ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 185/ मन्त्र 8
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - द्यावापृथिव्यौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
दे॒वान्वा॒ यच्च॑कृ॒मा कच्चि॒दाग॒: सखा॑यं वा॒ सद॒मिज्जास्प॑तिं वा। इ॒यं धीर्भू॑या अव॒यान॑मेषां॒ द्यावा॒ रक्ष॑तं पृथिवी नो॒ अभ्वा॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वान् । वा॒ । यत् । च॒कृ॒म । कत् । चि॒त् । आगः॑ । सखा॑यम् । वा॒ । सद॑म् । इत् । जाःऽप॑तिम् । वा॒ । इ॒यम् । धीः । भू॒याः॒ । अ॒व॒ऽयान॑म् । एषा॑म् । द्यावा॑ । रक्ष॑तम् । पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । नः॒ । अभ्वा॑त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवान्वा यच्चकृमा कच्चिदाग: सखायं वा सदमिज्जास्पतिं वा। इयं धीर्भूया अवयानमेषां द्यावा रक्षतं पृथिवी नो अभ्वात् ॥
स्वर रहित पद पाठदेवान्। वा। यत्। चकृम। कत्। चित्। आगः। सखायम्। वा। सदम्। इत्। जाःऽपतिम्। वा। इयम्। धीः। भूयाः। अवऽयानम्। एषाम्। द्यावा। रक्षतम्। पृथिवी इति। नः। अभ्वात् ॥ १.१८५.८
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 185; मन्त्र » 8
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यत् कच्चिद्देवान् वा सखायं वा सममिज्जास्पतिं या प्रत्यागश्चकृमैषामपराधानामियं धीरवयानं भूयाः। हे द्यावापृथिवीव वर्त्तमानौ मातापितरौ नोऽस्मानभ्वाद्रक्षतम् ॥ ८ ॥
पदार्थः
(देवान्) विदुषः (वा) पक्षान्तरे (यत्) (चकृम) कुर्याम। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (कत्) (चित्) (आगः) अपराधम् (सखायम्) मित्रम्। (वा) (सदम्) सदा (इत्) एव (जास्पतिम्) जायायाः मतिम् (वा) (इयम्) (धीः) कर्म्म प्रज्ञा वा (भूयाः) (अवयानम्) अपगमनं निरसनम् (एषाम्) पदार्थानां मध्ये (द्यावा) (रक्षतम्) (पृथिवी) (नः) (अभ्वात्) ॥ ८ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मातापितरः सन्तानानन्नजलवन्न पालयन्ति ते स्वधर्मच्युताः सन्ति ये च पितन्न रक्षन्ति ते सन्ताना अपि विधर्माणः सन्ति ॥ ८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(यत्) जो (कच्चित्) कुछ (देवान्) विद्वानों (वा) वा (सखायम्) मित्र (वा) वा (सदमित्) सदैव (वा) वा (जास्पतिम्) स्त्री की पालना करनेवाले के भी प्रति (आगः) अपराध (चकृम) करें (एषाम्) इन सब अपराधों का (इयम्) यह (धीः) कर्म वा तत्त्वज्ञान (अवयानम्) दूर करनेवाला (भूयाः) हो। हे (द्यावा, पृथिवी) आकाश और पृथिवी के समान वर्त्तमान माता-पिताओ ! (नः) हम लोगों को (अभ्वात्) अपराध से (रक्षतम्) बचाओ ॥ ८ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो माता-पिता सन्तानों को अन्न, जल के समान नहीं पालते, वे अपने धर्म्म से गिरते हैं और माता-पिताओं की रक्षा नहीं करते, वे सन्तान भी अधर्मी होते हैं ॥ ८ ॥
विषय
'देवों, सखा व जास्पति' के विषय में निरपराधता
पदार्थ
१. (यत्) = यदि हम (देवान्) = देवताओं के विषय में – 'सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, जल, वायु' आदि देवों के विषय में (कश्चित्) = कोई (वा) = भी (आगः) = अपराध (चकृमः) = कर बैठे हैं। इनके सम्पर्क से दूर रहना, इनका ठीक प्रयोग न करना ही इनके विषय में पाप है। इस पाप का परिणाम मुख्यरूप से शरीर का अस्वास्थ्य है । २. (वा) = अथवा यदि हमने (सखायम्) = सनातन सखा [द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया] प्रभु के विषय में कोई अपराध किया है । प्रातः-सायं प्रभु का ध्यान न करना- प्रभु को भूल जाना ही प्रभु के विषय में पाप है। इसका मुख्यरूप से मन पर प्रभाव होता है। प्रभु के विस्मरण से मन ईर्ष्या-द्वेष, क्रोध आदि की दुर्भावनाओं से भरा रहता है। ३. (वा) = अथवा (सदम् इत्) = सदा ही (जास्पतिम्) = वेदवाणीरूप जाया के पति-ज्ञानी ब्राह्मण के प्रति अपराध किया है (परीमे गामनेषत्- इस मन्त्रभाग में वेदवाणी के साथ परिणय का उल्लेख है) । जिन्होंने इन वेदवाणी के साथ परिणय किया है वे जास्पति हैं। इनके विषय में अपराध यही है कि इनके सङ्ग से दूर रहना और ज्ञान के प्रति अरुचिवाला होना। इस अपराध से मस्तिष्क दुर्बल हो जाता है - विचारों के शैथिल्य से आचार- शैथिल्य उत्पन्न होता है । ४. (इयं धी:) = हमारी यह बुद्धि (एषाम्) = इन- देवों, सखीभूत प्रभु व ज्ञानियों के विषय में होनेवाले पापों को (अवयानं भूया:) = दूर करनेवाली हो और इन अपराधों से ऊपर उठनेवाले (नः) = हमें (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक (अभ्वात्) = कष्ट से (रक्षतम्) = बचाएँ । पाप का परिणाम ही दुःख होता है। पापों से दूर रहेंगे तो कष्टों से बचेंगे ही।
भावार्थ
भावार्थ – हम सूर्यादि देवों के विषय में अपराधी न होते हुए स्वस्थ शरीरवाले हों । प्रभु के विषय में अपराधी न होते हुए निर्मल एवं शान्त मनवाले हों तथा ज्ञानी पुरुषों के विषय में अपराध न करते हुए दीप्त ज्ञानवाले बनें। ऐसे बनकर हम द्यावापृथिवी के रक्षण के पात्र हों।
विषय
द्यावापृथिवी रूप से माता पिता के कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
हमलोग ( देवान् ) विद्वानों के प्रति ( यत् वा ) जो भी (कत् चित् आगः) किसी प्रकार का, कभी भी अपराध करें, और कोई भी अपराध (सखायं वा) मित्र के प्रति या (जास्पतिम् वा) पत्नी पति, जामाता या किन्हीं भी वर वधू के प्रति कोई अपराध करे (एषाम्) उन सब अपराधों को (अवयानम्) दूर करने का उपाय (सदम् इत्) सदा ही (इयं) यह (धी) धरणा, कर्म, यह दृढ़ व्रत हो। ( द्यावा पृथिवी ) सूर्य और पृथिवी के समान माता पिता गुरु आचार्य राजा प्रजा आदि सभी (नः) हमें (अभ्वात् रक्षतम्) पाप से बचावें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ द्यावापृथिव्यौ देवते॥ छन्दः- १, ६, ७, ८, १०, ११ त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. अन्न व जलाप्रमाणे जे आईवडील संतानांचे पालन करीत नाहीत ते आपल्या धर्मापासून ढळतात व जे मात्यापित्याचे रक्षण करीत नाहीत ती संतानेही अधर्मी असतात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
If we commit a sin to the generosities of nature by violence to the environment, or do an insult to the wise and brilliant people, or offend a friend, or ever violate the sanctity of a woman or dishonour her husband, then may this mind and intelligence of ours be the corrective and preventive antidote to such evil conduct. May heaven and earth give us good sense and save us from sin against nature and humanity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The parents should perform their duties towards their children and vice versa.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Whatever fault or offence we may commit or have committed against absolutely truthful learned persons, or against a friend at any time, may this good knowledge or action be a sort of expiation, with a resolve not to commit and repeat any such offence. O revered parents ! you are like the heaven and earth, and guard us from false conduct or danger.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
NA
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those parents who do not look after their children like the food and water, fail to discharge their duty. Those children who do not support their parents and fail in the discharge of their duty become sinners and condemned.
Foot Notes
(अवयानम्) अपगमनम् निरसनम् = Expiation. Giving up of sin in the future.
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