ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 185/ मन्त्र 6
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - द्यावापृथिव्यौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उ॒र्वी सद्म॑नी बृह॒ती ऋ॒तेन॑ हु॒वे दे॒वाना॒मव॑सा॒ जनि॑त्री। द॒धाते॒ ये अ॒मृतं॑ सु॒प्रती॑के॒ द्यावा॒ रक्ष॑तं पृथिवी नो॒ अभ्वा॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒र्वी इति॑ । सद्म॑नी॒ इति॑ । बृ॒ह॒ती इति॑ । ऋ॒तेन॑ । हु॒वे । दे॒वाना॑म् । अव॑सा । जनि॑त्री॒ इति॑ । द॒धाते॑ । ये । अ॒मृत॑म् । सु॒प्रती॑के॒ इति॑ सु॒ऽप्रती॑के । द्यावा॑ । रक्ष॑तम् । पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । नः॒ । अभ्वा॑त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उर्वी सद्मनी बृहती ऋतेन हुवे देवानामवसा जनित्री। दधाते ये अमृतं सुप्रतीके द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात् ॥
स्वर रहित पद पाठउर्वी इति। सद्मनी इति। बृहती इति। ऋतेन। हुवे। देवानाम्। अवसा। जनित्री इति। दधाते। ये। अमृतम्। सुप्रतीके इति सुऽप्रतीके। द्यावा। रक्षतम्। पृथिवी इति। नः। अभ्वात् ॥ १.१८५.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 185; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मातापितरौ ये उर्वी सद्मनी बृहती ऋतेनाऽवसा देवानां जनित्री सुप्रतीके द्यावापृथिवी यथामृतं दधातेऽहं हुवे तथाऽभ्वान्नोऽस्मान् युवां रक्षतम् ॥ ६ ॥
पदार्थः
(ऊर्वीः) बहुविस्तीर्णे (सद्मनी) सर्वेषां निवासाऽधिकरणे (बृहती) महत्यौ (ऋतेन) जलेन (हुवे) प्रशंसामि (देवानाम्) विदुषाम् (अवसा) रक्षणादिना (जनित्री) उत्पादयित्री (दधाते) (ये) (अमृतम्) जलम्। अमृतमित्युदकना०। निघं० १। १२। (सुप्रतीके) सुष्ठप्रतीतिविषये (द्यावा) (रक्षतम्) (पृथिवी) (नः) (अभ्वात्) ॥ ६ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मातापितरः सत्योपदेशेन सूर्यवद्विद्याप्रकाशयुक्ताः पृथिवीजलेन वृक्षानिव शरीरबलेन वर्द्धयन्ति ते सर्वेषां रक्षां कर्त्तुमर्हन्ति ॥ ६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे माता-पिताओ ! (ये) जो (उर्वी) बहुत विस्तारवाली (सद्मनी) सबकी निवासस्थान (बृहती) बड़ी (ऋतेन) जल से और (अवसा) रक्षा आदि के साथ (देवानाम्) विद्वानों की (जनित्री) उत्पन्न करनेवाली (सुप्रतीके) सुन्दर प्रतीति का विषय (द्यावा, पृथिवी) आकाश और पृथिवी (अमृतम्) जल को (दधाते) धारण करती हैं और मैं उनकी (हुवे) प्रशंसा करता हूँ वैसे (अभ्वात्) अपराध से (नः) हम लोगों की तुम (रक्षतम्) रक्षा करो ॥ ६ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो माता-पिता सत्योपदेश से सूर्य के समान विद्या प्रकाश से युक्त सर्वगुण सम्भृत पृथिवी जैसे जल से वृक्षों को वैसे शारीरिक बल से बढ़ाते हैं, वे सबकी रक्षा करने को योग्य हैं ॥ ६ ॥
विषय
अवस् व अमृत
पदार्थ
. (उर्वी) = ये द्युलोक व पृथिवीलोक विशाल हैं, (सद्मनी) = सब प्राणियों के आधारभूत निवास स्थान हैं, (बृहती) = वृद्धि के कारणभूत हैं, मैं उन्हें (ऋतेन) = यज्ञ के द्वारा हुवे पुकारता हूँ। यज्ञ के द्वारा मैं इनकी आराधना करता हूँ। इन यज्ञों की गन्ध से व्याप्त होकर ही ये द्यावापृथिवी हमारा कल्याण करते हैं। ये द्यावापृथिवी (अवसा) = उत्तम अन्नों के द्वारा (देवानां जनित्री) = देवों को जन्म देनेवाले हैं। हमारे जीवनों में दिव्यगुणों को उत्पन्न करके ये हमें देव बनानेवाले हैं। २. (ये) = जो (सुप्रतीके) = उत्तम रूपवाले- दृढ़ता व उग्रतावाले (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक हैं ये अमृतं दधाते अमृतत्व का धारण करते हैं, अमृतमय जल को प्राप्त कराते हैं। ये (नः) = हमें (अभ्वात्) = आपत्ति से (रक्षतम्) = बचाएँ ।
भावार्थ
भावार्थ- हम यज्ञों के द्वारा द्यावापृथिवी का आराधन करते हैं। ये द्यावापृथिवी हमें उत्तम अन्न व जल के द्वारा रक्षित करते हैं ।
विषय
द्यावापृथिवी रूप से माता पिता के कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
जिस प्रकार आकाश और पृथिवी, (उर्वी) बहुत दूर तक फैली हुई, (सद्मनी) समस्त लोकों और जनों का आश्रय देने वाली (बृहती) बहुत बड़ी, ( ऋतेन ) जल और अन्न के द्वारा और ( अवसा ) तेज और रक्षण, तृति आदि नाना साधनों से ( देवानां ) उत्तम पुरुषों उत्तम दिव्य पदार्थों को ( जनित्री ) उत्पन्न करने वाली और ( सुप्रतीके ) उत्तम ज्ञान, चेतना देने वाली होकर (अमृतं दधाते) जल और तेज को धारण करती हैं उसी प्रकार स्त्री पुरुष, पति पत्नी या माता पिता भी (उर्वी) बड़ी विशाल हृदय वाले, (सद्मनी) घरके समान सबको अपनी शरण में लेने वाले, (बृहती) प्रजाओं को बढ़ाने वाले, (ऋतेन) धन अन्न और सत्य ज्ञान से ( देवानाम् ) विद्वानों और उत्तम गुणों, पदार्थों और प्रिय बन्धुजनों की (अवसा ) तृप्ति, इच्छा पूर्ति, प्रेमालिंगन, अवगम, प्रवेश, स्वाम्य, रक्षण आदि द्वारा (जनित्री) माता के समान उनको उत्पन्न करने हारे हों । उनको मैं ( हुवे ) आदर पूर्वक स्वीकार करता हूं। (ये) जो वे दोनों (अमृतं) पुत्र, प्रजा आदि को और अन्न जल आदि को ( दधाते ) धारण करते हैं वे ( सुप्रतीके ) उत्तम सुख और ज्ञान प्रतीति वाले ( द्यावा पृथिवी ) सूर्य पृथिवी के समान होकर ( नः ) हमें ( अभ्वात् ) कष्ट से ( रक्षतं ) रक्षा करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ द्यावापृथिव्यौ देवते॥ छन्दः- १, ६, ७, ८, १०, ११ त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे माता-पिता सत्योपदेशाने सूर्याप्रमाणे विद्याप्रकाशयुक्त करतात व पृथ्वी जशी जलाने वृक्षांना वाढविते तसे शारीरिक बलाने वाढवितात ते सर्वांचे रक्षण करणारे असतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
I invoke and celebrate in song the grand and vast heaven and earth, mother sustainers and shelter homes of the brilliant and generous divinities of nature and humanity with protection and the truth of universal law. Beautiful of form, they bear the nectar sweets of water and energy for life. May the heaven and earth save us from the sin of filial ingratitude.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The parents are to be protected.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O revered father and mother! I praise the heaven and earth which are vast, all supporting and are mighty parents of all things with water etc. They beautify the form and sustain water. In the same way, we praise you sincerely. Guard us from all the false conduct, as you and you only ingrain in human beings all the divine virtues with your true teachings.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
NA
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those parents who with their true teachings develop the physical and spiritual powers of their children and who shine like sun and are endowed with the light of knowledge, they can protect all.
Foot Notes
(ऋतेन) जलेन । ऋतम् इत्युदकनाम (NG. 1-12) ऋतमिति सत्यनाम | ( NG. 3-10 ) = With water. In the case of parents, मत्योपदेशेन means with the preaching of the truth. ( अमृतम्) जलम् । अमृतमित्युदकनाम (NG. 1-12 ) = In the case of parents the nectar of wisdom and knowledge etc.
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