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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 185 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 185/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - द्यावापृथिव्यौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अत॑प्यमाने॒ अव॒साव॑न्ती॒ अनु॑ ष्याम॒ रोद॑सी दे॒वपु॑त्रे। उ॒भे दे॒वाना॑मु॒भये॑भि॒रह्नां॒ द्यावा॒ रक्ष॑तं पृथिवी नो॒ अभ्वा॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अत॑प्यमाने॒ इति॑ । अव॑सा । अव॑न्ती॒ इति॑ । अनु॑ । स्या॒म॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । दे॒वपु॑त्रे॒ इति॑ दे॒वऽपु॑त्रे । उ॒भे इति॑ । दे॒वाना॑म् । उ॒भये॑भिः । अह्ना॑म् । द्यावा॑ । रक्ष॑तम् । पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । नः॒ । अभ्वा॑त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अतप्यमाने अवसावन्ती अनु ष्याम रोदसी देवपुत्रे। उभे देवानामुभयेभिरह्नां द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अतप्यमाने इति। अवसा। अवन्ती इति। अनु। स्याम। रोदसी इति। देवपुत्रे इति देवऽपुत्रे। उभे इति। देवानाम्। उभयेभिः। अह्नाम्। द्यावा। रक्षतम्। पृथिवी इति। नः। अभ्वात् ॥ १.१८५.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 185; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्दृष्टान्तगतद्यावापृथिवीविषयमाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथाऽतप्यमानेऽवसावन्ती देवपुत्रे उभे रोदसी अह्नां मध्य उभयेभिः सह देवानां जीवानां रक्षतस्तथा हे द्यावापृथिवीव वर्त्तमानौ मातापितरौ युवामभ्वान्नो रक्षतं येन वयं सुखिनोऽनुष्याम ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (अतप्यमाने) सन्तापरहिते (अवसा) रक्षणादिना (अवन्ती) रक्षित्र्यौ (अनु) (स्याम) भवेम (रोदसी) प्रकाशभूमी (देवपुत्रे) देवस्य परमात्मनः पुत्रवद्वर्त्तमाने (उभे) (देवानाम्) दिव्यानां जलादीनाम् (उभयेभिः) स्थावरजङ्गमैः सह (अह्नाम्) दिनानाम् (द्यावा) (रक्षतम्) (पृथिवी) (नः) (अभ्वात्) ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा पृथिव्यादयः पदार्थाः सर्वं स्थावरजङ्गमं पालयन्ति तथा मातापित्राऽचार्य्यराजादयः प्रजा रक्षन्तु ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर दृष्टान्तप्राप्त द्यावापृथिवी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे (अतप्यमाने) सन्तापरहित (अवसा) रक्षा आदि से (अवन्ती) रक्षा करती हुई (देवपुत्रे) देव जो परमात्मा उसके पुत्र के समान वर्त्तमान (उभे) दोनों (रोदसी) प्रकाशभूमि (अह्नाम्) दिनों के बीच (उभयेभिः) स्थावर और जङ्गमों के साथ (देवानाम्) दिव्य जलादि पदार्थों के जीवन रक्षा करते हैं वैसे हे (द्यावा, पृथिवी) आकाश और पृथिवी के समान वर्त्तमान माता-पिताओ ! तुम दोनों (अभ्वात्) अपराध से (नः) हमारी (रक्षतम्) रक्षा कीजिये जिससे हम लोग (अनु, स्याम) पीछे सुखी होवें ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे पृथिवी आदि पदार्थ समस्त स्थावर जङ्गम की पालना करते हैं, वैसे माता, पिता, आचार्य्य और राजा आदि प्रजा की रक्षा करें ॥ ४ ॥

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    विषय

    अन्नोत्पत्ति व शीतोष्णादि द्वन्द्व

    पदार्थ

    १. हम अतप्यमाने सन्ताप को न प्राप्त कराती हुई (अवसा अवन्ती) = अन्न के द्वारा रक्षण करती हुई (रोदसी) = द्यावापृथिवी को (अनु स्याम) = [अनुभवेम] अनुभव करें। द्युलोक से वृष्टि होकर तथा सूर्य-किरणों द्वारा पृथिवी में प्राणदायी तत्त्वों का समावेश होकर पृथिवी से पौष्टिक अन्न का उत्पादन होता है। इस प्रकार द्युलोक व पृथिवीलोक अन्न देनेवाले हैं । २. ये (उभे) = दोनों देवपुत्रे उस महान् देव प्रभु के पुत्र तुल्य हैं। ये (द्यावापृथिवी) = द्युलोक और पृथिवीलोक (देवानाम् अह्नाम्) = द्योतमान दिनों के (उभयेभिः) = शीतोष्ण आदि के द्वारा (नः) = हमें (अभ्वात्) = -आपत्तियों से (रक्षतम्) = बचाएँ । संसार के व्यवहार सर्दी-गर्मी आदि द्वन्द्वों से ही चलते हैं। उस संसार की भी कल्पना नहीं की जा सकती जिसमें गर्मी-ही-गर्मी हो और न उसकी जिसमें सर्दी-ही-सर्दी हो । जीवन के लिए दोनों की ही आवश्यकता है। उष्णता व शीत दोनों ही जीवन के धन हैं, इनके बिना 'निधन' = मृत्यु है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - धुलोक व पृथिवीलोक हमारे लिए अन्न उत्पन्न करते हैं और शीतोष्ण आदि द्वन्द्वों के द्वारा हमारे जीवन का रक्षण करते हैं ।

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    विषय

    द्यावापृथिवी रूप से माता पिता के कर्त्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (अवसा) अन्नादि पालन सामर्थ्य से (रोदसी) द्यौ और पृथ्वी, आकाश या सूर्य और पृथ्वी, दोनों (देवपुत्रे) प्रकाशवान् सूर्य को पुत्र के समान धारण करते हुए या देव अर्थात् परमेश्वर के पुत्र के समान रह कर या देव विद्वानों और सूर्यादि लोकों को पुत्र के समान रखते हुए, (अवन्ती) सब का पालन करते हुए भी (अतप्यमाने) कभी पीड़ित होकर अपने कार्य से शिथिल नहीं होते। उसी प्रकार आकाश और पृथ्वी के समान ही माता और पिता भी (अवसा) अन्न आदि पालन और रक्षा के सामर्थ से पुत्रों और प्रजाओं की ( अवन्ती ) पालना और रक्षा करते हुए (अतप्यमाने) कभी संताप और दुख अनुभव करने वाले न हुआ करें। वे दोनों ( रोदसी ) सन्तानों को उपदेश करने और कुपथों से रोक थाम करने वाले हुआ करें । वे दोनों ( देवपुत्रे ) विद्वान् पुत्रों के माता पिता बनें, अर्थात् उत्तम सन्तानों को जनें। जिस प्रकार ( उभे द्यावापृथिवी ) पूर्व कहे दोनों आकाश और पृथ्वी ( देवानां अह्नाम् ) सूर्य से प्रकाशमान दिन और चन्द्र के प्रकाश वाली रात्रि दोनों के, (उभयेभिः) दोनों रूपों से (अभ्वात् रक्षतः) जीवों की कष्ट से रक्षा और पालन करते हैं उसी प्रकार ( उभे ) दोनों माता पिता भी ( देवानाम अह्नाम् ) प्रकाशवान् दिनों के दिन रात्रि दोनों रूपों से ( नः ) हमें ( अभ्वात् ) उत्तम योनि में न होने रूप महान् कष्ट से (रक्षतं) बचावें, वे सन्तानों को उत्तम रीति से पैदा और पालन करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ द्यावापृथिव्यौ देवते॥ छन्दः- १, ६, ७, ८, १०, ११ त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे पृथ्वी इत्यादी पदार्थ संपूर्ण स्थावर व जंगमाचे पालन करतात तसे माता, पिता आचार्य व राजा यांनी प्रजेचे रक्षण करावे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Free from sufferance, causing no pain, protective by inbuilt safeguards, both heaven and earth, children of Divinity and mothers of divinities, may, we pray, protect the noble powers of nature and humanity day and night along with all that is moving and non- moving in existence. Let us be in harmony with them and may they be good to us. May heaven and earth, we pray, protect us from the ravages of nature and worldly misfortune.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The parents' and teachers' duties are defined by the illustration of the heaven and the earth.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men the sun and the earth do not annoy anyone rather satisfy all beings with food and water etc. They are the children (creation) of God and are both endowed with making power of the days and nights divine. They protect all. O parents ! you are like the sun and earth. Guard us from false conduct so that we may enjoy happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    NA

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The earth and the sun etc. sustain all animate and inanimate objects. Likewise, it is the duty of the parents, preceptors and kings etc. to protect all subjects.

    Foot Notes

    ( देवपुत्रे) देवस्य परमात्मनः पुत्रवद् वर्तमाने | = The sun and the earth that are like the children of God. (उभयेभिः) स्थावरजङ्गमै: सह With in animate and animate objects.

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