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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 191 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 191/ मन्त्र 12
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - अबोषधिसूर्याः छन्दः - विराड्ब्राह्म्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    त्रिः स॒प्त वि॑ष्पुलिङ्ग॒का वि॒षस्य॒ पुष्य॑मक्षन्। ताश्चि॒न्नु न म॑रन्ति॒ नो व॒यं म॑रामा॒रे अ॑स्य॒ योज॑नं हरि॒ष्ठा मधु॑ त्वा मधु॒ला च॑कार ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रिः । स॒प्त । वि॒ष्पु॒लि॒ङ्ग॒काः । वि॒षस्य॑ । पुष्य॑म् । अ॒क्ष॒न् । ताः । चि॒त् । नु । न । म॒र॒न्ति॒ । नो इति॑ । व॒यम् । म॒रा॒म॒ । आ॒रे । अ॒स्य॒ । योज॑नम् । ह॒रि॒ऽस्थाः । मधु॑ । त्वा॒ । म॒धु॒ला । च॒का॒र॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रिः सप्त विष्पुलिङ्गका विषस्य पुष्यमक्षन्। ताश्चिन्नु न मरन्ति नो वयं मरामारे अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रिः। सप्त। विष्पुलिङ्गकाः। विषस्य। पुष्यम्। अक्षन्। ताः। चित्। नु। न। मरन्ति। नो इति। वयम्। मराम। आरे। अस्य। योजनम्। हरिऽस्थाः। मधु। त्वा। मधुला। चकार ॥ १.१९१.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 191; मन्त्र » 12
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथान्यजीवेभ्यो विषहरणविषयमाह ।

    अन्वयः

    यास्त्रिः सप्त विष्पुलिङ्गका विषस्य पुष्पमक्षन्। ताश्चिन्नुन मरन्ति वयं नो मराम। यो हरिष्ठा अस्य योजनमारे करोति स हे विषधर त्वा त्वां मधु चकार करोति सैषास्य मधुला विद्यास्ति ॥ १२ ॥

    पदार्थः

    (त्रिः) त्रिवारम् (सप्त) (विष्पुलिङ्गकाः) ह्रस्वाः पक्षिणः (विषस्य) (पुष्पम्) पोषितुं योग्यम् (अक्षन्) अदन्ति (ताः) (चित्) इव (नु) सद्यः (न) (मरन्ति) (नो) (वयम्) (मराम) (आरे) (अस्य) (योजनम्) (हरिष्ठाः) (मधु) (त्वा) (मधुला) (चकार) ॥ १२ ॥

    भावार्थः

    यथा जलौका विषहर्यः सन्ति तथैकविंशतिर्ह्रस्वाः पक्षिण्यो विषभक्षिकाः सन्ति तैरौषधैश्च ये विषरोगान्नाशयन्ति ते चिरं जीवन्ति ॥ १२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब और जीवों से विष हरने के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    जो (त्रि, सप्त, विष्पुलिङ्गकाः) इक्कीस प्रकार की छोटी छोटी चिड़ियाँ (विषस्य) विष के (पुष्पम्) पुष्ट होने योग्य पुष्प को (अक्षन्) खाती हैं (ताः, चित्, नु) वे भी (न)(मरन्ति) मरती हैं और (वयम्) हम लोग (नो)(मराम) मरें (हरिष्ठाः) विष हरनेवाला वैद्यवर (अस्य) इस विष का (योजनम्) योग (आरे) दूर करता है, वह हे विषधारी ! (त्वा) तुझे (मधु) मधुरता को (चकार) प्राप्त करता है यही इसकी (मधुला) विषहरण मधु ग्रहण करनेवाली विद्या है ॥ १२ ॥

    भावार्थ

    जैसे जोंक विष हरनेवाली हैं वैसे इक्कीस छोटी-छोटी पक्षिणी पङ्खोंवाली चिड़ियाँ विष खानेवाली हैं। उनसे और ओषधियों से जो विष सम्बन्धी रोगों का नाश करते हैं, वे चिरंजीवी होते हैं ॥ १२ ॥

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    विषय

    विषहर्त्री विष्णुलिङ्गका

    पदार्थ

    १. (त्रिः सप्त) = तीन गुणा सात अर्थात् इक्कीस प्रकार की विष्पुलिङ्गका विष को खा जानेवाली छोटे पक्षियों [चटकाओं] की जातियाँ हैं । (विषस्य) = विष के (पुष्पम्) = प्रबल अंश को (अक्षन्) = खा जाती हैं । २. (ताः) = वे (नु चित्) = निश्चय से (न मरन्ति) = मरती नहीं । (वयं नो मराम) = हम भी मरने से बच जाते हैं। (अस्य योजनम्) = इस विष का सम्पर्क आरे हमसे दूर हो जाता है। ३. (हरिष्ठाः) = इन विष्पुलिङ्गकाओं का विषहरण करनेवालों में ऊँचा स्थान है। ये (त्वा) = तुझे मधु (चकार) = मधु बना देती हैं। यह विष का मधु बना देना ही (मधुला) = मधु को प्राप्त करानेवाली मधुविद्या है।

    भावार्थ

    भावार्थ - छोटी-छोटी चटिकाएँ विष का हरण करनेवाली हैं।

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    विषय

    विष चिकित्सा

    भावार्थ

    ( त्रिः सप्त ) २१ प्रकार की ( विष्पुलिङ्गकाः ) विष खा जाने वाली छोटे पक्षियों की जातियां हैं जो (विषस्य) विष के ( पुष्पम् ) अति पुष्ट या प्रबल अंश को ( अक्षन् ) खा जाती हैं । और वे भी नहीं मरतीं । इसी प्रकार के विष नाशक कारण के विद्यमान रहते हुए भी हम नहीं मर सकते । अस्य योजनं इत्यादि पूर्ववत् ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ अबोषधिसूर्या देवताः॥ छन्द:– १ उष्णिक् । २ भुरिगुष्णिक्। ३, ७ स्वराडुष्णिक्। १३ विराडुष्णिक्। ४, ९, १४ विराडनुष्टुप्। ५, ८, १५ निचृदनुष्टुप् । ६ अनुष्टुप् । १०, ११ निचृत् ब्राह्मनुष्टुप् । १२ विराड् ब्राह्म्यनुष्टुप । १६ भुरिगनुष्टुप् ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे जळू विषहरण करणारे असतात तसे एकवीस लहान लहान पंख असणाऱ्या चिमण्या विष खाणाऱ्या असतात. त्यांच्याद्वारे व औषधींकडून जे वैद्य विषासंबंधी रोगांचा नाश करतात ते दीर्घायू होतात. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Twenty one little birds eat up and consume the flowers of poison. But they do not die for sure, nor would we. The one who would consume poison undisturbed would keep it far off. The honey-science of nature would turn the poison to honey.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    About other non-toxic creatures.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Those little birds of 21 kinds ( known as विष्णुलिङ्गका) consume the effect of the poison. They verily do not perish, nor shall we die. The physician expert in toxicology cures the effects of the poison, removes completely its effects and this science of sweetness (toxicology) converts the poison into an ambrosia.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As leeches alleviate the effect of poison so there are twenty one kinds of small insects, birds etc. that suck up the poison. The persons who destroy fully the toxic symptoms live long.

    Foot Notes

    (विष्पलिङ्गकाः ) हस्वाः पक्षिण: = Small birds of special type (अक्षन्त) अदन्ति । = Eat away or swallow. Which are exactly the birds referred to in the mantra as विष्णुलिङ्गका and which are its twenty one kinds is a matter of research yet, and it should be carried on in the interest of this wonderful science.

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