ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 185/ मन्त्र 11
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - द्यावापृथिव्यौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इ॒दं द्या॑वापृथिवी स॒त्यम॑स्तु॒ पित॒र्मात॒र्यदि॒होप॑ब्रु॒वे वा॑म्। भू॒तं दे॒वाना॑मव॒मे अवो॑भिर्वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । स॒त्यम् । अ॒स्तु॒ । पितः॑ । मातः॑ । यत् । इ॒ह । उ॒प॒ऽब्रु॒वे । वा॒म् । भू॒तम् । दे॒वाना॑म् । अ॒व॒मे इति॑ । अवः॑ऽभिर् । वि॒द्याम॑ । इ॒षम् । वृ॒जन॑म् । जी॒रऽदा॑नुम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इदं द्यावापृथिवी सत्यमस्तु पितर्मातर्यदिहोपब्रुवे वाम्। भूतं देवानामवमे अवोभिर्विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥
स्वर रहित पद पाठइदम्। द्यावापृथिवी इति। सत्यम्। अस्तु। पितः। मातः। यत्। इह। उपऽब्रुवे। वाम्। भूतम्। देवानाम्। अवमे इति। अवःऽभिर्। विद्याम। इषम्। वृजनम्। जीरऽदानुम् ॥ १.१८५.११
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 185; मन्त्र » 11
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 6
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथात्र सत्यमात्रोपदेशविषयमाह ।
अन्वयः
हे द्यावापृथिवी इव वर्त्तमाने मातः पितो देवानामवमे भूतं यदिह वामुपब्रुवे तदिदं सत्यमस्तु येन वयं युवयोरवोभिरिषं वृजनं जीरदानुं च विद्याम ॥ ११ ॥
पदार्थः
(इदम्) जगत् (द्यावापृथिवी) विद्युदन्तरिक्षे (सत्यम्) (अस्तु) (पितः) पालक (मातः) मान्यप्रदे (यत्) (इह) (उपब्रुवे) (वाम्) युवाम् (भूतम्) निष्पन्नम् (देवानाम्) विदुषाम् (अवमे) रक्षितव्ये व्यवहारे (अवोभिः) पालनैः (विद्याम) (इषम्) (वृजनम्) (जीरदानुम्) ॥ ११ ॥
भावार्थः
पितरः सन्तानान् प्रत्येवमुपदिशेयुर्यान्यस्माकं धर्म्याणि कर्माणि तान्येव युष्माभिः सेवनीयानि नो इतराणि सन्तानाः पितॄन् प्रत्येवं वदन्तु यान्यस्माकं सत्याचरणानि तान्येव युष्माभिराचरितव्यानि नातो विपरीतानि ॥ ११ ॥अत्र द्यावापृथिवीदृष्टान्तेन जन्याजनककर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥इति पञ्चाशीत्युत्तरं शततमं सूक्तं तृतीयो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब चलते हुए विषय में सत्यमात्र के उपदेश विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (द्यावापृथिवी) आकाश और पृथिवी के समान वर्त्तमान (मातः, पितः) माता पिताओ ! (देवानाम्) विद्वानों के (अवमे) रक्षादि व्यवहार में (भूतम्) उत्पन्न हुए (यत्) जिस व्यवहार से (इह) यहाँ (वाम्) तुम्हारे (उपब्रुवे) समीप कहता हूँ (तत्) सो (इदम्) यह (सत्यम्) सत्य (अस्तु) हो जिससे हम तुम्हारी (अवोभिः) पालनाओं से (इषम्) इच्छासिद्धि (वृजनम्) बल और (जीरदानुम्) जीवन को (विद्याम) प्राप्त होवें ॥ ११ ॥
भावार्थ
माता-पिता जब सन्तानों के प्रति ऐसा उपदेश करें कि जो हमारे धर्मयुक्त कर्म हैं, वे ही तुमको सेवने चाहियें और नहीं तथा सन्तान पिता-माता आदि अपने पालनेवालों से ऐसे कहें कि जो हमारे सत्य आचरण हैं, वे ही तुमको आचरण करने चाहियें और उनसे विपरीत नहीं ॥ ११ ॥इस सूक्त में द्यावापृथिवी के दृष्टान्त से उत्पन्न होने योग्य और उत्पादक के कर्मों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह एकसौ पचासीवाँ सूक्त और तीसरा वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
उज्ज्वल व दृढ़
पदार्थ
१. हे (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोको ! (इदं सत्यं अस्तु) = यह सत्य ही हो (यत्) = जो (इह) = यहाँ (पितः मात:) = हे पितृस्थानापन्न द्युलोक तथा मातृस्थानापन्न पृथिवीलोक ! (वाम्) = आपके प्रति (उपब्रुवे) = प्रार्थना करता हूँ। मैं इनसे जो प्रार्थना करता हूँ, वह अवश्य पूर्ण हो । मेरा मस्तिष्क द्युलोक की भाँति ज्ञान के सूर्य से उज्ज्वल हो और मेरा शरीर पृथिवी के समान दृढ़ हो । २. हे द्यावापृथिवी! आप (अवोभिः) = रक्षणों के द्वारा (देवानाम् अवमे भूतम्) = देववृत्तिवाले पुरुषों के [अवतम-अवम] अधिक-से-अधिक रक्षा करनेवाले होओ। इस प्रकार रक्षित होकर हम (इषम्) = प्रेरणा को, (वृजनम्) = पापवर्जन को तथा (जीरदानुम्) = दीर्घजीवन को (विद्याम) = प्राप्त करें ।
भावार्थ
भावार्थ - द्यावापृथिवी की अनुकूलता से हम उज्ज्वल मस्तिष्क व दृढ़ शरीर बनें ।
विषय
द्यावापृथिवी रूप से माता पिता के कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( द्यावा पृथिवी ) सूर्य और पृथिवी और उनके समान ( पितः मातः ) पिता और माता ! ( यत् इह ) जो भी मैं यहां इस लोक में (वाम् उप ब्रुवे) आप दोनों के सम्बन्ध में अन्यों को उपदेश करूं या आप दोनों को जो कुछ कहूं (इदं) वह (सत्यम् अस्तु) सत्य ही हो । आपके प्रति और आपके विषय में असत्य न कहूं । आप दोनों सदा (देवानाम्) विद्वानों और उत्तम गुणों के (अवोभिः) रक्षण आदि साधनों और गुणों से (अवमे) सदा समीप और आश्रयरूप होकर (भूतम्) रहो। जिससे हम सब लोग (इषं बृजनं जीरदानुम् विद्याम) अन्न, उत्साह, बल, और जीवन प्राप्त करें । इति तृतीयो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ द्यावापृथिव्यौ देवते॥ छन्दः- १, ६, ७, ८, १०, ११ त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
माता-पिता यांनी संतानांना असा उपदेश करावा की आमच्या धर्मयुक्त कर्मांचाच तुम्ही स्वीकार करा, इतर नव्हे व संतान पिता-माता इत्यादींनी आपल्या पालनकर्त्याला असे म्हणावे की जे आमचे सत्य आचरण आहे, त्याप्रमाणे तुम्ही वागा त्यापेक्षा वेगळे नाही. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May this word and voice of mine, O heaven and earth, be true. O father and mother, may this word that I speak in this yajna of celebration be true and fruitful. O divinities, be ever close to the nobilities of humanity in their business of life with favours and protections. And may we, we pray, be blest with food and energy of body, mind and soul, move ahead on the right path, and enjoy the breeze of life and the bliss of Divinity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The significance of simple and universal truth is underlined.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O father and mother ! you are like the heaven and earth or like electricity and firmament. May my this praise be true and fruitful, which has been uttered in this dealing of the enlightened persons. It has to protected. Be ever for your protection in the proximity of those who praise you, so that we may obtain good food, strength and long life.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
NA
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The parents should always tell children of their righteous dealings. They should initiate only the truthfuls. Similarly, the children also should act and say to their parents that you should accept only our truthful conduct and nothing adverse. (Save us from all undesirable false conduct).
Foot Notes
(द्यावापृथिवी) विद्युदन्तरिक्षे = Electricity and firmament. (अवमे) रक्षितव्ये व्यवहारे = In a dealing to be protected.
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