ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 191/ मन्त्र 16
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - अबोषधिसूर्याः
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
कु॒षु॒म्भ॒कस्तद॑ब्रवीद्गि॒रेः प्र॑वर्तमान॒कः। वृश्चि॑कस्यार॒सं वि॒षम॑र॒सं वृ॑श्चिक ते वि॒षम् ॥
स्वर सहित पद पाठकु॒षु॒म्भ॒कः । तत् । अ॒ब्र॒वी॒त् । गि॒रेः । प्र॒ऽव॒र्त॒मा॒न॒कः । वृश्चि॑कस्य । अ॒र॒सम् । वि॒षम् । अ॒र॒सम् । वृ॒श्चि॒क॒ । ते॒ । वि॒षम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
कुषुम्भकस्तदब्रवीद्गिरेः प्रवर्तमानकः। वृश्चिकस्यारसं विषमरसं वृश्चिक ते विषम् ॥
स्वर रहित पद पाठकुषुम्भकः। तत्। अब्रवीत्। गिरेः। प्रऽवर्तमानकः। वृश्चिकस्य। अरसम्। विषम्। अरसम्। वृश्चिक। ते। विषम् ॥ १.१९१.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 191; मन्त्र » 16
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 6
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ वृश्चिकादिविषहरणविषयमाह ।
अन्वयः
गिरेः प्रवर्त्तमानकः कुषुम्भको वृश्चिकस्य विषमरसं यदब्रवीत्तत्ततो हे वृश्चिक तेऽरसं विषमस्ति ॥ १६ ॥
पदार्थः
(कुषुम्भकः) अल्पः कुषुम्भो नकुलः (तत्) (अब्रवीत्) ब्रूते (गिरेः) शैलात् (प्रवर्त्तमानकः) प्रकृष्टतया वर्त्तमानः (वृश्चिकस्य) (अरसम्) अविद्यामानरसम् (विषम्) (अरसम्) (वृश्चिकः) यो वृश्चति छिनत्त्यङ्गानि तस्य (ते) तस्य (विषम्) ॥ १६ ॥
भावार्थः
मनुष्या वृश्चिकादिविषनिवारकं पर्वतीयनकुलसंरक्षणं कुर्युर्यतो विषरोगनिवारणक्षमा भवेयुरिति ॥ १६ ॥ अत्र विषहरौषधजीवविषवैद्यानां गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति एकनवत्युत्तरं शततमं सूक्तं षोडशो वर्गश्चतुर्विंशोऽनुवाकः प्रथमं मण्डलञ्च समाप्तम् ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब वीछी आदि के विष हरने के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(गिरेः) पर्वत से (प्रवर्त्तमानकः) प्रवृत्त हुआ (कुषुम्भकः) छोटा नेउला (वृश्चिकस्य) वीछी के (विषम्) विष को (अरसम्) नीरस जो (अब्रवीत्) कहता अर्थात् चेष्टा से दूसरों को जताता है (तत्) इस कारण हे (वृश्चिक) अङ्गों को छेदन करनेवाले प्राणी (ते) तेरे (अरसम्) अरस (विषम्) विष है ॥ १६ ॥
भावार्थ
मनुष्य वीछी आदि छोटे-छोटे जीवों के विष हरनेवाले पर्वतीय निउले का संरक्षण करें, जिससे विष-रोगों को निवारण करने में समर्थ होवें ॥ १६ ॥इस सूक्त में विष हरनेवाली ओषधी, विष हरनेवाले जीव और विषहारी वेद्यों के गुण का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्तार्थ के साथ सङ्गति है, यह समझना चाहिये ॥यह एकसौ एक्यानवाँ सूक्त और सोलहवाँ वर्ग चौबीसवाँ अनुवाक और प्रथम मण्डल समाप्त हुआ ॥।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां परमविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्यभाषाभ्यां समन्विते सुप्रमाणयुक्ते सुभाषाविभूषिते ऋग्वेदभाष्ये प्रथमं मण्डलं समाप्तम् ॥
विषय
पर्वतीय नकुल का तीव्र विष
पदार्थ
१. (गिरेः प्रवर्तमानक:) = पर्वत से शीघ्रता से आता हुआ (कुषुम्भकः) = नकुल (तत् अब्रवीत्) = वह बात कहता है कि (वृश्चिकस्य विषम्) = बिच्छू का विष (अरसम्) = रस-शून्य है । हे (वृश्चिक) = बिच्छू ! (ते विषम्) = तेरा विष (अरसम्) = विषरहित है। नेवले के विष के सामने बिच्छू का विष अत्यन्त तुच्छ है। उसके विष में कोई सार प्रतीत नहीं होता ।
भावार्थ
भावार्थ - नेवले का रस (विष) अत्यन्त तीव्र है। उसकी तुलना में वृश्चिक का विष सारशून्य है।
विषय
विष चिकित्सा
भावार्थ
(कुषुम्भकः) छोटा सा नेवला ही जो (गिरेः प्रवर्त्तमानकः) पर्वत से ही पला हुआ आता है वह ( तत् अब्रवीत् ) यह उपदेश करता है। ( वृश्चिकस्य ) वृश्चिक का (विषम्) विष उससे ( अरसम्) निर्बल है । तो फिर हे (वृश्चिक) काटने वाले जन्तु ! बिच्छू ! (ते विषम् अरसम्) तेरा विष अब प्रबल विष नहीं है । तेरी भी ओषधि नकुल आदि प्राणियों में विद्यमान है। इस सूक्त के ८वें मन्त्र में सूर्य को जहां विष नाशक बतलाया है वहां सूर्य वर्ग में पठित अर्क पत्री, आदित्यभक्ता आदि ओषधियों का भी उपदेश विष प्रयोग पर जानना चाहिये ।
टिप्पणी
‘अर्क’ के अनुभूत चिकित्सा सागर में नीचे लिखे गुण प्राप्त होते हैं ( १ ) सर्प का विष उतारने के लिये उसके दंश पर आकड़े का दूध टपकाता रहे जब तक शरीर में विष रहेगा तब तक दूध सुखता रहेगा जब विष का दोष शरीर में न रहेगा तब दश पर भी दूध न सूखेगा । ( अनु० चि० २८ । ७६ । ) ( २ ) अर्क की तीन कोंपलें गुड़ में लपेट, खिलाकर ऊपर घी पिलाने से सांप का विष उतरता है । अनु० चि० २८ । ७८ ॥ ( ३ ) विच्छू के दंश पर अर्क का दूध लगाने से उसका विष उतर जाता है । अनु० चि० २८ । ७९ ॥ इसकी जड़ पानी के साथ पीसकर पिलाने से सांप का विष उतरता है। (अनु० चि० २८ । ८०) (४) अर्कपत्री—इसको घिस कर लगाने से विच्छू का विष उतरता है। ( ५ ) इसको सर्प दंश पर लगाने और खिलाने से सर्प का विष उतरता है (अनु० चि० ३०। ३, ७) मन्त्रों में ‘हरिष्ठाः’ शब्द है । कदाचित् वह हरीठा हो । हरीठा के गुण—इसकी गिरी को पानी में पीसकर पिलाने से विष उतर जाता है । इस सम्बन्ध में अथर्ववेद के निम्न लिखित सूक्त भी विशेष प्रकाश डालते हैं । अथर्व० (५ । १३ । १-११ ), (५। २३ । १-१३ ), (४। ३१ । १-१२ ), ( २ । २३ । १-६ ) ( ६ । १२ । १-३ ) ( ६ । ५२ । १-३ ) ( ७ । ५६ । १-८) (१० । ४ । १-२६ ) इनमें सर्प विष के प्रकार, अन्य विषैले जन्तु, उनकी ओषधियों, सर्पों की जातियों, वृश्चिक, तथा विश्वदृष्ट, सूर्य आदि का प्रकारान्तर से न्यूनाधिक वर्णन है । इति षोडशो वर्गः ॥ इति चतुर्विंशोऽनुवाकः ॥ * इति प्रथमं मण्डलं समाप्तम् *
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ अबोषधिसूर्या देवताः॥ छन्द:– १ उष्णिक् । २ भुरिगुष्णिक्। ३, ७ स्वराडुष्णिक्। १३ विराडुष्णिक्। ४, ९, १४ विराडनुष्टुप्। ५, ८, १५ निचृदनुष्टुप् । ६ अनुष्टुप् । १०, ११ निचृत् ब्राह्मनुष्टुप् । १२ विराड् ब्राह्म्यनुष्टुप । १६ भुरिगनुष्टुप् ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी वृश्चिक इत्यादीचे विष नष्ट करणाऱ्या पर्वतीय मुंगुस इत्यादी प्राण्यांचे संरक्षण करावे. ज्यामुळे विष रोगाचे निवारण करण्यास ते समर्थ व्हावेत. ॥ १६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
In fact every poison, it seems, carries its own antidote which has to be isolated, analysed and developed like all the vaccines in modern medicine and all the drugs in homeopathic medicine. The dose of the poison would depend upon the effect desired as in the case of all stimulants, intoxicants and painkillers.$The myth of churning of the ocean by the Devas and Asuras (gods and demons) is an all-time symbol of the contradictions alias complementarities of nature, whichever way you want to put it. It shows that both nectar and poison are born of the ocean of nature and the power that consumes and assimilates the poison for the sake of the continuance of life and existence is Shiva, lord of nature’s justice and ferocity on the one hand, and lord of the saving grace of Divinity on the other. The word for this power of turning contradiction into complementarity, and turning the poison into honey- sweet nectar in this Sukta is ‘Harishtha’. For references to Madhu Vidya or the honey science of nectar we may turn to Yajurveda and the Upanishads specially Chhandogya Upanishad 3, 1-5, and Brhadaranyaka Upanishad, 2, 5, 1-19.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Treating the poison of scorpions etc.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The small or insignificant mongoose grown in a mountain thus speaks (metaphorically). O scorpion ! your venom is innocuous (harmless).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The persons should protect and feed hilly mongooses, as they can remove the poison of the scorpion. In fact, they may destroy the diseases caused by poisoning.
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