ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 185/ मन्त्र 9
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - द्यावापृथिव्यौ
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
उ॒भा शंसा॒ नर्या॒ माम॑विष्टामु॒भे मामू॒ती अव॑सा सचेताम्। भूरि॑ चिद॒र्यः सु॒दास्त॑राये॒षा मद॑न्त इषयेम देवाः ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒भा । शंसा॑ । नर्या॑ । माम् । अ॒वि॒ष्टा॒म् । उ॒भे इति॑ । माम् । ऊ॒ती इति॑ । अव॑सा । स॒चे॒ता॒म् । भूरि॑ । चि॒त् । अ॒र्यः । सु॒दाःऽत॑राय । इ॒षा । मद॑न्तः । इ॒ष॒ये॒म॒ । दे॒वाः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उभा शंसा नर्या मामविष्टामुभे मामूती अवसा सचेताम्। भूरि चिदर्यः सुदास्तरायेषा मदन्त इषयेम देवाः ॥
स्वर रहित पद पाठउभा। शंसा। नर्या। माम्। अविष्टाम्। उभे इति। माम्। ऊती इति। अवसा। सचेताम्। भूरि। चित्। अर्यः। सुदाःऽतराय। इषा। मदन्तः। इषयेम। देवाः ॥ १.१८५.९
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 185; मन्त्र » 9
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
उभा शंसा नर्य्या द्यावापृथिवीव मातापितरौ मामविष्टां मामुभे ऊती अवसा सचेताम्। हे देवा अर्य्यः सुदास्तराय भूरि चिन्मदन्तो वयमिषेषयेम ॥ ९ ॥
पदार्थः
(उभा) उभौ (शंसा) प्रशंसितौ (नर्य्या) नृषु साधु (माम्) (अविष्टाम्) रक्षतम् (उभे) (माम्) (ऊती) व्यवहारविद्यारक्षे (अवसा) रक्षादिना (सचेताम्) प्राप्नुताम् (भूरि) बहु (चित्) इव (अर्यः) वणिग्जनः (सुदास्तराय) अतिशयेन दात्रे (इषा) इच्छया (मदन्तः) सुखयन्तः (इषयेम) प्राप्नुयाम (देवाः) विद्वांसः ॥ ९ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्याचन्द्रमसौ सर्वं संयुज्य प्राणिनः सुखयतः। यथार्थधनाढ्यो वैश्यो बह्वन्नादिकं दत्वा भिक्षुकान् प्रीणाति तथा विद्वांसः सर्वेषां प्रीणने प्रवर्त्तेरन् ॥ ९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(उभा) दोनों (शंसा) प्रशंसा को प्राप्त (नर्य्या) मनुष्यों में उत्तम द्यावापृथिवी के समान माता-पिता (माम्) मेरी (अनिष्टाम्) रक्षा करें और (माम्) मुझे (उभे) दोनों (ऊती) रक्षाएँ (अवसा) औरों की रक्षा आदि के साथ (सचेताम्) प्राप्त होवें। हे (देवाः) विद्वानो ! (अर्यः) वणिया (सुदास्तराय) अतीव देनेवाले के लिये (भूरि, चित्) बहुत जैसे देवे वैसे (मदन्तः) सुखी होते हुए हम लोग (इषा) इच्छा से (इषयेम) प्राप्त होवें ॥ ९ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य और चन्द्रमा सबका संयोग कर प्राणियों को सुखी करते हैं तथा जैसे धनाढ्य वैश्य बहुत अन्न आदि पदार्थ देकर भिखारियों को प्रसन्न करता है, वैसे विद्वान् जन सबके प्रसन्न करने में प्रवृत्त होवें ॥ ९ ॥
विषय
ऐश्वर्य का विनियोग दान में
पदार्थ
१. (उभा शंसा) = द्युलोक व पृथिवीलोक दोनों ही स्तुत्य हैं, (नर्या) = दोनों ही नरों का हित करनेवाले हैं। (उभे) = ये दोनों (माम् अविष्टाम्) = मेरा रक्षण करें। (ऊती) = रक्षण करनेवाले ये दोनों (माम्) = मुझे (अवसा) = [food, wealth] रक्षण में उत्तम भोजन तथा ऐश्वर्य से (सचेताम्) = सेवन करनेवाले हों । द्यावापृथिवी की अनुकूलता से मुझे उत्तम भोजन व ऐश्वर्य प्राप्त हो । २. (अर्यः) = [स्तोतारः - सा०] प्रभु का स्तवन करनेवाले हम (सुदास्तराय) = शोभन दातृत्व के लिए खूब धन दे सकने के लिए (भूरिचित्) = [पूजायाम्] खूब अभिपूजित धन को इषयेम चाहें । (देवा:) = हे देवो! इस धन को प्राप्त करके भी स्वयं (इषा मदन्तः) = सौम्य अन्न से ही आनन्द का अनुभव करें। अनावश्यक, गरिष्ठ, स्वादिष्ठ भोजनों के प्रति आसक्त न हो जाएँ। सब देवों की ऐसी कृपा हमपर बनी रहे कि धन हमें भोजनप्रधान न बना दे। इस धन के कारण हम आस्वाद नगरी के अधिपति ही न बन जाएँ ।
भावार्थ
भावार्थ- हमें द्यावापृथिवी खूब ऐश्वर्य प्राप्त कराएँ । यह ऐश्वर्य दान के लिए हो। हमारा अपना भोजन सादा, शुद्ध अन्न ही है।
विषय
द्यावापृथिवी रूप से माता पिता के कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
पूर्वोक्त आकाश और पृथिवी के समान (उभा) दोनों माता पिता, राजा प्रजा, गुरु या गुरुपत्नी या सावित्री, दोनों (शंसा) स्तुतियोग्य और (नर्या) मनुष्यों की हितकारक होकर (माम अविष्टाम्) मेरी रक्षा करें । मुझे प्राप्त हों, मुझे प्रसन्न, तृप्त करें और मुझ से प्रेम करें। और (उभे) वे दोनों ( ऊती ) उत्तम रक्षक शत्रुनाशक प्रजा तर्पक, वृद्धिकारक होकर (अवसा) रक्षण, ज्ञान, कान्ति आदि गुणों से (सचेताम्) हमें प्राप्त हों (अर्यः) वणिग् जन जिस प्रकार उत्तम धन देने वाले को (भूरि) अधिक पदार्थ प्रसन्न होकर देता है उसी प्रकार हम (अर्यः) स्वामी, ऐश्वर्यवान् होकर (इषा) अन्नादि से यथेच्छ (मदन्तः) तृप्त, प्रसन्न होकर (भूरि चित् इषयेम) बहुत अधिक धन और ज्ञान को प्राप्त करने की इच्छा और यत्न करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ द्यावापृथिव्यौ देवते॥ छन्दः- १, ६, ७, ८, १०, ११ त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे सूर्य व चंद्र सर्वांचा संयोग करून प्राण्यांना सुखी करतात व जसा धनाढ्य वैश्य पुष्कळ अन्न इत्यादी पदार्थ देऊन भिक्षुकांना प्रसन्न करतो तसे विद्वान लोकांनी सर्वांना प्रसन्न करावे. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Both heaven and earth as father and mother, both adorable and kind to humanity, save me. Both, protective and preventive, be with me with all protections and security. O divinities of nature and humanity noble men and women who command the business of life and living, be amply generous to the man of charity and broad-mindedness, and may we all, rejoicing with food and energy in abundance, be blest with self-fulfilment.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
She learned should delight all.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
May our revered parents who are admirable and noble, who are like the sun and the earth, protect me! May I get the protective power of both the spiritual and secular knowledge ! O learned persons ! as a good trader is happy to have the company of a liberal donor and gives generously to the needy, may we make others happy with the fulfilment of their noble desires through food etc.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
NA
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the sun and the moon give happiness to all beings, as a sincere rich trader (Vaishya) pleases the Sanyasis and other needy persons by giving them good food, so the enlightened should be pleasing or satisfying all.
Foot Notes
(अर्य:) वणिग्जन: 1 अर्य स्वामिवैश्ययोः (अष्टा 3.1.101 ) = A Vaishya or trader. ( सुदास्तराय) अतिशयेन दात्ने दासृ-दाने (भ्वा:) = For a liberal donor.
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