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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 178 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 178/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    जेता॒ नृभि॒रिन्द्र॑: पृ॒त्सु शूर॒: श्रोता॒ हवं॒ नाध॑मानस्य का॒रोः। प्रभ॑र्ता॒ रथं॑ दा॒शुष॑ उपा॒क उद्य॑न्ता॒ गिरो॒ यदि॑ च॒ त्मना॒ भूत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जेता॑ । नृऽभिः॑ । इन्द्रः॑ । पृ॒त्ऽसु । शूरः॑ । श्रोता॑ । हव॑म् । नाध॑मानस्य । का॒रोः । प्रऽभ॑र्ता । रथ॑म् । दा॒शुषः॑ । उ॒पा॒के । उत्ऽय॑न्ता । गिरः॑ । यदि॑ । च॒ । त्मना॑ । भूत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जेता नृभिरिन्द्र: पृत्सु शूर: श्रोता हवं नाधमानस्य कारोः। प्रभर्ता रथं दाशुष उपाक उद्यन्ता गिरो यदि च त्मना भूत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जेता। नृऽभिः। इन्द्रः। पृत्ऽसु। शूरः। श्रोता। हवम्। नाधमानस्य। कारोः। प्रऽभर्ता। रथम्। दाशुषः। उपाके। उत्ऽयन्ता। गिरः। यदि। च। त्मना। भूत् ॥ १.१७८.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 178; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    यदि नृभिस्सह शूरो जेता नाधमानस्य कारोर्हवं श्रोता प्रभर्त्ता दाशुष उपाके गिर उद्यन्तेन्द्रस्त्वं त्मना पृत्सु रथं च गृहीत्वा प्रवृत्तोभूत्तर्हि तस्य ध्रुवो विजयः स्यात् ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (जेता) जेतुं शीलः (नृभिः) नायकैर्वीरैस्सह (इन्द्रः) सेनेशः (पृत्सु) सङ्ग्रामेषु (शूरः) शत्रूणां हिंसकः (श्रोता) (हवम्) आदातुमर्हं विद्याबोधम् (नाधमानस्य) याचमानस्य (कारोः) कर्त्तुं शीलस्य (प्रभर्त्ता) प्रकृष्टानां विद्यानां धर्ता (रथम्) यानम् (दाशुषः) दातुं शीलस्य (उपाके) समीपे (उद्यन्ता) उत्कृष्टतया नियन्ता (गिरः) वाणीः (यदि) (च) (त्मना) आत्मना (भूत्) भवेत्। अत्राडभावः लिङर्थे लुङ् च ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    ये विद्यां याचेयुस्तेभ्यस्सततं दद्यात्। ये जितेन्द्रिया सत्यवादिनो भवन्ति तेषामेव विद्या प्राप्ता भवति। ये विद्याशरीरबलैर्युक्ता शत्रुभिः सह युद्ध्यन्ते तेषां कुतः पराजयः ? ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (यदि) जो (नृभिः) नायक वीरों के साथ (शूरः) शत्रुओं की हिंसा करनेवाला (जेता) विजयशील (नाधमानस्य) माँगते हुए (कारोः) कार्यकारी पुरुष के (हवम्) ग्रहण करने योग्य विद्याबोध को (श्रोता) सुननेवाला (प्रभर्त्ता) उत्तम विद्याओं का धारण करनेवाला (दाशुषः) दानशील के (उपाके) समीप (गिरः) वाणियों का (उद्यन्ता) उद्यम करनेवाला (इन्द्रः) सेनाधीश तूँ (त्मना) अपने से (पृत्सु) संग्रामों में (रथम्) रथ को (च) भी ग्रहण करके प्रवृत्त (भूत्) होवे उसका दृढ़ विजय हो ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    जो विद्या की याचना करें, उसको निरन्तर विद्या देवें। जो जितेन्द्रिय सत्यवादी होते हैं, उन्हीं को विद्या प्राप्त होती है। जो विद्या और शरीर बलों से शत्रुओं के साथ युद्ध करते हैं, उनका कैसे पराजय हो ? ॥ ३ ॥

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    विषय

    जेता, श्रोता, प्रभर्ता, उद्यन्ता

    पदार्थ

    १. (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (नृभिः) = आगे ले-चलनेवाले प्राणों के द्वारा-इनकी साधना [प्राणायाम] से जेता-विजयशील बनता है। (पृत्सु) = संग्रामों में (शूरः) = वासनाओं को शीर्ण करनेवाला होता है। (नाधमानस्य) = सम्पूर्ण ब्रह्माण्डरूप ऐश्वर्यवाले (कारो:) = कुशल कर्ता की (हवम्) = प्रेरणा को श्रोता सुननेवाला होता है। हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा को सुनकर उसके अनुसार कार्यों को करनेवाला होता है। २. अपने इस (रथम्) = शरीर-रथ को (दाशुष:) = महान् दाता प्रभु के उपाके समीप (प्रभर्ता) = ले-चलनेवाला बनता है (च) = और (यदि) = यदि (त्मना भूत्) = उस आत्मतत्त्व के साथ होता है—प्रभु के समीप पहुँचने में कुछ समर्थ होता है तो (गिरः) = ज्ञान की वाणियों को उद्यन्ता अपने में उन्नत करता है । वस्तुतः प्रभु से ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ होता है, इसके अन्दर ज्ञान का स्रोत उमड़ पड़ता है।

    भावार्थ

    भावार्थ – वासनाओं को जीतकर हम प्रभु की प्रेरणा को सुनें, प्रभु के अधिक समीप होते चलें । अन्ततः शरीर- रथ को प्रभु के समीप ले चलें और प्रभु की ज्ञानवाणियों को सुननेवाले बनें।

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    विषय

    उत्तम स्वामी राजा के प्रजा के प्रति कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( नाधमानस्य ) शरण याचना करने वाले ( कारोः ) कार्य कर्त्ता विद्वान् जनों के ( हवं ) ग्रहण करने योग्य वचनों का (श्रोता) सुननेवाला ( पृत्सु ) संग्रामों में ( शूरः ) शूरवीर ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान्, शत्रुहन्ता राजा सदा ( नृभिः ) अपने नायकों सहित (जेता) विजय करने वाला होकर ( यदि च ) जब भी ( त्मना ) अपने सामर्थ्य से ( दाशुषः ) दानशील, करप्रद राष्ट्र के ( उपाके ) समीप ( गिरः उद्यन्ता ) उत्तम आज्ञाओं को उठाने में समर्थ होता है तभी वह ( रथं ) रथ सैन्य को लेकर ( प्रभर्त्ता स्यात् ) शत्रु पर प्रहार करने वाला भी हो । अथवा ( दाशुषः प्र भर्त्ता भूत्) देने वाले राष्ट्र का उत्तम भरण पोषण करने में समर्थ होता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः–१, २ भुरिक् पङ्क्तिः । ३, ४ निचृत् त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् । २ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो विद्येची याचना करतो त्याला निरंतर विद्या द्यावी. जे जितेंद्रिय सत्यवादी असतात त्यांनाच विद्या प्राप्त होते. जे विद्या व शरीरबलाने शत्रूंबरोबर युद्ध करतात त्यांचा पराजय कसा होईल? ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Great is Indra, mighty brave, victor in battles of life for progress, listener to the artists and scientists, demands and requests for grants and success, mover of the generous giver’s chariot loaded with gifts and replenishments, and high fructifier of the devotee’s prayers provided that everything is prayed for and pursued with sincerity of mind and soul.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Significance of learning is underlined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The Indra (Commander of the Army) annihilates the enemies, and is finally the victor in battle along with other leaders and men, upholding of the good knowledge. When he listens to the invocation of the supplicant of the good deeds and his unquestionable knowledge, he will take his chariot in the battlefield and will certainly become victorious.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Knowledge must be imparted to those persons who seek it. It is only the truthful persons of self-control who should acquire the knowledge. How can those persons get defeated, who are possessed of knowledge and physical power and who fight bravely with their foes.

    Foot Notes

    (हवम्) आदातुम् अहं विद्याबोधम् = Acceptable knowledge or invocation. (उपाके) समीपे = Near.

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