ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 181/ मन्त्र 2
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ वा॒मश्वा॑स॒: शुच॑यः पय॒स्पा वात॑रंहसो दि॒व्यासो॒ अत्या॑:। म॒नो॒जुवो॒ वृष॑णो वी॒तपृ॑ष्ठा॒ एह स्व॒राजो॑ अ॒श्विना॑ वहन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठआ । वा॒म् । अश्वा॑सः । शुच॑यः । प॒यः॒ऽपाः । वात॑ऽरंहसः । दि॒व्यासः॑ । अत्याः॑ । म॒नः॒ऽजुवः॑ । वृष॑णः । वी॒तऽपृ॑ष्ठाः । आ । इ॒ह । स्व॒ऽराजः॑ । अ॒श्विना॑ । व॒ह॒न्तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वामश्वास: शुचयः पयस्पा वातरंहसो दिव्यासो अत्या:। मनोजुवो वृषणो वीतपृष्ठा एह स्वराजो अश्विना वहन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठआ। वाम्। अश्वासः। शुचयः। पयःऽपाः। वातऽरंहसः। दिव्यासः। अत्याः। मनःऽजुवः। वृषणः। वीतऽपृष्ठाः। आ। इह। स्वऽराजः। अश्विना। वहन्तु ॥ १.१८१.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 181; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे विद्वांसौ येऽश्वासः शुचयः पयस्पा दिव्यासो वातरंहसो मनोजुवो वृषणो वीतपृष्ठा स्वराजो अत्या आ सन्ति त इव वामश्विनाऽऽवहन्तु ॥ २ ॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (वाम्) युवयोः (अश्वासः) शीघ्रगामिनः (शुचयः) पवित्राः (पयस्याः) पयस उदकस्य पातारः (वातरंहसः) वातस्य रंहो गमनमिव गमनं येषान्ते (दिव्यासः) (अत्याः) सततगमनाः (मनोजुवः) मनसइव जूर्वेगो येषान्ते (वृषणः) शक्तिबन्धकाः (वीतपृष्ठाः) वीतं व्याप्तं पृष्ठं पृथिव्यादितलं यैस्ते (आ) अभितः (इह) अस्मिन् संसारे (स्वराजः) स्वयं राजमानाः (अश्विना) वायुविद्युदिव वर्त्तमानौ (वहन्तु) प्राप्नुवन्तु ॥ २ ॥
भावार्थः
विद्वांसो यान् विद्युदादिपदार्थान् गुणकर्मस्वभावतो विजानीयुस्तानन्येभ्योऽप्युपदिशन्तु यावन्मनुष्याः सृष्टिपदार्थविद्या न जानन्ति तावदखिलं सुखन्नाप्नुवन्ति ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे विद्वानो ! जो (अश्वासः) शीघ्रगामी घोड़े (शुचयः) पवित्र (पयस्पाः) जल के पीनेवाले (दिव्यासः) दिव्य (वातरंहसः) पवन के समान वेग वा (मनोजुवः) मनोवद्वेगवाले (वृषणः) परशक्ति बन्धक (वीतपृष्ठाः) जिन्हों से पृथिवी तल व्याप्त (स्वराजः) जो आप प्रकाशमान (अत्याः) निरन्तर जानेवाले (आ) अच्छे प्रकार हैं वे (इह) इस स्थान में (वाम्) तुम (अश्विना) अध्यापक और उपदेशकों को (आ, वहन्तु) पहुँचावें ॥ २ ॥
भावार्थ
विद्वान् जन जिन बिजुली आदि पदार्थों को गुण, कर्म, स्वभाव से जानें उनका औरों के लिये भी उपदेश देवें। जबतक मनुष्य सृष्टि की पदार्थविद्या को नहीं जानते, तबतक संपूर्ण सुख को नहीं प्राप्त होते हैं ॥ २ ॥
विषय
कैसे इन्द्रियाश्व
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो! (वाम्) = आपके वे (अश्वासः) = इन्द्रियरूप (अश्व इह) = यहाँजीवन-यज्ञ में (आवहन्तु) = आपको [वह सब] प्राप्त कराएँ जो कि (शुचयः) = पवित्र हैं, जिनके द्वारा अपवित्र मार्ग से धन नहीं कमाया जाता, (पयस्पा:) = जो रेतः कणरूप जलों का पान करनेवाले हैं, विषयों में न फँसकर जो शक्ति का शरीर में ही रक्षण करनेवाले हैं, (वातरंहसः) = वायु के समान वेगवाले हैं, शक्तिसम्पन्न होने के कारण जिनके वेग में न्यूनता नहीं (दिव्यासः) = जो ज्ञानेन्द्रियरूप अश्व प्रकाश में विचरण करनेवाले हैं तथा (अत्याः) = कर्मेन्द्रियों के रूप में निरन्तर यज्ञादि कर्मों में गतिवाले हैं (अत सातत्यगमने) । २. प्राणापान ऐसे इन्द्रियाश्वों से हमारे जीवनयज्ञ में आएँ जो कि (मनोजुवः) = मन के समान वेगवाले हैं, (वृषण:) = शक्तिशाली हैं तथा (वीतपृष्ठाः) = कान्त पृष्ठवाले हैं अर्थात् तेजस्वी हैं और सबसे बड़ी बात यह कि (स्वराजः) = स्वयमेव राजमान हैं, विषयों के पराधीन नहीं हो गये। विषयों के अधीन न होने के कारण ही 'स्व' को, आत्मतत्त्व को प्रकाशित करनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से इन्द्रियाँ निर्दोष बनती हैं और ये निर्दोष इन्द्रियाँ हमें आत्मतत्त्व की ओर ले जाती हैं।
विषय
उत्तम स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे (अश्विनौ ) अश्वों और विद्वानों के स्वामी राजस्त्री-पुरुषो ! ( वाम् ) आप दोनों के अधीन ( शुचयः ) शुद्ध पवित्र, आचार वाले, ( पयस्पाः ) शुद्ध जल और पुष्टि कारक दुग्ध आदि पान करने हारे, ( वातरंहसः ) वायु के समान वेग से जाने वाले,(दिव्यासः) दिव्य, विजयशील, ( अत्याः ) शत्रु की सीमा को अतिक्रमण कर वेग से आक्रमण करने वाले, (मनोजुवः) मन के वेग के समान वेग वाले, (वृषणः) बलवान् (वीतपृष्ठाः) सुरक्षित पीठ वाले, कवचधारी, वीर और विद्वान् पुरुष ( स्वराजः ) स्वयं सूर्य समान प्रकाशमान होकर, ( अश्विना ) अश्व अर्थात् राष्ट्र के स्वामी राजा रानी या राजा राजसभा उनको ( इह ) इस राष्ट्र में ( आ वहन्तु ) धारण करें, वे अश्वों के समान उन दोनों को सन्मार्ग पर ले जावें (२) अध्यात्म में—अश्वी मन और आत्मा हैं। उनके अश्व प्राण गण हैं। वे मन के वेग से चलते और स्व = आत्मा की चेतना से प्रकाशित हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः- १, ३ विराट् त्रिष्टुप । २, ४, ६, ७, ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । ५ त्रिष्टुप ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वान लोक ज्या विद्युत इत्यादी पदार्थांचे गुण, कर्म, स्वभाव जाणतात त्याचा त्यांनी इतरांनाही उपदेश करावा. जोपर्यंत माणसे सृष्टीच्या पदार्थविद्येला जाणत नाहीत तोपर्यंत संपूर्ण सुख प्राप्त करू शकत नाहीत. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, powers of might and majesty, may your horses, pure unsullied, living on drink of milk and water, moving as winds, brilliant and divine, fast as the speed of mind, strong and virile, carriers like the back of the earth, brilliant with their own lustre bear you here.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The knowledge of substances leads men to happiness.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons ! the horses ( in the form of electricity fires etc.) which are speedy, of pure breed, drinkers of clean water, swift as the wind, divine, quick-moving like the mind of a man, vigorous, well-backed and self-irradiating, may they bring you hither to the site of Yajna etc. You are benevolent like the air and electricity.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Learned persons should teach the attributes and functions of energy and other substances. Until men know the science of the nature of the articles of the world, they can not enjoy all happiness.
Foot Notes
(अश्वास:) शीघ्रगामिनः = Speedy. ( मनोजुव:) मनस: इव जूवेंगो येषान्ते = Fast as the mind of a man. ( अश्विना ) वायुविधुदिव वर्तमानो = Behaving like the air and electricity.
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