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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 185 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 185/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - द्यावापृथिव्यौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒र्वी पृ॒थ्वी ब॑हु॒ले दू॒रेअ॑न्ते॒ उप॑ ब्रुवे॒ नम॑सा य॒ज्ञे अ॒स्मिन्। द॒धाते॒ ये सु॒भगे॑ सु॒प्रतू॑र्ती॒ द्यावा॒ रक्ष॑तं पृथिवी नो॒ अभ्वा॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒र्वी इति॑ । पृ॒थ्वी इति॑ । ब॒हु॒ले इति॑ । दू॒रेअ॑न्ते॒ इति॑ दू॒रेऽअ॑न्ते । उप॑ । ब्रु॒वे॒ । नम॑सा । य॒ज्ञे । अ॒स्मिन् । द॒धाते॒ इति॑ । ये इति॑ । सु॒भगे॒ इति॑ सु॒ऽभगे॑ । सु॒प्रतू॑र्ती॒ इति॑ सु॒ऽप्रतू॑र्ती । द्यावा॑ । रक्ष॑तम् । पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । नः॒ । अभ्वा॑त्॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उर्वी पृथ्वी बहुले दूरेअन्ते उप ब्रुवे नमसा यज्ञे अस्मिन्। दधाते ये सुभगे सुप्रतूर्ती द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उर्वी इति। पृथ्वी इति। बहुले इति। दूरेअन्ते इति दूरेऽअन्ते। उप। ब्रुवे। नमसा। यज्ञे। अस्मिन्। दधाते इति। ये इति। सुभगे इति सुऽभगे। सुप्रतूर्ती इति सुऽप्रतूर्ती। द्यावा। रक्षतम्। पृथिवी इति। नः। अभ्वात् ॥ १.१८५.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 185; मन्त्र » 7
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    दूरेअन्ते बहुले उर्वी पृथ्वी सुभगे सुप्रतूर्त्ती द्यावापृथिवी अस्मिन् यज्ञे नमसाऽहमुपब्रुवे ये च सुभगे सुप्रतूर्त्ती द्यावापृथिवी दधाते ते द्यावापृथिवीव वर्त्तमानौ हे मातापितरौ नोऽस्मानभ्वाद्रक्षतम् ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (उर्वी) बहुपदार्थयुक्ते (पृथ्वी) विस्तीर्णे (बहुले) ये बहूनि वस्तूनि लाती गृह्णातीः (दूरेअन्ते) (उप) (ब्रुवे) उपदिशेयम् (नमसा) अन्नेन (यज्ञे) सङ्गन्तव्ये (अस्मिन्) संसारव्यवहारे (दधाते) (ये) (सुभगे) सुष्ठ्वैश्वर्य्यप्रापिके (सुप्रतूर्त्ती) अतितूर्णगती (द्यावा) (रक्षतम्) (पृथिवी) (नः) (अभ्वात्) ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    यथा पृथिव्याः समीपे चन्द्रलोकभूमिस्तथा सूर्यलोकभूमिर्दूरे। एवं सर्वत्रैव प्रकाशाऽन्धकाररूपं लोकद्वन्द्वं वर्त्तते ताभ्यां यथोन्नतिः स्यात् तथा सर्वैः प्रयतितव्यम् ॥ ७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (दूरेअन्ते) दूर में और समीप में (बहुले) बहुत वस्तुओं को ग्रहण करनेवाली (उर्वी) बहुत पदार्थयुक्त (पृथ्वी) बड़ी आकाश और पृथिवी का (अस्मिन्) इस संसार के व्यवहार (यज्ञे) जो कि सङ्ग करने योग्य उसमें (नमसा) अन्न के साथ मैं (उप, ब्रुवे) उपदेश करता हूँ और (ये) जो (सुभगे) सुन्दर ऐश्वर्य की प्राप्ति करनेवाली (सुप्रतूर्त्ती) अतिशीघ्र गतियुक्त आकाश और पृथिवी (दधाते) समस्त पदार्थों को धारण करते हैं उन (द्यावापृथिवी) आकाश और पृथिवी के समान वर्त्तमान माता-पिताओ ! (नः) हमको (अभ्वात्) अपराध से (रक्षतम्) बचाओ ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    जैसे पृथिवी के समीप में चन्द्रलोक की भूमि है वैसे सूर्य लोकस्थ भूमि दूर में है, ऐसे सब जगह प्रकाश और अन्धकाररूप लोकद्वय वर्त्तमान है, उन लोकों से जैसे उन्नति हो वैसा यत्न सबको करना चाहिये ॥ ७ ॥

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    विषय

    नमस् व भग

    पदार्थ

    १. (उर्वी) = जो विशाल हैं, (पृथ्वी) = अत्यन्त विस्तारवाले हैं, (बहुले) = बहुत पदार्थों को प्राप्त करानेवाले हैं, (दूरेअन्ते) = विप्रकृष्ट अन्तदेशोंवाले हैं, अर्थात् अपार से हैं-ऐसे इन द्यावापृथिवी को (अस्मिन्) = इस यज्ञे जीवन-यज्ञ में (नमसा) = [नमस्- food] उत्कृष्ट भोजन की प्राप्ति के हेतु से (उपब्रुवे) = स्तुत करता हूँ। द्युलोक व पृथिवीलोक की संगत क्रिया से ही अन्न की प्राप्ति होती है। २. (ये) = जो (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक (सुभगे) = उत्तम ऐश्वर्यवाले हैं तथा (सुप्रतूर्ती) = [सुप्रतरणे शोभनदाने- सा०] उत्तम अन्नादि पदार्थों के देनेवाले हैं वे (नः) = हमें (अभ्वात्) = कष्ट से (रक्षतम्) = बचानेवाले हों। - व अन्नों को देनेवाले हों।

    भावार्थ

    भावार्थ - ये विशाल द्युलोक व पृथिवीलोक हमें उत्तम ऐश्वर्यों व अन्नो को देनेवाला हों।

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    विषय

    द्यावापृथिवी रूप से माता पिता के कर्त्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    आकाश और पृथिवी के समान माता पिता, राजा और राज सभा (उर्वी) बड़े, (पृथ्वी) अति विस्तृत, यशस्वी, ( बहु-ले ) बहुत से पदार्थों के ला देने वाले, (दूरे अन्ते) दूर और समीप सर्वत्र विद्यमान हैं और जो (सुभगे) उत्तम ऐश्वर्यवान् (सुप्रतूर्ती) अति वेगवान्, कार्य कुशल होकर बिना विलम्ब के (दधाते) हमारा पालन पोषण करते हैं, मैं उनको (अस्मिन् यज्ञे) इस सत्संग और आदर सत्कार के अवसर पर (नमसा) बड़े आदर भाव से (उप ब्रुवे) बुलाऊं । वे ही ( द्यावापृथिवी ) आकाश और पृथिवी के समान माता पिता (नः अभ्वात् रक्षतम्) हमें दुःख से बचावें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ द्यावापृथिव्यौ देवते॥ छन्दः- १, ६, ७, ८, १०, ११ त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा चंद्रलोक पृथ्वीजवळ आहे तसा सूर्यलोक दूर आहे. सर्व स्थानी (गोलांमध्ये) प्रकाश व अंधकाररूपी गोल द्वय वर्तमान असतात. त्या गोलामुळे जशी उन्नती होईल तसा प्रयत्न सर्वांनी करावा. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I invoke and adore the mighty heaven and earth, abundant and boundless far and wide, and sing in praise of them in this yajna of life with humility and offerings of fragrant oblations. Generous and overflowing with wealth and good fortune, bright and beatific in form and progress, they nourish and sustain the entire world of living beings. May the heaven and earth save me from the sin of sloth, greed and selfishness.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    All should endeavor to march on the path of happiness.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    I teach about the heaven and earth. They are vast, expansive, multiform, infinite, harbingers of good prosperity, rapidly moving in this Yajna of the mundane dealings, that are to be done unitedly along with food. O revered father and mother! you are like the heaven and earth, and so you guard us from all false conduct and dangers.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    NA

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The moon is close to the earth, but the sun is very distant. In this way, everywhere there is the pair of light and darkness. The persons should try to make proper use of all sources of energy for their progress.

    Foot Notes

    (नमसा) अन्नेन = With food. (अस्मिन् यज्ञे) अस्मिन् संगन्तव्ये संसारव्यवहारे = In this worldly dealing which is to be done unitedly.

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