ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 190/ मन्त्र 7
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - बृहस्पतिः
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
सं यं स्तुभो॒ऽवन॑यो॒ न यन्ति॑ समु॒द्रं न स्र॒वतो॒ रोध॑चक्राः। स वि॒द्वाँ उ॒भयं॑ चष्टे अ॒न्तर्बृह॒स्पति॒स्तर॒ आप॑श्च॒ गृध्र॑: ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । यम् । स्तुभः॑ । अ॒वन॑यः । न । यन्ति॑ । स॒मु॒द्रम् । न । स्र॒वतः॑ । रोध॑ऽचक्राः । सः । वि॒द्वान् । उ॒भय॑म् । च॒ष्टे॒ । अ॒न्तः । बृह॒स्पतिः॑ । तरः॑ । आपः॑ । च॒ । गृध्रः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सं यं स्तुभोऽवनयो न यन्ति समुद्रं न स्रवतो रोधचक्राः। स विद्वाँ उभयं चष्टे अन्तर्बृहस्पतिस्तर आपश्च गृध्र: ॥
स्वर रहित पद पाठसम्। यम्। स्तुभः। अवनयः। न। यन्ति। समुद्रम्। न। स्रवतः। रोधऽचक्राः। सः। विद्वान्। उभयम्। चष्टे। अन्तः। बृहस्पतिः। तरः। आपः। च। गृध्रः ॥ १.१९०.७
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 190; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
बुद्धिमन्तो विद्यार्थिनः स्तुभोऽवनयो न समुद्रं स्रवतो रोधचक्रा न यमध्यापकं संयन्ति स तरो गृध्रो विद्वान् बृहस्पतिस्तानुभयं चष्टे। अन्तर्बहिश्चाप इवान्तःकरणबाह्यचेष्टाः शोधयति स सर्वेषां सुखकरो भवति ॥ ७ ॥
पदार्थः
(सम्) सम्यक् (यम्) (स्तुभः) स्तम्भिकाः (अवनयः) तटस्था भूमयः (न) इव (यन्ति) गच्छन्ति (समुद्रम्) सागरम् (न) इव (स्रवतः) गच्छन्त्यः (रोधचक्राः) रोधाश्चक्राणि च यासु ता नद्यः। रोधचक्रा इति नदीना०। निघं० १। १३। (सः) (विद्वान्) (उभयम्) व्यवहारपरमार्थसिद्धिकरं विज्ञानम् (चष्टे) उपदिशति (अन्तः) मध्ये (बृहस्पतिः) बृहत्या वाचः पालयिता (तरः) यस्तरति सः (आपः) (च) (गृध्रः) सर्वेषां सुखमभिकाङ्क्षकः ॥ ७ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा सर्वाधारा भूमयः सूर्य्यमभितो गच्छन्ति यथा नद्यः समुद्रं प्रविशन्ति तथा सज्जना आप्तान् विदुषो गत्वा विद्यां प्राप्य धर्ममनुप्रविश्य बहिरन्तर्व्यवहारान् शोधयेयुः ॥ ७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
बुद्धिमान् विद्यार्थीजन (स्तुभः) जलादि को रोकनेवाली (अवनयः) किनारे की भूमियों के (न) समान (समुद्रम्) सागर को (स्रवतः) जाती हुई (रोधचक्राः) भ्रमर मेढ़ा जिनके जल में पड़ते उन नदियों के (न) समान (यम्) जिस अध्यापक को (सम्, यन्ति) अच्छे प्रकार प्राप्त होते हैं (सः) वह (तरः) सर्व विषयों के पार होने (गृध्रः) और सबके सुख को चाहनेवाला (विद्वान्) विद्वान् (बृहस्पतिः) अत्यन्त बढ़ी हुई वाणी वा वेदवाणी का पालनेवाला जन उसको (उभयम्) दोनों अर्थात् व्यावहारिक और पारमार्थिक विज्ञान का (चष्टे) उपदेश देता है तथा (अन्तः) भीतर (च) और बाहर के (आपः) जलों के समान अन्तःकरण की और बाहर की चेष्टाओं को शुद्ध करता है, वह सबका सुख करनेवाला होता है ॥ ७ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सबका आधार भूमि सूर्य्य के चारों और जाती है वा जैसे नदी समुद्र को प्रवेश करती है, वैसे सज्जन श्रेष्ठ विद्वानों और विद्या को प्राप्त हो धर्म में प्रवेश कर बाहरले और भीतर के व्यवहारों को शुद्ध करें ॥ ७ ॥
विषय
नरः, आप [गृध्र:]
पदार्थ
१. (न) = जैसे (अवनय:) = मनुष्य अपने-अपने कर्म के प्रति जाते हैं और (न) = जैसे (स्रवतः) = बहती हुई (रोधचक्राः) = रोधनशील चक्रोंवाली नदियाँ (समुद्रम्) = समुद्र को (यन्ति =) जाती हैं, उसी प्रकार (यम्) = जिसको (स्तुभः) = सब स्तुतियाँ (सं) [यन्ति] = सम्यक् प्राप्त होती हैं । (सः विद्वान्) = वह सर्वज्ञ प्रभु (अन्तः) = अन्दर स्थित हुआ (उभयम्) = दोनों चर और अचर पदार्थों को–स्थावर-जङ्गम सब संसार को (चष्टे) = देखता है। अन्दर स्थित हुआ हुआ वह सबका नियमन करता है। २. (बृहस्पतिः) = बड़े-बड़े आकाशादि लोकों का स्वामी वह प्रभु (आपः) = [आपयति, प्रापयति] इस संसार के विषय-जलों का प्राप्त करानेवाला है (च) = और (तरः) = इनसे तरानेवाला है। ऐहलौकिक उन्नति के लिए ये विषय साधनभूत हैं, अतः आवश्यक हैं, परन्तु पारलौकिक उन्नति के लिए आवश्यक है कि हम इनमें फँसें नहीं। वे प्रभु 'अपः व तरः' बनकर (गृध्र:) = [गृध अभिकांक्षायाम्] हमारी दोनों प्रकार की ही उन्नति की कांक्षा करते हैं। हमें अभ्युदय व निःश्रेयस दोनों को प्राप्त करने के योग्य बनाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ – सब स्तुतियाँ प्रभु को प्राप्त होती हैं। ये प्रभु हमें सब विषयों को प्राप्त कराते हैं उनसे तैरने की शक्ति भी देते हैं ।
विषय
बृहस्पति, सभापति, ब्रह्मा विद्वान्, आदि का वर्णन ।
भावार्थ
जिस विद्वान् के पास (स्तुभः) पास ब्रह्मचर्य से वीर्य का स्तम्भन करने वाले ब्रह्मचारी गण, ( स्तुभः अवनयः न ) उत्तम भूमियां जिस प्रकार स्वामी को प्राप्त होती हैं और (स्रवतः) बहती हुई (रोधचक्राः) तटों और भंवरों वाली नदियां (समुद्रं न) समुद्र को जिस प्रकार आप से आप पहुंच जाती हैं उसी प्रकार ( अवनयः ) विद्या दान के लिये उत्तम भूमि, व्रत और ज्ञान के पालक, (स्तुभः) वीर्य का स्तम्भन करने हारे विद्यार्थी ( स्रवतः ) उदार हृदय, आगे बढ़ने वाले, प्रगति शील ( रोधचक्रः ) निरोध, इन्द्रिय संयम के करने वाले होकर (यं) जिस ( समुद्रं ) विद्या के अगाध सागर रूप प्रजापति, आचार्य विद्वान् को ( यन्ति ) प्राप्त करते हैं । ( सः ) वह ( विद्वान् ) विद्वान् (बृहस्पतिः) बड़े राष्ट्र के स्वामी के समान वेद वाणी या ब्रह्म ज्ञान का पालक (गृधः) विद्यार्थियों को हृदय से चाहता हुआ, या उपदेश योग्य ज्ञान को धारण करने हारा होकर (उभयं) ऐहिक पारमार्थिक विज्ञान दोनों का (चष्टे) उपदेश करता है। वह स्वयं विद्वान् अज्ञानी विद्यार्थियों के लिये (तरः) ज्ञान बढ़ाने और अज्ञान से पार ऊतारने वाला होने से ‘तर’ अर्थात् नौका के समान है और (आपः च) आप्त और जलों के समान उनके आचार चरित्र शुद्ध करने हारा होने से ‘आपः’ है । ( २ ) राजा के पक्ष में—( अवनयः न स्तुभः ) भूमियों के समान स्तुति शील बली और हिंसाकारी सेनाएं और (दोधचक्राः स्रवतः न) बहती नदियों के समान वे वेग से जाने वाले पर राष्ट्र चक्र को रोकने वाली आप से आप प्राप्त होती हैं वह विद्वान् राजा, (गृध्रः) लक्ष्मी का आकांक्षी, (बृहस्पतिः) बड़े राष्ट्र का स्वामी (उभयं अन्तः) स्वपक्ष और परिपक्ष दोनों के बीच खड़ा देखता है। वह स्वयं शत्रुनाशक होने से संग्राम के पार पहुंचाने से दूर है और (आपः च) जलों के समान शत्रु दल के हाल जानने और वज्र समान होने से ‘आपः’ है । (३) परमेश्वर को (स्तुभः) सब स्तुति शील एवं स्तुतियां भी स्वामि को भूमियों के समान और समुद्र को बहती नदियों के समान पहुंचाती हैं । स्तुतियां भी कैसी ? जो बहती हुईं और ‘चक्र’ अर्थात् कर्त्तापन को निरोध करती हुईं। सर्वज्ञ प्रभु सब लोकों का स्वामी स्वयं तराने वाला स्वयं जलों के समान शान्ति कर एवं प्राप्त करने योग्य परम वैद्य है वह दोनों ही भीतर अन्तः करण में दिखाई देते हैं। अथवा ( तरः आपश्च ) वही समुद्र और वही नाव है ।
टिप्पणी
आपौ वै वज्रम् । शत०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ बृहस्पतिर्देवता ॥ छन्दः- १, २, ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ४,८ त्रिष्टुप् । ५, ६, ७ स्वराट् पङ्क्तिः॥ धैवतः स्वरः ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसा सर्वांचा आधार असलेली भूमी सूर्याभोवती प्रदक्षिणा घालते, जशी नदी समुद्रात प्रवेश करते तसे सज्जन श्रेष्ठ विद्वानांनी विद्या प्राप्त करून धर्मात प्रवेश करून आत-बाहेरचा व्यवहार शुद्ध ठेवावा. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Just as the satellites go round Brhaspati, the planet Jupiter, or as the flowing streams with whirlpools reach the sea, so that scholar whom all the praises of devoted admirers reach is Brhaspati, the divine teacher who knows both the inner reality of the spirit and the outer reality of nature and who, keen to save his pupils, calmly watches both the waters of existence and the saving ark of knowledge.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The scholars should have ideal dealings.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The teacher imparts happiness upon all whom students approach. Like the earth, which upholds all the things and revolves around the sun, the rivers go to the sea. Likewise such an upholder of the great Vedic wisdom, crosses the river of miseries. Indeed, he is desirous of bringing about the welfare of mankind, and imparts mundane and spiritual knowledge to all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The earth revolves around the sun and the rivers go towards the sea. Likewise, it is the duty of noble persons to go to the solutely truthful persons, to seek knowledge from them, in order to follow the path of Dharma-(righteousness) and to purify the inner and outer dealings.
Foot Notes
(रोधचक्राः) रोधाश्चक्राणि च यासु ता नद्यः । रोधचक्रा इति नदी नाम (चष्टे) उपदिशतिः (N.G. 1-3) = In the rivers with whirling waves. (चष्टे) उपदिशति = Instructs. (गृध्रः) सर्वेषां सुखम् अभिकांक्षकः = Desirous of the welfare of all. (उभयम् ) व्यवहारपरमार्थसिद्धिकरं विज्ञानम् = Dual knowledge of mundane and spiritual matters.
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