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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 188 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 188/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - आप्रियः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    समि॑द्धो अ॒द्य रा॑जसि दे॒वो दे॒वैः स॑हस्रजित्। दू॒तो ह॒व्या क॒विर्व॑ह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्ऽइ॑द्धः । अ॒द्य । रा॒ज॒सि॒ । दे॒वः । दे॒वैः । स॒ह॒स्र॒ऽजि॒त् । दू॒तः । ह॒व्या । क॒विः । व॒ह॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समिद्धो अद्य राजसि देवो देवैः सहस्रजित्। दूतो हव्या कविर्वह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽइद्धः। अद्य। राजसि। देवः। देवैः। सहस्रऽजित्। दूतः। हव्या। कविः। वह ॥ १.१८८.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 188; मन्त्र » 1
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाऽग्निदृष्टान्तेन राजगुणानाह ।

    अन्वयः

    हे सहस्रजित् राजन् समिद्धइव देवैः सह देवः सहस्रजिद्दूतः कविस्त्वमद्य राजसि स त्वं हव्या वह ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (समिद्धः) अग्निरिव प्रदीप्तः (अद्य) (राजसि) प्रकाशसे (देवः) जिगीषुः (देवैः) जिगीषुभिर्वीरैस्सह (सहस्रजित्) यः सहस्राणि शत्रून् जयति सः (दूतः) यो दुनोति परितापयति शत्रुस्वान्तानि सः (हव्या) आदातुमर्हाणि (कविः) विक्रान्तप्रज्ञः (वह) प्रापय ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। योऽग्निरिव दुष्टान् परितापयति सज्जनसङ्गेन शत्रून् विजयते विद्वत्सङ्गेन प्राज्ञः सन् प्राप्तुमर्हाणि वस्तूनि प्राप्नोति स राज्यं कर्त्तुमर्हति ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब ग्यारह ऋचावाले एकसौ अट्ठासी सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में अग्नि के दृष्टान्त से राजगुणों का उपदेश करते हैं।

    पदार्थ

    हे (सहस्रजित्) सहस्रों शत्रुओं को जीतनेवाले राजन् ! (समिद्धः) जलती हुई प्रकाशयुक्त अग्नि के समान प्रकाशमान (देवैः) विजय चाहते हुए वीरों के साथ (देवः) विजय चाहनेवाले और (दूतः) शत्रुओं के चित्तों को सन्ताप देते हुए (कविः) प्रबल प्रज्ञायुक्त आप (अद्य) आज (राजसि) अधिकतर शोभायमान हो रहे हैं सो आप (हव्या) ग्रहण करने योग्य पदार्थों को (वह) प्राप्त कीजिये ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो अग्नि के समान दुष्टों को सब ओर से कष्ट देता, सज्जनों के सङ्ग से शत्रुओं को जीतता, विद्वानों के सङ्ग से बुद्धिमान् होता हुआ प्राप्त होने योग्य वस्तुओं को प्राप्त होता, वह राज्य करने को योग्य है ॥ १ ॥

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    विषय

    हव्य-प्रापण

    पदार्थ

    १. गत सूक्त के अनुसार सात्त्विक अन्न के सेवन से शुद्ध बने हुए हृदय में (समिद्धः) = दीप्त हुए-हुए प्रभो! आप (अद्य) = आज (राजसि) = मेरे जीवन में दीप्त होते हो। मेरे जीवन की सब क्रियाएँ आपकी सत्ता का प्रतिपादन करती हैं । २. (देव:) = आप प्रकाशमय हैं, दिव्यगुणों के पुञ्ज हैं, (देवै:) = माता-पिता, आचार्य व अतिथि आदि देवों के द्वारा मेरे लिए (सहस्रजित्) = सहस्रशः पदार्थों का विजय करनेवाले हैं, (दूतः) = हमें ज्ञान का सन्देश प्राप्त करानेवाले हैं अथवा तपस्या की अग्नि में तपाकर हमें शुद्ध बनानेवाले हैं [दु: उपतापे], (कविः) = अनन्तप्रज्ञ हैं–सर्वज्ञ हैं । आप हमारे लिए (हव्या वह =) हव्य पदार्थों को प्राप्त कराइए । इन यज्ञिय [हव्य] पदार्थों के प्रयोग से हम अपने जीवनों को पवित्र बनाएँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ – प्रभु हममें समिद्ध होकर हमारे जीवनों को दीप्त करते हैं। देवों का सम्पर्क प्राप्त कराके हमें देव बनाते हैं। वे ही हमें सब हव्य पदार्थों को प्राप्त करानेवाले हैं।

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    विषय

    तेजस्वी प्रभु।

    भावार्थ

    ( समिद्धः दैवैः ) खूब तेज से युक्त होकर सूर्य और अग्नि जिस प्रकार किरणों से युक्त होकर सहस्त्रों को अपने वश करता है उसी प्रकार हे परमेश्वर ! हे राजन् ! तू भी (देवः) स्वतः प्रकाशमान्, तेजस्वी, दानशील, ( समिद्धः ) अति तेजस्वी होकर (देवैः) ज्ञानी और वीर, विजयोत्सुक पुरुषों द्वारा ( सहस्रजित ) सहस्रों शत्रुओं को जीत कर (राजसि) सब से अधिक प्रकाशित हो । तू ( दूतः ) दुष्टों का सन्ताप देने हारा, मित्रों से प्रशंसित, ( कविः ) क्रान्तदर्शी होकर (हव्या वह) उत्तम खाद्य पदार्थों को प्राप्त करा।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः । आप्रियो देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, ६, ७, १० निचृद्गायत्री। २, ४, ८, ९, ११ गायत्री ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात अग्नीच्या दृष्टान्ताने राजा, अध्यापक, उपदेशक, स्त्री-पुरुष, ईश्वर व दाता यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे याच्या अर्थाची मागच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो अग्नीप्रमाणे दुष्टांना सगळीकडून त्रास देतो, सज्जनांच्या संगतीने शत्रूंना जिंकतो, विद्वानांच्या संगतीने बुद्धिमान होतो, प्राप्त करण्यायोग्य वस्तू प्राप्त करतो, तो राज्य करण्यायोग्य असतो. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of light, power and generosity, lighted, consecrated, bright and blazing, today rules and shines glorious with the brilliant powers of nature and humanity, having won a thousand foes. O lord of knowledge and wisdom, creative visionary and poetic maker of past, present and future as you are, receiver, mover and harbinger of the fragrances of life in the yajnic evolution of nature and humanity, accept our homage and lead us on the march of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of a ruler.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O ruler! you are conqueror of thousands and are brilliant like the fire. You in order to seek victory shine today along with other brave warriors. They are equally desirous of conquering their foes. You frighten the hearts of the wicked and unjust adversaries and are yourself wise. Convey to us acceptable articles.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    NA

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    He can be a good ruler, who frightens the wicked like the fire. He conquers the foes with the help of righteous persons. In fact, because of their association with the learned people, they become wise and get the objects worth getting.

    Foot Notes

    (देव:) जिगीषु: = Desirous of conquering. (देवैः) जिगीषुभिः वीरैः सह । देवः and देवै: are from दिवु – क्रीडा विजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु ( दिवा ० ) = Along with brave soldiers desirous of conquering foes. Here in both places the meaning of विजिगीषा or the desire of conquering the wicked foes has been taken, while Sayanacharya has interpreted देवै: as देवै: व्यवह्र्र्तृभिऋत्विग्भिः = The priests. He has taken the meaning of = व्यवहार ।(पूतः) या दुनोति परितापयति शत्रुस्वान्तानि सः = He who causes pain in the hearts of his adversaries.

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