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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 175 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 175/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्र: छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    शु॒ष्मिन्त॑मो॒ हि ते॒ मदो॑ द्यु॒म्निन्त॑म उ॒त क्रतु॑:। वृ॒त्र॒घ्ना व॑रिवो॒विदा॑ मंसी॒ष्ठा अ॑श्व॒सात॑मः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शु॒ष्मिन्ऽत॑मः । हि । ते॒ । मदः॑ । द्यु॒म्निन्ऽत॑मः । उ॒त । क्रतुः॑ । वृ॒त्र॒ऽघ्ना । व॒रि॒वः॒ऽविदा॑ । मं॒सी॒ष्ठाः । अ॒श्व॒ऽसात॑मः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शुष्मिन्तमो हि ते मदो द्युम्निन्तम उत क्रतु:। वृत्रघ्ना वरिवोविदा मंसीष्ठा अश्वसातमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शुष्मिन्ऽतमः। हि। ते। मदः। द्युम्निन्ऽतमः। उत। क्रतुः। वृत्रऽघ्ना। वरिवःऽविदा। मंसीष्ठाः। अश्वऽसातमः ॥ १.१७५.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 175; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे सर्वेश हि ते शुष्मिन्तमो मद उतापि द्युम्निन्तमः क्रतुः पराक्रमोऽस्ति तेन वृत्रघ्ना वरिवोविदाऽश्वसातमो मंसीष्ठाः ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (शुष्मिन्तमः) अतिशयेन बली (हि) यतः (ते) तव (मदः) हर्षः (द्युम्निन्तमः) अतिशयेन यशस्वी (उत) अपि (क्रतुः) कर्मपराक्रमः (वृत्रघ्ना) वृत्रं मेघं हन्ति यस्तेन सूर्येणेव (वरिवोविदा) परिचरणं विन्दति प्राप्नोति येन तेन पराक्रमेण (मंसीष्ठाः) मन्येथाः (अश्वसातमः) योऽश्वान् सनति संभजति सोऽतिशयितः ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सूर्य्यवत्तेजस्विनो विद्युद्वत्पराक्रमिणो यशस्विनो बलिष्ठा विद्याविनयधर्मान् सेवन्ते ते सुखमश्नुवते ॥ ५ ॥

    हिन्दी (1)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे सबके ईश्वर सभापति ! (हि) जिस कारण (ते) आपका (शुष्मिन्तमः) अतीव बलवाला (मदः) आनन्द (उत) और (द्युम्निन्तमः) अतीव यशयुक्त (क्रतुः) पराक्रमरूप कर्म है उससे (वृत्रघ्ना) मेघ को छिन्न-भिन्न करनेवाले सूर्य के समान प्रकाशमान (वरिवोविदा) जिससे कि सेवा को प्राप्त होता उस पराक्रम से (अश्वसातमः) अतीव अश्वादिकों का अच्छे विभाग करनेवाले आप दूसरे के विषय (=विनय) को (मंसीष्ठाः) मानो ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सूर्य के समान तेजस्वी, बिजुली के समान पराक्रमी, यशस्वी, अत्यन्त बली जन विद्या, विनय और धर्म का सेवन करते हैं, वे सुख को प्राप्त होते हैं ॥ ५ ॥

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे सूर्याप्रमाणे तेजस्वी, विद्युतप्रमाणे पराक्रमी, यशस्वी, अत्यंत बलवान, विद्या, विनय व धर्माचे सेवन करतात ते सुख प्राप्त करतात. ॥ ५ ॥

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Highly strengthening and most reassuring is your joy. Holiest and most blissful giver of wealth and prosperity is your action and conduct of government and administration. O destroyer of suffering and darkness, lord of speediest movement and communi cation, giver of peace, freedom and security, think, reflect and know the mind and working of others with sympathy and self-confidence.

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