ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 191/ मन्त्र 14
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - अबोषधिसूर्याः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
त्रिः स॒प्त म॑यू॒र्य॑: स॒प्त स्वसा॑रो अ॒ग्रुव॑:। तास्ते॑ वि॒षं वि ज॑भ्रिर उद॒कं कु॒म्भिनी॑रिव ॥
स्वर सहित पद पाठत्रिः । स॒प्त । म॒यू॒र्यः॑ । स॒प्त । स्वसा॑रः । अ॒ग्रुवः॑ । ताः । ते॒ । वि॒षम् । वि । ज॒भ्रि॒रे॒ । उ॒द॒कम् । कु॒म्भिनीः॑ऽइव ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिः सप्त मयूर्य: सप्त स्वसारो अग्रुव:। तास्ते विषं वि जभ्रिर उदकं कुम्भिनीरिव ॥
स्वर रहित पद पाठत्रिः। सप्त। मयूर्यः। सप्त। स्वसारः। अग्रुवः। ताः। ते। विषम्। वि। जभ्रिरे। उदकम्। कुम्भिनीःऽइव ॥ १.१९१.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 191; मन्त्र » 14
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विषहरणं मयूरिणीप्रसङ्गेनाह।
अन्वयः
हे मनुष्या याः सप्त स्वसारोऽग्रुवो नद्य इव त्रिः सप्त मयूर्यः सन्ति ता उदकं कुम्भिनीरिव ते विषं विजभ्रिरे ॥ १४ ॥
पदार्थः
(त्रिः) (सप्त) एकविंशतिधा (मयूर्यः) मयूराणां स्त्रियः (सप्त) (स्वसारः) भगिन्य इव सर्पादिनाशेन सुखप्रदाः (अग्रुवः) अग्रगामिन्यो नद्यः। अग्रुव इति नदीना०। निघं० १। १३। (ताः) (ते) तुभ्यम् (विषम्) प्राणहरम् (वि) (जभ्रिरे) हरतु (उदकम्) जलम् (कुम्भिनीरिव) यथा जलाधिकारिण्यः ॥ १४ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्या एकविंशतिर्मयूरव्यक्तयः सन्ति ता न हन्तव्याः किन्तु सदा वर्द्धनीया या नद्यः स्थिरजलाः स्युस्ता रोगहेतुत्वान्न सेवनीयाः। यज्जलं चलति सूर्यकिरणान् वायुं च स्पृशति तदुत्तमं रोगहरं भवति ॥ १४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विषहरण को मयूरिणियों के प्रसङ्ग से कहते हैं ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (सप्त) सात (स्वसारः) बहनियों के समान तथा (अग्रुवः) आगे जानेवाली नदियों के समान (त्रि सप्त) इक्कीस (मयूर्यः) मोरिनी हैं (ताः) वे (उदकम्) जल को (कुम्भिनीरिव) जल का जिनके अधिकार है वे घट ले जानेवाली कहारियों के समान (ते) तेरे (विषम्) विष को (वि, जभ्रिरे) विशेषता से हरें ॥ १४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को जो इक्कीस प्रकार की मयूर की व्यक्ति हैं वे न मारनी चाहियें किन्तु सदैव उनकी वृद्धि करने योग्य है। जो नदी स्थिर जलवाली हो वे रोग के कारण होने से न सेवनी चाहिये। जो जल चलता है, सूर्यकिरण और वायु को छूता है, वह रोग दूर करनेवाला उत्तम होता है ॥ १४ ॥
विषय
विषहर्त्री मयूरी
पदार्थ
१. (त्रिः सप्त) = इक्कीस प्रकार की (मयूर्य:) = मयूर जाति की पक्षिणियाँ हैं और (सप्त) = सात (स्वसारः) = स्वयं सरणशील (अग्रुवः) = गङ्गादि नामवाली नदियाँ हैं [अग्रुः = a river] । स्वयं सरणशील वे नदियाँ हैं जो वर्षा ऋतु में ही न चलकर सदा प्रवाहित रहती हैं। (ता:) = वे (ते) = तेरे (विषम्) = विष को (विजभ्रिरे) = विशेषरूप से हरण करनेवाली हैं, (इव) = उसी प्रकार जैसे कि (उदकम्) = पानी को (कुम्भिनीः) = कहारिन हरनेवाली होती हैं । २. जैसे सदा प्रवाहशील नदियों के जल का विष पर प्रभाव पड़ता है, उसी प्रकार मयूरी भी विष का हरण करनेवाली है । सम्भवतः ये मयूरी जाति के पक्षी इक्कीस प्रकार के हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- मयूरी विषहरण करनेवाली है। इसी प्रकार सदा प्रवाहवाली नदियों का जल विष को दूर करता है।
विषय
विष चिकित्सा
भावार्थ
(त्रिः सप्त मयूर्यः) ३ ᳵ ७ = २१ प्रकार के मयूर जाति के पक्षि हैं और (सप्त स्वसारः) सात प्रकार की स्वयं गति करने वाली (अग्रुवः) नदियां या नाड़ियां होती हैं । वे सब (विषं विजभ्रिरे) विशेष रूप से विष को ऐसे दूर करती हैं, जैसे कहारियां या नदियां जल को हर ले जाती हैं । उनके पुनः स्पर्श से विष दूर हो जाता है। मुर्गी की जातियों का गुदा भाग सर्प के काटे के विष को बार २ लगाने से चूस लेता है। क्रम से एक के बाद एक लगाने से २१ मुर्गियों के बाद विष शमन हो जाता है। ऐसे पक्षियों की २१ प्रकारें होना सम्भव हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ अबोषधिसूर्या देवताः॥ छन्द:– १ उष्णिक् । २ भुरिगुष्णिक्। ३, ७ स्वराडुष्णिक्। १३ विराडुष्णिक्। ४, ९, १४ विराडनुष्टुप्। ५, ८, १५ निचृदनुष्टुप् । ६ अनुष्टुप् । १०, ११ निचृत् ब्राह्मनुष्टुप् । १२ विराड् ब्राह्म्यनुष्टुप । १६ भुरिगनुष्टुप् ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्या एकवीस प्रकारच्या मयुरी आहेत त्यांना मारू नये; परंतु त्यांची सदैव वृद्धी करावी. जी नदी स्थिर जल असणारी आहे तिचे जल रोग होईल म्हणून पिता कामा नये. जे जल प्रवाहित होत असते, सूर्य किरण व वायूचा त्याला स्पर्श होतो ते रोग दूर करणारे असते. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May the twentyone peahens and seven sisterly streams and rivers flowing on and on collect and carry off the poison as female water carriers carry water in their jars.$This little poisonous insect that comes to me, this little mongoose, that holds the poison, I strike with a gem stone. The poison flows, and I collect and isolate the poison from the area as an antidote.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Eradication of the ill effects of poison is narrated by the illustration the peahens.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
May the thrice seven (21) kinds of peahens, cause happiness like seven sisters by destroying the serpents. Let the Vaidya eradicate your poison, as maidens, with pitchers, carry away water.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should never kill twenty one kinds of peahens, rather they should feed them well. Those rivers which are of stagnant water should not be used for bath, as they cause diseases in absence of flow of fresh water. The water that flows and touches the rays of the sun and air, is good remover of diseases.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal