ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 18/ मन्त्र 9
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - सदसस्पतिर्नराशंसो वा
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
नरा॒शंसं॑ सु॒धृष्ट॑म॒मप॑श्यं स॒प्रथ॑स्तमम्। दि॒वो न सद्म॑मखसम्॥
स्वर सहित पद पाठनरा॒शंस॑म् । सु॒धृष्ट॑मम् । अप॑श्यम् । स॒प्रथः॑ऽतमम् । दि॒वः । न । सद्म॑ऽमखसम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
नराशंसं सुधृष्टममपश्यं सप्रथस्तमम्। दिवो न सद्ममखसम्॥
स्वर रहित पद पाठनराशंसम्। सुधृष्टमम्। अपश्यम्। सप्रथःऽतमम्। दिवः। न। सद्मऽमखसम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 18; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 35; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 35; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।
अन्वयः
अहं सूर्य्यादिप्रकाशान् सद्ममखसमिव सप्रथस्तमं सुधृष्टमं नराशंसं सदसस्पतिं परमेश्वरमपश्यं पश्यामि तथैव यूयमपि कुरुत॥९॥
पदार्थः
(नराशंसम्) नरैरवश्यं स्तोतव्यस्तम्। नराशंसो यज्ञ इति कात्थक्यो नरा अस्मिन्नासीनाः शंसन्त्यग्निरिति शाकपूणिर्नरैः प्रशस्यो भवति। (निरु०८.६) (सुधृष्टमम्) सुष्ठु सकलं जगद्धारयति सोऽतिशयितस्तम् (अपश्यम्) पश्यामि। अत्र लडर्थे लङ्। (सप्रथस्तमम्) यः प्रथोभिर्विस्तृतैराकाशादिभिस्सहाभिव्याप्तो वर्त्तते सोऽतिशयितस्तम् (दिवः) सूर्य्यादिप्रकाशान् (न) इव (सद्ममखसम्) सीदन्ति यस्मिन् तत्सद्म जगत् तन्मखः प्राप्तं यस्मिन्निति॥९॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। अत्र सप्तममन्त्रात् ‘सदसस्पति’रिति पदमनुवर्तते। यथा मनुष्यः सर्वतो विस्तृतं सूर्य्यादिप्रकाशं पश्यति, तथैव सर्वतोऽभिव्याप्तं ज्ञानप्रकाशं परमेश्वरं ज्ञात्वा विस्तृतसुखो भवतीति॥९॥पूर्वेण सप्तदशसूक्तार्थेन मित्रावरुणाभ्यां सहानुयोगित्वादत्र बृहस्पत्याद्यर्थानां प्रतिपादनादष्टादशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपदेशनिवासिभिर्विलसनादिभिश्चान्यथैव व्याख्यातम्॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-
पदार्थ
मैं (न) जैसे आकाशमय सूर्य्यादिकों के प्रकाश से (सद्ममखसम्) जिसमें प्राणी स्थिर होते और जिसमें जगत् प्राप्त होता है, (सप्रथस्तमम्) जो बड़े-बड़े आकाश आदि पदार्थों के साथ अच्छी प्रकार व्याप्त (सुधृष्टमम्) उत्तमता से सब संसार को धारण करने (नराशंसम्) सब मनुष्यों को अवश्य स्तुति करने योग्य पूर्वोक्त (सदसस्पतिम्) सभापति परमेश्वर को (अपश्यम्) ज्ञानदृष्टि से देखता हूँ, वैसे तुम भी सभाओं के पति को प्राप्त होके न्याय से सब प्रजा का पालन करके नित्य दर्शन करो॥९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। इस मन्त्र में सातवें मन्त्र से सदसस्पतिम् इस पद की अनुवृत्ति जाननी चाहिये। जैसे मनुष्य सब जगह विस्तृत हुए सूर्य्यादि के प्रकाश को देखता है, वैसे ही सब जगह व्याप्त ज्ञान प्रकाशरूप परमेश्वर को जानकर सुख के विस्तार को प्राप्त होता है॥९॥पूर्व सत्रहवें सूक्त के अर्थ के साथ मित्र और वरुण के साथ अनुयोगी बृहस्पति आदि अर्थों के प्रतिपादन से इस अठारहवें सूक्त के अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये। यह भी सूक्त सायणाचार्य्य आदि और यूरोपदेशवासी विलसन आदि ने कुछ का कुछ ही वर्णन किया है॥
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
अहं सूर्य्य आदि प्रकाशान् सद्ममखसम् इव सप्रथस्तं सुधृष्टमम् नराशंसं सदसस्पतिं परमेश्वरम् अपश्यम् (पश्यामि) तथैव यूयमपि कुरुत ॥९॥
पदार्थ
(अहम्)=मैं, (सूर्य्य)=सूर्य, (आदि)=आदि, (प्रकाशान्)=प्रकाशों का, (सद्ममखसम्) सीदन्ति यस्मिन् तत्सद्म जगत् तन्मखः प्राप्तं=जिस यज्ञीय स्थान में जगत् के प्राणी स्थित हो जाते हैं, (इव) जो ऐसा है, (सप्रथस्तम्) यः प्रथोभिर्विस्तृतैराकाशादिभिस्सहाभिव्याप्तो वर्तते सो ऽ तिशयितस्तम्=जो विस्तारित आकाश आदि के साथ व्याप्त है, (सुधृष्टमम्) सुष्ठु सकलं जगद्वारयति सो ऽ तिशयितस्तम्= जो विस्तारित आकाश आदि के साथ व्याप्त, शोभायमान् स्थान है, जिसमें जगत् व्याप्त हो रहा है, (नराशंसम्) नरैरवश्यं स्तोतव्यस्तम्=सब मनुष्यों के द्वारा स्तुति किए जाने योग्य, (सदसः) सीदन्ति विद्वांसो घार्मिका न्यायाधीशा यस्मिन् तद्= वह सभा जिसमें विद्वान्, घार्मिक और न्यायाधीश उपस्थित हों, (पतिम्) स्वामिनम्=स्वामी, (परमेश्वरम्)=परमेश्वर, (अपश्यम्) पश्यामि=देखता हूँ, (तथैव)=उसी प्रकार, (यूयम्)=तुम सब, (अपि)=भी, (कुरुत)=करो ॥९॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
पूर्व सत्रहवें सूक्त के अर्थ के साथ मित्र और वरुण के साथ अनुयोगी बृहस्पति आदि अर्थों के प्रतिपादन से इस अठारहवें सूक्त के अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये। इस सूक्त में भी सायणाचार्य्य आदि और यूरोपदेशवासी विलसन आदि ने कुछ का कुछ ही वर्णन किया है॥९॥
विशेष
भावार्थ- इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। इस मनात्र में सातवें मन्त्र से सदसस्पतिम् इस पद की अनुवृत्ति जाननी चाहिये। जैसे मनुष्य सब जगह विस्तृत हुए सूर्य्यादि के प्रकाश को देखता है, वैसे ही सब जगह व्याप्त ज्ञान प्रकाशरूप परमेश्वर को जानकर सुख के विस्तार को प्राप्त होता है॥९॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(अहम्) मैं (सूर्य्य) सूर्य (आदि) आदि (प्रकाशान्) प्रकाशित करने वाले ग्रहों को (सद्ममखसम्) जिस यज्ञीय स्थान में जगत् के प्राणी स्थित हो जाते हैं, (इव) जो ऐसा है। (सप्रथस्तम्) जो विस्तारित आकाश आदि में व्याप्त है। (सुधृष्टमम्) जो इसमें व्याप्त होने के साथ ही शोभायमान् स्थान है, जिसमें जगत् विस्तारित हो रहा है। (नराशंसम्) सब मनुष्यों के द्वारा स्तुति किए जाने योग्य (सदसः) वह सभा जिसमें विद्वान्, घार्मिक और न्यायाधीश आदि उपस्थित हों। (पतिम्) इसके स्वामी (परमेश्वरम्) परमेश्वर (अपश्यम्) को देखता हूं, (तथैव) उसी प्रकार (यूयम्) तुम सब (अपि) भी (कुरुत) करो अर्थात् देखो॥९॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (नराशंसम्) नरैरवश्यं स्तोतव्यस्तम्। नराशंसो यज्ञ इति कात्थक्यो नरा अस्मिन्नासीनाः शंसन्त्यग्निरिति शाकपूणिर्नरैः प्रशस्यो भवति। (निरु०८.६) (सुधृष्टमम्) सुष्ठु सकलं जगद्धारयति सोऽतिशयितस्तम् (अपश्यम्) पश्यामि। अत्र लडर्थे लङ्। (सप्रथस्तमम्) यः प्रथोभिर्विस्तृतैराकाशादिभिस्सहाभिव्याप्तो वर्त्तते सोऽतिशयितस्तम् (दिवः) सूर्य्यादिप्रकाशान् (न) इव (सद्ममखसम्) सीदन्ति यस्मिन् तत्सद्म जगत् तन्मखः प्राप्तं यस्मिन्निति॥९॥
विषयः- पुन: कीदृश इत्युपदिश्यते।
अन्वयः- अहं सूर्य्यादिप्रकाशान् सद्ममखसमिव सप्रथस्तमं सुधृष्टमं नराशंसं सदसस्पतिं परमेश्वरमपश्यं पश्यामि तथैव यूयमपि कुरुत ॥महर्षिकृत:॥९॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। अत्र सप्तममन्त्रात् 'सदसस्पति'रिति पदमनुवर्तते। यथा मनुष्यः सर्वतो विस्तृतं सूर्य्यादिप्रकाशं पश्यति, तथैव सर्वतोऽभिव्याप्तं ज्ञानप्रकाशं परमेश्वरं ज्ञात्वा विस्तृतसुखो भवतीति॥९॥
सूक्तस्य भावार्थः- पूर्वेण सप्तदशसूक्तार्थेन मित्रावरुणाभ्यां सहानुयोगित्वादत्र बृहस्पत्याद्यर्थानां प्रतिपादनादष्टादशसूक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। इदमपि सूक्तं सायणाचार्य्यादिभिर्यूरोपदेशनिवासिभिर्विलसनादिभिश्चान्यथैव व्याख्यातम्॥९॥
विषय
प्रभु - दर्शन
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार 'होत्रा देवेषु गच्छति' होता बनने के द्वारा - दानपूर्वक अदन करनेवाला 'हविष्कृति' बनने से मनुष्य देवत्व को प्राप्त होता है । यह हविष्कृति कहता है कि मैं अधिकाधिक देवत्व को प्राप्त होता हुआ अन्ततः उस प्रभु का (अपश्यम्) - साक्षात्कार करता हैं , जो प्रभु (नराशंसम्) - सब उन्नति के पथ पर बढ़नेवाले पुरुषों से शंसन के योग्य हैं । वस्तुतः प्रभु - शंसन से ही उन्नति होती है ।
२. (सुधृष्टमम्) - जो प्रभु [शोभनं धृष्णोति] उत्तमता से शत्रुओं का धर्षण करनेवाले हैं । हम प्रभु का शंसन करते हैं तो वे प्रभु हमारी कामादि वासनाओं को नष्ट करते हैं । जहाँ प्रभु - शंसन चलता है वहाँ वासनाओं का दहन हो जाता है ।
३. (सप्रथस्तमम्) - वे प्रभु अत्यन्त विस्तारवाले हैं [प्रथ विस्तारे] । हम जितना - जितना अपने हृदयों को विस्तृत करते हैं , उतना - उतना पवित्र होते जाते हैं ४. दिवो न - प्रकाश की भौति वे प्रभु सबमखसम् - [सद्म - घर , मख - यज्ञ] यज्ञरूपगृहवाले हैं अर्थात् उस प्रभु का निवास दो स्थानों पर होता है - एक जहाँ ज्ञान का प्रकाश हो और दूसरे जहाँ जीवन यज्ञमय हो । यदि हम ज्ञान को प्राप्त करते और यज्ञों को अपनाते हैं तो हम प्रभु के निवासस्थान बनते हैं , तब हम प्रभु का साक्षात्कार कर रहे होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - हम देवत्व को प्राप्त होते हुए प्रभु का दर्शन करनेवाले बनें ।
विशेष / सूचना
विशेष - सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से होता है कि ज्ञानी आचार्य हमें 'सौम्य , गतिशील , दृढनिश्चयी व मेधावी बनाए [१] । आचार्य 'अदरिद्र , नीरोग , उत्तम निवासवाले , सब दृष्टिकोणों से पुष्ट व आलस्यशून्य हों [२] । वे हमें उपद्रवी पुरुषों की मिथ्या बातों से बचाएँ [३] , हममें जितेन्द्रियता , ज्ञान व सौम्यता को उत्पन्न करें [४] । ज्ञान , जितेन्द्रियता , सौम्यता व दानवृत्ति हमें पाप से बचाएँ [५] । प्रभु से हम मेधा की ही याचना करें [६] । प्रभु की कृपा से ही हमारे यज्ञ पूर्ण होते हैं [७] । यज्ञमय जीवनवाले को प्रभु बढ़ाते हैं [८] । तब हम देव बनते हुए अन्ततः प्रभु - दर्शन करनेवाले होते हैं [९] । 'ये प्रभु हमें क्या प्रेरणा देते है?' इस कथन से अगला सूक्त प्रारम्भ होता है -
विषय
नाराशंस सर्वस्तुत्य परमेश्वर ।
भावार्थ
मैं (नराशसं) समस्त मनुष्यों के प्रशंसा और स्तुति करने योग्य परमेश्वर को ही ( सुधृष्टमम् ) सबसे अधिक अच्छी प्रकार से ब्रह्माण्ड को धारण करने वाला और (सप्रथस्तमम्) अति विस्तृत आकाश, काल, दिशा आदि पदार्थों के साथ, उनके समान ही व्यापक और ( दिवं न ) सूर्यादि प्रकाशवान् लोकों के समान (सद्ममखसम्) सबके आश्रय होकर तेज प्रकाश से युक्त अथवा—( दिवः सद्ममखसं न ) महान् आकाश और सूर्य के भी महान् आश्रय गृह के समान ( अपश्यम् ) देखता हूं, जानता हूं । अर्थात् परमेश्वर ही जगत् को सबसे उत्तम रीति से धारण कराता है, वही आकाशादि पदार्थों में सबसे अधिक व्यापक है । वह समस्त तेजस्वी पदार्थों का आश्रय रूप तेज अर्थात् सबका प्रकाशक, उत्पादक और आश्रय गृह के समान है । वही सब मनुष्यों के स्तुति करने योग्य है । राजा के पक्ष में—राष्ट्र के उत्तम धारक, सबसे अधिक विस्तृत यशस्वी, सूर्य के समान सर्वाश्रय, तेजस्वी पुरुष को ( नराशसं ) सर्वस्तुत्य पद के योग्य प्रजापालक जानता हूं । इति पञ्चत्रिंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषि मेधातिथिः काण्वः । देवता—१-३ ब्रह्मणस्पतिः । ४ ब्रह्मणस्पतिरिन्द्रश्च सोमश्च । ५ बृहस्पतिदक्षिणे । ६—८ सदसस्पतिः । ९ सदस्स पतिर्नाराशंसोवा गायत्री ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे माणूस सर्वत्र विस्तारलेल्या सूर्याचा प्रकाश पाहतो तसेच सर्व ठिकाणी व्याप्त असलेल्या ज्ञानप्रकाशरूपी परमेश्वराला जाणून अत्यंत सुख प्राप्त करतो. ॥ ९ ॥
टिप्पणी
या मंत्रात सातव्या मंत्रातून ‘सदसदस्पतिम्’ या पदाची अनुवृत्ती जाणली पाहिजे. ॥ या सूक्ताचेही सायणाचार्य इत्यादी व युरोपदेशवासी विल्सन इत्यादींनी वेगळेच वर्णन केलेले आहे.
इंग्लिश (3)
Meaning
I see like the light of the sun the holy presence of Divinity, adored of humanity, most resolute wielder of the universe, of infinite expanse and prime yajamana as well as the home of the yajna of creation.
Subject of the mantra
Then, how that is, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(aham)=I, (sūryya)=sun, (ādi)=etc, (prakāśān)=illuminating planets, (sadmamakhasam)= place fit for oblation where living beings of universe are located, (yasminniti)=which is like this, (iva)=like, (saprathastam)=which is pervading in expanded sky, (sudhṛṣṭamam)=which, along with pervasion in it, is a beautiful place, in which the universe is spreading, (narāśaṃsam)=praiseworthy by all human beings, (sadasaḥ)=Assembly in which scholars, righteous persons and judges etc. turn out to be, (patim)=its owner, (parameśvaram)=God, (apaśyam)=I see, (tathaiva)=in the same way, (yūyam)=you all, (api)=also, (kuruta)= do that means see.
English Translation (K.K.V.)
I see Sun etc. illuminating planets, in such yajñīya place (place suitable for yajan) where living beings of universe are located, which is like this, pervading in expanded sky, which, along with the pervasion in it, the same is a beautiful place in which the universe is spreading. Praiseworthy by all human beings, that assembly in which scholars, righteous persons and judges etc. turn out to be, its owner is God. In the same way, you all also do, that means see the God.
Footnote
Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- The association of the meaning of this eighteenth hymn with the meaning of the previous seventeenth hymn should be known from the interpretation of the translation of Mitra aura Varuṇa with the What combines with Bṛhaspati etc. Even in this hymn, Sayanacharya etc. and European scholars Wilson etc. have described differently.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. From this seventeenth hymn one should know that there is continued influence of the term ‘Sadaspatim’ from the previous mantra. Just as a man sees the light of the Sun which is spread everywhere, in the same way, knowledge is pervading everywhere, knowing the God one attains the expansion of happiness.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What sort of Yajna is taught in the ninth Mantra-
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As a man sees the light of the sun, so I (a wise devotee) see God who is to be glorified by all men, who is the Resolute upholder of the world and who is present with the vast heavens being all-pervading in whom all this Universe (which is like a Yajna), dwells. You (ordinary persons) should also try to realize God in the same way.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(नराशंसम् ) नरैः अवश्यं स्तोतव्यम्-नरैः प्रशस्यो भवतीति नराशंस: (निरुक्ते १०८.८.६ ) = To be praised by men. (सुधृष्टमम् ) सुष्टु जगद् धारयति सोऽतिशयितः तम् (सप्रथमस्तमम् ) यः प्रथोभिः - विस्तृतैः आकाशादिभिः सह अभिव्याप्तो वर्तते सः अतिशयितस्तम् ||= All-pervading. Here ends the commentary on the eighteenth hymn of the first Mandala of Rigveda Sanhita.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankar (simile) used in the Mantra. As an ordinary man sees the light of the sun pervading on all sides, in the same manner, he attains grand happiness and joy by seeing omnipresent God who possesses the light of knowledge on all sides. This hymn is connected with the previous hymn as by the mention of Brihaspati etc. the same subject is continued. This hymn also has been misinterpreted by Sayanacharya, Prof. Wilson and others.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Manuj Sangwan
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal