूरः) शूरवीर निडर (सनिता) सेना को संविभाग करने अर्थात् पद्मादि व्यूह रचना से बाँटनेवाले (त्वम्) आप (मनुषः) मनुष्यों और (रथम्) युद्ध के लिये प्रवृत्त किये हुए रथ को (चोदयः) प्रेरणा दें अर्थात् युद्ध समय में आगे को बढ़ावें और (सहावान्) बलवान् आप (शोचिषा) दीपते हुए अग्नि की लपट से जैसे (पात्रम्) काष्ठ आदि के पात्र को (न) वैसे (अव्रतम्) दुश्शील दुराचारी (दस्युम्) हठ कर पराये धन को हरनेवाले दुष्टजन को (ओषः) जलाओ इससे मान्यभागी होओ ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    जो सेनापति युद्ध समय में रथ आदि यान और योद्धाओं को ढङ्ग से चलाने को जानते हैं, वे आग जैसे काष्ठ को वैसे डाकुओं को भस्म कर सकते हैं ॥ ३ ॥

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    विषय

    अव्रत दस्यु का दहन

    पदार्थ

    १. हे सोम ! (त्वं हि) = तू ही (शूरः) = सब रोगरूप शत्रुओं को शीर्ण करनेवाला है और इस प्रकार (सनिता) = सब ऐश्वर्यों को देनेवाला है। २. हे सोम! तू ही (मनुषः रथम्) = मनुष्य के रथ को (चोदयः) = प्रेरित करता है। शरीररूप रथ की गति का आधार तू ही है। (सहावान्) = गति के विघ्नभूत रोगों के मर्षण की शक्तिवाला तू है। ३. (अव्रतम्) = पुण्य से रहित (दस्युम्) = दस्युवृत्ति को (ओषः) = तू जलानेवाला है। तेरे कारण वे सब अशुभ वृत्तियाँ जो उत्तम क्रियाओं को समाप्त करनेवाली हैं, उसी प्रकार नष्ट हो जाती हैं (न) = जैसे कि (शोचिषा) = अग्नि की ज्वाला से (पात्रम्) = बर्तन जलाया जाता है। जो बर्तन सदा अग्नि पर रखा जाता है, उसका तला जल जाता है। उसी प्रकार सोम 'अव्रत दस्युओं' को जला देता है । ४. सोम रोगों को नष्ट करके शरीर को उत्तम गतिवाला बनाता है, दास्यव वृत्तियों को नष्ट करके मन को पवित्र बनाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ – सोम रोगरूप शत्रुओं तथा विनाशकारी अशुभ वृत्तियों को नष्ट करता है ।

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    Bhajan

     वैदिक मन्त्र
    त्वं हि शूर: सनिता चोदयो मनुषो रथम्।
    सहावान्दस्युमव्रतमोष: पात्रं न शोचिषा।।
                                      ऋ•१.१७५.३
               वैदिक भजन १०९६वां
                      राग भैरवी
             गायन समय चारों प्रहर
              ताल कहरवा ८ मात्रा
                   भाग१+भाग२
    मैं नाम जपता रहूं तुम्हारा 
    गुण कर्म स्वभाव में तुम हो अमी
    हो शूर बली और हो तुम पराक्रमी 
    तुम्हारे आगे हैं तुच्छ सभी।।
    मैं नाम.......
    हो दानवीर हो धर्मवीर 
    हो युद्धवीर और दयावीर
    तुम्हारी अद्भुत है दानवीरता 
    फल-फूल,अन्न-जल देते सभी।।
    मैं नाम........
    ये वन, ये पर्वत, औषध-वनस्पति 
    भरे हैं खानों में हीरे-मोती
    ये जल, ये वायु, पृथ्वी-आकाश 
    विविध पदार्थों में है अग्नि
    मैं नाम.......
    ना है अन्याय ना पक्षपात 
    हो धर्मवीर बड़े उदात्त
    निर्मूल करते हो पापियों को 
    व पुण्यशाली करते विजयी
    मैं नाम......
    हो देते कर्मानुसार ही फल 
    करते पुरस्कृत सज्जनों को
    यही तुम्हारी दया की वीरता
    व्रतों के पालन में ना है कमी।।
    मैं नाम.......
                     भाग २
    मैं नाम जपता रहूं तुम्हारा 
    गुण कर्म स्वभाव में तुम हो अमी
    हो शूर,बली और हो तुम पराक्रमी 
    तुम्हारे आगे हैं तुच्छ सभी
    मैं नाम.......
    तुम्हारी भक्ति में लीन जो होता 
    स्तुति प्रार्थना उपासना करता 
    हो ऐसे भक्त जनों के 'सनिता '
    ना तुम लौटाते हो हाथ खाली
    मैं नाम.......
    मनुष्य रथ के तो तुम हो सारथि
    बढ़ाते रथ को तुम लक्ष्य ही तक
    अग्नि समान ही तुम हो प्रेरक
    साधन प्रतीक हो हे रथ के रथी !
    मैं नाम.......
    हो तुम सहावान अत्यन्त बली
    बनाते व्रतहीन को व्रतनिष्ठ
    व्रतहीन को तुम कष्ट देकर 
    सुधारते हो देकर रश्मि
    मैं नाम.........
    जो दस्युता है व्रतहीनता है 
    उसे बदलकर बनाओ उज्जवल
    प्रकाश सत्प्रेरणा जगाओ
    हे इन्द्र ! चाहें तुमसे अमी।।
    मैं नाम.......
                      ६.६.२०२३
                      ५.५५ सायं
    अमी= अमृत
    उदात्त=ऊंचा, महान
    सनिता=भक्तों को भजने वाला
    सहावान=बलवान
    रश्मि=प्रकाश की किरण
    दस्यु=राक्षस
    🕉🧘‍♂️
      द्वितीय श्रृंखला का ८९ वां  वैदिक भजन और अब तक का 1096 वां  वैदिक भजन 

    वैदिक श्रोताओं को हार्दिक धन्यवाद एवं शुभकामनाएं! 🙏

    Vyakhya

    तुम्हीं मनुष्य का रथ आगे बढ़ाते हो

    हे मेरे इन्द्र प्रभु ! मैं तुम्हारा नाम जपता हूं तुम्हारे उज्जवल गुण कर्म स्वभाव का वर्णन करता हूं। तो मशहूर हो संसार के बड़े से बड़े बली, वीर, पराक्रमी लोग तुम्हारे बल, वीरत्व और पराक्रम के आगे हार मानते हैं। काव्य शास्त्रियों ने वीररसके संदर्भ में वीर चार प्रकार के माने हैं--दानवीर, धर्मवीर, युद्धवीर और दयावीर। तुम्हारी दानवीरता अतिशय श्लाघ्य है। तुमने सागर की सीपीयों में मोती भरे हैं, खानों में अनेक प्रकार के खनिज संजोये हैं। वन- पर्वत, वृक्ष- लता, औषधि- वनस्पति, फूल- फल खेत-खलिहान, अन्न- जल आदि दिए हैं। तुम्हारी धर्मवीरता भी स्तुत्य है। अन्याय, पक्षपात आदि से पृथक रहकर सदा धर्म से अविरुद्ध ही कार्य करते हो। तो मैं युद्धवीर भी अद्वितीय हो। पापियों एवं पापों को युद्ध में निर्मल करके पुण्यशालियों एवं पुण्यों की विजय पताका फहराते हो। तुम दयावीर ऐसे हो कि सब को उनके कर्मों के अनुसार फल देकर उन्हें पुरस्कृत करने में सुधारने की दया दिखाते हो।
    हे प्रभु तुम 'सनिता' हो, भक्तों को भजने वाले हो। जो तुम्हारी भक्ति में लीन होकर तुम्हारी स्तुति, प्रार्थना, उपासना करता है, वह कभी खाली हाथ नहीं लौटता। तुम्हारा स्तोता तुम्हें भजता है, तुम उसे भजते हो। तुम मनुष्य के रथ को प्रेरित करते हो, उसके सारथी बन जाते हो। रथ यहां आगे बढ़ने के समस्त साधनों का प्रतीक है। मनुष्य अपनी उन्नति के लिए जिन साधनों का भी प्रयोग करता है, वे साधन तुम्हारी कृपा से मानो स्वयं ही प्रवृत्त होते चलते हैं। स्वयं ही रथ का पहिया घूमता चलता है, रथ आगे बढ़ता है, और मनुष्य लक्ष्य पर पहुंच जाता है।
    हे मेरे प्रभु! तुम सहावान हो, बलियों में बलि हो। जो दस्यु है, अकर्मा है, व्रतहीन है
    उसे पुण्य आत्मा, सक्रिय और व्रतनिष्ठ बना देने की शक्ति तुम्हारे अन्दर है। कछु और व्रत हिना को तुम दाह पहुंचाते हो, जलाते हो, कष्ट देते हो, और अपनी सत् प्रेरणा के प्रकाश की एक शुभ्र किरण उस पर छोड़ देते हो। तब जैसे स्वर्ण पात्र अग्नि में दग्ध होकर कंचन बन जाता है, वैसे ही दस्यु मनुष्य पुण्यात्मा, सुव्रती, कर्मठ के रूप में परिवर्तित हो जाता है।
    हे प्रभु मेरे रथ को भी तुम आगे बढ़ाते चलो। मुझे मैं यदि किसी भी अंश में दस्युता या व्रतहीनता है, तो उसे दग्ध करके मुझे उज्ज्वल बना दो।

     

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    विषय

    शूरवीरवत् सेना सञ्चालक दुष्टों का नाशक हो ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! ( त्वं ) तू ( हि ) निश्चय से ( शूरः ) शूरवीर है । तू (सनिता) सैन्य को व्यूहों में, ऐश्वर्य को प्रजाओं में यथोचित रूप से विभाग करने हारा होकर ( मनुषः ) पैदल योद्वा पुरुषों को और ( रथम् ) और रथ सैन्य को भी ( चोदय ) सञ्चालन कर । तू ही ( सहावान् ) बलवान् होकर ( अव्रतम् ) व्रत अर्थात् उत्तम कर्मों से हीन ( दस्युम् ) प्रजा के नाशकारी दुष्ट पुरुषों को ( शोचिषा ) अपने तेज से ( पात्रं न ) हंडिया को आग के समान ( ओषः ) संतप्त कर । ( २ ) सर्वत्र व्यापक होकर रमण करने, दुष्टों का नाशक होने से परमेश्वर ‘शूर’ है । सर्वत्र लोकविभाजक सर्वैश्वर्य दाता होने से ‘सनिता’ है । वह मनुष्यों और उनके देह या आत्मा को सन्मार्ग में चलाता, वह पापियों को भी हँडिया को आग के समान संतप्त करता, पीड़ित करता और पश्चात्ताप से दुःखी करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः— १ स्वराडनुष्टुप् । २ विराडनुष्टुप । ५ अनुष्टुप् । ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ६ भुरिक् त्रिष्टुप । उष्णिक् ॥ षडर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे सेनापती युद्धाच्या वेळी रथ इत्यादी यान चालविणे व योद्ध्यांना प्रेरणा देणे इत्यादी कार्ये करतात ते जसा अग्नी काष्ठ भस्म करतो तसे चोर लुटारूंना भस्म करू शकतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, ruler and protector of the world, great you are, valiant and generous, dispenser, disposer, giver and unifier. Inspire and accelerate the chariot of humanity. Heroic and courageous lord of challenges, burn the lawless brute with your light and lustre of justice as the blaze of fire burns an empty vessel on the hearth (because there is nothing in it except its empty self).

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    O Commander of the army ! you are a fearless brave person. Divide your contingents in various formations and order them to transport swiftly to move with battle wares in the field. You are mighty. Perish a wicked man who is a robber, carrying off others, articles by force, like a vessel, which is heated and purified by the flame of fire.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The commanders of the armies who know how to arrange formations with their transport and battle wares in the field, can burn robbers like the fires burns the forests.

    Foot Notes

    (दस्युम्) प्रसह्य परस्वापहर्तारम् – A robber taking away others property by force (सनिता) संविभक्ता = Divider of the army into various formations.

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