ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 185/ मन्त्र 5
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - द्यावापृथिव्यौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
सं॒गच्छ॑माने युव॒ती सम॑न्ते॒ स्वसा॑रा जा॒मी पि॒त्रोरु॒पस्थे॑। अ॒भि॒जिघ्र॑न्ती॒ भुव॑नस्य॒ नाभिं॒ द्यावा॒ रक्ष॑तं पृथिवी नो॒ अभ्वा॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठस॒ङ्गच्छ॑माने॒ इति॑ स॒म्ऽगच्छ॑माने । यु॒व॒ती इति॑ । सम॑न्ते॒ इति॒ सम्ऽअ॑न्ते । स्वसा॑रा । जा॒मी इति॑ । पि॒त्रोः । उ॒पऽस्थे॑ । अ॒भि॒जिघ्र॑न्ती॒ इत्य॑भि॒ऽजिघ्र॑न्ती । भुव॑नस्य । नाभि॑म् । द्यावा॑ । रक्ष॑तम् । पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । नः॒ । अभ्वा॑त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
संगच्छमाने युवती समन्ते स्वसारा जामी पित्रोरुपस्थे। अभिजिघ्रन्ती भुवनस्य नाभिं द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात् ॥
स्वर रहित पद पाठसङ्गच्छमाने इति सम्ऽगच्छमाने। युवती इति। समन्ते इति सम्ऽअन्ते। स्वसारा। जामी इति। पित्रोः। उपऽस्थे। अभिजिघ्रन्ती इत्यभिऽजिघ्रन्ती। भुवनस्य। नाभिम्। द्यावा। रक्षतम्। पृथिवी इति। नः। अभ्वात् ॥ १.१८५.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 185; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
पित्रोरुपस्थे संगच्छमाने जामी युवती समन्ते स्वसारेव भुवनस्य नाभिमभिजिघ्रन्ती द्यावापृथिवी इव हे मातापितरौ युवां नोऽस्मानभ्वाद्रक्षतम् ॥ ५ ॥
पदार्थः
(संगच्छमाने) सहगामिन्यौ (युवती) युवाऽवस्थास्थे स्त्रियाविव (समन्ते) सम्यगन्तो ययोस्ते (स्वसारा) भगिन्यौ (जामी) कन्ये इव (पित्रोः) (उपस्थे) अङ्के (अभिजिघ्रन्ती) (भुवनस्य) लोकजातस्य (नाभिम्) नहनं मध्यस्थमाकर्षणाख्यं बन्धनम् (द्यावा) (रक्षतम्) (पृथिवी) (नः) (अभ्वात्) ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा ब्रह्मचर्य्येण कृतविद्यौ यौवनस्थौ सञ्जातप्रीती कन्यावरौ सुखिनौ स्यातां तथा द्यावापृथिव्यौ जगद्धिताय वर्त्तेते ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(पित्रोः) माता-पिता की (उपस्थे) गोद में (संगच्छमाने) मिलाती हुई (जामी) दो कन्याओं के समान वा (युवती) तरुण दो स्त्रियों के समान वा (समन्ते) पूर्ण सिद्धान्त जिनका उन दो (स्वसारा) बहिनियों के समान (भुवनस्य) संसार के (नाभिम्) मध्यस्थ आकर्षण को (अभि, जिघ्रन्ती) गन्ध के समान स्वीकार करती हुई (द्यावा, पृथिवी) आकाश और पृथिवी के समान माता-पिताओ ! तुम (नः) हम लोगों की (अभ्वात्) अपराध से (रक्षतम्) रक्षा करो ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे ब्रह्मचर्य से विद्या सिद्धि किये हुए तरुण जिनको परस्पर पूर्ण प्रीति है, वे कन्या-वर सुखी हों, वैसे द्यावापृथिवी जगत् के हित के लिये वर्त्तमान हैं ॥ ५ ॥
विषय
यज्ञगन्ध-व्याप्त द्यावापृथिवी
पदार्थ
१. (संगच्छमाने) = मिलकर गति करते हुए, द्युलोक के सूर्य की किरणों से पृथिवी का जल आकाश में पहुँचता है और फिर वृष्टि होकर पृथिवी पर आता है, इस प्रकार द्युलोक व पृथिवीलोक मिलकर अन्नोत्पादन आदि क्रियाओं को करते हैं। पृथिवी यदि आकाश को जलवाष्प प्राप्त कराती है तो सूर्य किरणें भी पृथिवी में प्राणशक्ति का आधान करती हैं। इस प्रकार द्युलोक व पृथिवीलोक दोनों संगत हो रहे हैं। (युवती) = ये नित्य तरुण हैं। 'इनकी शक्तियाँ कभी जीर्ण हो जाएँगी' – ऐसी बात नहीं है। सूर्य का प्रकाश व पृथिवी का अन्नोत्पादन प्रारम्भ से अन्त तक सदा एक-सा चलता है। (समन्ते) = संगत अन्तोंवाले-सुदूर स्थान में आकाश और पृथिवी मिलते प्रतीत होते हैं, वही प्रदेश सामान्य व्यवहार में क्षितिज कहलाता है। ये दोनों (स्वसारा) = आत्मतत्त्व की ओर गतिवाले हैं [स्वं सरतः] । ये दोनों प्रभु की महिमा का वर्णन कर रहे हैं और इस प्रकार हमें प्रभु की ओर ले चल रहे हैं । (पित्रोः उपस्थे) = माता-पिता की गोद में स्थित जामी-बहनों के समान ये परस्पर बन्धुभूत हैं। दोनों एक ही पिता- प्रभु की सन्तान होने से 'जामी' हैं। २ (भुवनस्य नाभिम्) = यज्ञ को [अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः] अभिजिघ्रन्ती-सूँघते हुए (द्यावापृथिवी) = ये द्युलोक व पृथिवीलोक (नः) = हमें (अभ्वात्) = आपत्ति से (रक्षतम्) = बचाएँ । जब इस पृथिवी पर सब घरों में यज्ञ होते हैं तो उन यज्ञों की गन्ध सर्वत्र व्याप्त होती है। मानो ये द्यावापृथिवी उस यज्ञ की गन्ध को सूँघ रहे हों। ऐसे ये द्यावापृथिवी हमें आपत्तियों से बचाते हैं। यज्ञ 'स्वर्ग की नाव' तो हैं ही, इन यज्ञों के द्वारा द्यावापृथिवी में होनेवाला ऋतुचक्र ठीक ।
भावार्थ
भावार्थ – द्यावापृथिवी यज्ञों की गन्ध से व्याप्त होकर हमारा रक्षण करनेवाले हों। ये यज्ञ ही 'भुवन की नाभि' हैं – केन्द्र हैं। से चलता है और हमारा रक्षण होता है।
विषय
द्यावापृथिवी रूप से माता पिता के कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( द्यावा पृथिवी ) आकाश और भूमि दोनों परस्पर ( संगच्छमाने ) एक दूसरे से सदा मिली हुई ( युवती ) अति बलशालिनी, ( समन्ते ) सीमा भागों में मिले हुए, ( स्वसारा ) बहनों या भाई बहन के समान, या (जामी) एक पेट से उत्पन्न सन्तानों के समान बन्धु होकर ( भुवनस्य नाभिम् ) संसार के केन्द्र को सब प्रकार से धारण करती हैं। इसी प्रकार पिता और माता दोनों भी ( संगच्छमाने ) परस्पर एक घर में संगत होकर ( युवती ) युवा अवस्था में विद्यमान ( स्वसारा ) स्वयं एक दूसरे को प्राप्त होने वाले ( पित्रोः ) अपने माता पिताओं के ( उपस्थे ) समीप (जामी) अति बन्धुवत् बालक वालिका के समान (समन्ते) उत्तम परिणाम या उद्देश्य को धारण करने वाले होकर भी ( भुवनस्य नाभिम् ) उत्पन्न बालक की नाभि को (अभिजिघ्रन्तौ) प्रेम वश बार २ सूंघते या चुम्बन करते हुए ( नः ) हमें ( अभ्वात् ) असामर्थ्य से उत्पन्न दुःखों से मुक्त करे । इति द्वितीयो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ द्यावापृथिव्यौ देवते॥ छन्दः- १, ६, ७, ८, १०, ११ त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याप्राप्त करून तरुण कन्या व वर परस्पर प्रीतीने विवाह करून सुखी होतात. तसे द्यावा पृथ्वी जगाच्या हितासाठी विद्यमान असतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Heaven and earth, going together, ever youthful, contiguous and simultaneous like twin sisters, coexistent and cooperative, nestled in the lap of mother Nature and Father Supreme of existence, taste the fragrance of the omnipresent contrehold of the universe. May the heaven and earth protect us from the sin of falling off from that all-pervasive fragrance of the Divine Presence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The heaven and earth are the benefactors.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O father and mother ! like the heaven and the death, you guard us from all false or evil conduct. The heaven and earth like two sisters go hand-in-hand always together, scenting the name of the world in the form of gravitation or attraction.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
NA
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! as young bride and bridegroom who have received education through Brahmacharya enjoy happiness, so the heaven and the earth are for the welfare of the world.
Foot Notes
(जामी) कन्ये इव ( द्यावापृथिवी) द्यावापृथिव्याविव मातापितरौ = Like two virgins. The parent, who are like firmament and earth.
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