ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 185/ मन्त्र 3
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - द्यावापृथिव्यौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒ने॒हो दा॒त्रमदि॑तेरन॒र्वं हु॒वे स्व॑र्वदव॒धं नम॑स्वत्। तद्रो॑दसी जनयतं जरि॒त्रे द्यावा॒ रक्ष॑तं पृथिवी नो॒ अभ्वा॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ने॒हः । दा॒त्रम् । अदि॑तेः । अ॒न॒र्वम् । हु॒वे । स्वः॑ऽवत् । अ॒व॒धम् । नम॑स्वत् । तत् । रो॒द॒सी॒ इति॑ । ज॒न॒य॒त॒म् । ज॒रि॒त्रे । द्यावा॑ । रक्ष॑तम् । पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । नः॒ । अभ्वा॑त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अनेहो दात्रमदितेरनर्वं हुवे स्वर्वदवधं नमस्वत्। तद्रोदसी जनयतं जरित्रे द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात् ॥
स्वर रहित पद पाठअनेहः। दात्रम्। अदितेः। अनर्वम्। हुवे। स्वःऽवत्। अवधम्। नमस्वत्। तत्। रोदसी इति। जनयतम्। जरित्रे। द्यावा। रक्षतम्। पृथिवी इति। नः। अभ्वात् ॥ १.१८५.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 185; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
अहमदितेरनेहोऽनर्वं स्वर्वदवधं नमस्वद्दात्रं हुवे। हे रोदसी इव वर्त्तमानौ मातापितरौ तद्दात्रं जरित्रे मदर्थञ्जनयतम्। हे द्यावापृथिवीव वर्त्तमानौ माता-पितरौ नोऽस्मानभ्वाद्रक्षतम् ॥ ३ ॥
पदार्थः
(अनेहः) अहन्तव्यम् (दात्रम्) दानम् (अदितेः) पृथिव्याः सूर्यस्य वा (अनर्वम्) अविद्यमानाश्वम् (हुवे) स्वीकुर्वे (स्वर्वत्) सुखवत् (अवधम्) अमरणम् (नमस्वत्) नमः प्रशस्तमन्नं विद्यते यस्मिँस्तत् (तत्) (रोदसी) अहोरात्राविव (जनयतम्) (जरित्रे) स्तुतिकर्त्रे (द्यावा) (रक्षतम्) (पृथिवी) सूर्य्यभूमी (नः) अस्मान् (अभ्वात्) ॥ ३ ॥
भावार्थः
ये इमे भूमिसूर्य्योऽन्ये च प्रत्यक्षाः पदार्था दृश्यन्ते तेऽविनाशिनोऽनादेः कारणाज्जाता इति वेद्यम् ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
मैं (अदितेः) पृथिवी वा सूर्य के (अनेहः) न विनाशने योग्य (अनर्वम्) जिसमें अश्व का सम्बन्ध नहीं ऐसे (स्वर्वत्) सुखयुक्त तथा (अवधम्) जिसका नाश नहीं (नमस्वत्) जिसमें प्रशंसित अन्न विद्यमान उस (दात्रम्) दानपात्रमात्र का (हुवे) स्वीकार करता हूँ। हे (रोदसी) दिन रात्रि के समान वर्त्तमान माता-पिताओ ! (तत्) उस दान कर्म को (जरित्रे) स्तुति करते हुए मेरे लिये (जनयतम्) उत्पन्न करो। हे (द्यावापृथिवी) द्यावापृथिवी के समान वर्त्तमान माता-पिताओ ! (नः) हम लोगों को (अभ्वात्) अधर्म्म से (रक्षतम्) बचाओ ॥ ३ ॥
भावार्थ
जो ये भूमि सूर्य और प्रत्यक्ष पदार्थ दीखते हैं, वे अविनाशी अनादिकारण से हुए है, ऐसा जानना चाहिये ॥ ३ ॥
विषय
निष्पाप, अक्षीण, प्रकाशमय, नम्र, नीरोग
पदार्थ
१. (अदितेः) = अदीना देवमाता का [नि० ४।२२] (दात्रम्) = दान (अनेहः) = पाप से रहित है, (अनर्वम्) = क्षीणता से शून्य है, (स्वर्वत्) = प्रकाशमय व स्वर्गलोक को देनेवाला है, (अवधम्) = वध से शून्य है। 'अनर्वम्' शब्द यदि मानस विकारों को न आने देने का संकेत करता है तो 'अवधम्' शरीर के रोगों से शून्य होने का भाव दे रहा है। यह अदिति का दान (नमस्वत्) = नमस्वाला है, प्रभु के प्रति नमन की भावना से युक्त है। २. (तत्) = उस अदीना देवमाता के दान को (रोदसी) = द्यावापृथिवी (जरित्रे) = स्तोता के लिए (जनयतम्) = उत्पन्न करें। द्यावापृथिवी की अनुकूलता से हम 'निष्पाप, अक्षीण, प्रकाशमय, नीरोग व नम्र' बनें। इस प्रकार (द्यावापृथिवी) = ये द्युलोक और पृथिवीलोक (न:) = हमें (अभ्वात्) = बड़ी भारी आपत्ति से (रक्षतम्) = बचाएँ । ब्रह्माण्ड के सब देव हमारे इस प्रकार अनुकूल हों कि हम निष्पाप जीवनवाले हों ।
भावार्थ
भावार्थ- अदिति हमें निष्पाप, अक्षीण, प्रकाशमय, नीरोग व नम्र बनाए ।
विषय
द्यावापृथिवी रूप से माता पिता के कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
जिस प्रकार आकाश और पृथिवी दोनों का ( दात्रं ) जीवों के प्रति प्रकाश, वायु, जल, जीवनोपयोगी अन्नादि का दान ( अदितेः ) उस अखण्ड आकाश, सूर्य, अन्तरिक्ष और पृथिवी से ही उत्पन्न होता और वह ( अनर्वं ) अविनाशी, (अवधं) पीड़ा न देने वाला, (नमस्वत्) अन्नादि से सम्पन्न, ( स्वर्वत् ) सुखजनक, ( अनेहः ) निष्काम, निष्पाप होता है उसी प्रकार ( अदितेः ) अखण्ड शासन,अखण्ड चरित्रवान् माता पिता का भी ( दात्रम् ) दिया हुआ जीवन और धन ( अनेहः ) निष्पाप, (अनर्वम्) अक्षय, ( अवधं ) वध आदि द्वारा जीवन नाश के संकटों से रहित, बिना किसी का वध किये ही प्राप्त होने वाला, ( नमस्वत् ) अन्न, शस्त्रास्त्र बल से युक्त, (स्वर्वत्) अति सुखकारी हो । (तत्) वैसे सभी ग्राह्य पदार्थों को (द्यावापृथिवी) आकाश और पृथिवी के समान माता पिता ( रोदसी ) उपदेश दाता होकर ( जरित्रे ) गुण स्तुति या परोपदेश करने वाले पुत्र के हितार्थ ही उसको (जनयतम्) उत्पन्न करें । (द्यावा पृथिवी) सूर्य और पृथिवी के समान माता और पिता दोनों (नः अभ्वात्) हमें बड़े अपराध से (रक्षतं) बचावें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ द्यावापृथिव्यौ देवते॥ छन्दः- १, ६, ७, ८, १०, ११ त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
ही भूमी, सूर्य, प्रत्यक्ष पदार्थ दिसून येतात ते अविनाशी, अनादि कारणापासून निर्माण झालेले आहेत, हे जाणले पाहिजे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
I invoke Mother Nature’s boundless generosity and pray for her pure and sinless gift of inviolable, brilliant and blissful, indestructible and reverential abundance of wealth of mind and material which, I crave, may heaven and earth create for the mother’s adoring child. And, I pray, may the heaven and earth save us from the violence and monstrosity of a life of materialism and sinful opulence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The significance of the First Cause stressed.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
I accept the gift of the sun and the earth which are without horses or decay. They are givers of happiness, exempt from injury, and endowed with good food. O parents ! you are like the day and night. Grant such gift to me who praises you. O father and mother ! you are like the heaven and the earth, and protect us from a false conduct.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The sun and the earth and all other visible articles are born out of the imperishable and eternal Primordial matter.
Foot Notes
(अदितेः) पृथिव्याः सूर्यस्य वा = Of the earth or the sun. (नमस्वत ) नमः प्रशस्तम् अन्नं विद्यते यस्मिन् तत् नमस्वत् । नम इत्यन्ननाम (NG. 2-7) = Endowed with good food. (रोदसी) अहोरात्नाविव = Like the day and night. ( द्यावापृथिवी ) द्यावापृथव्याविव वर्तमानौ मातापितरौ = Father and mother who are like the sun and the earth. From the marriage ceremony mantra द्यौरहं पृथिवी त्वं तावेव विवहावहै (Atharva. 14.1.71), it is clear that the married couple are, there compared with the earth and heaven. After their progeny, they become parents.
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