Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 191 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 191/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - अबोषधिसूर्याः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    द्यौर्व॑: पि॒ता पृ॑थि॒वी मा॒ता सोमो॒ भ्रातादि॑ति॒: स्वसा॑। अदृ॑ष्टा॒ विश्व॑दृष्टा॒स्तिष्ठ॑ते॒लय॑ता॒ सु क॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्यौः । वः॒ । पि॒ता । पृ॒थि॒वी । मा॒ता । सोमः॑ । भ्राता॑ । अदि॑तिः । स्वसा॑ । अदृ॑ष्टाः । विश्व॑ऽदृश्टाः । तिष्ठ॑त । इ॒लय॑त । सु । क॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्यौर्व: पिता पृथिवी माता सोमो भ्रातादिति: स्वसा। अदृष्टा विश्वदृष्टास्तिष्ठतेलयता सु कम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्यौः। वः। पिता। पृथिवी। माता। सोमः। भ्राता। अदितिः। स्वसा। अदृष्टाः। विश्वऽदृष्टाः। तिष्ठत। इलयत। सु। कम् ॥ १.१९१.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 191; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे अदृष्टा विश्वदृष्टा येषां द्यौर्वः पिता पृथिवी माता सोमो भ्राताऽदितिः स्वसाऽस्ति ते यूयं सु कं तिष्ठत स्वस्थानमिलयत च ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (द्यौः) सूर्यइव (वः) युष्माकम् (पिता) (पृथिवी) अवनिरिव (माता) (सोमः) चन्द्रइव (भ्राता) (अदितिः) अदितिरदीना देवमाता । निरु० ४। २२। (स्वसा) भगिनी (अदृष्टाः) ये न दृश्यन्ते ते (विश्वदृष्टाः) विश्वैस्सर्वैर्दृष्टा ये ते (तिष्ठत) स्थिरा भवत (इलयत) गच्छत। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः। (सु) (कम्) सुखम् ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विषधारिणो जीवास्ते संशमनाद्युपायैर्निवारणीया औषध्यादिभिर्विषास्संवारणीयाः ॥ ६ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अदृष्टाः) दृष्टिगोचर न होनेवाले और (विश्वदृष्टाः) सबके देखे हुए विषधारियो ! जिनका (द्यौः) सूर्य के समान सन्ताप करनेवाला (वः) तुम्हारा (पिता) पिता (पृथिवी) पृथिवी के समान (माता) माता (सोमः) चन्द्रमा के समान (भ्राता) भ्राता और (अदितिः) विद्वानों की अदीन माता के समान (स्वसा) बहिन है वे तुम (सु, कम्) उत्तम सुख जैसे हो (तिष्ठत) ठहरो और अपने स्थान को (इलयत) जावो ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विषधारी प्राणी हैं, वे शान्त्यादि उपायों से ओर ओषध्यादिकों से विषनिवारण करने चाहियें ॥ ६ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्राणियों का परस्पर बन्धुत्व

    पदार्थ

    १. हे सर्पादि कृमियो ! (द्यौः) = द्युलोक (वः) = तुम्हारा (पिता) = पिता है, (पृथिवी) = पृथिवी (माता) = माता है, (सोमः) = चन्द्रमा तुम्हारा (भ्राता) = भाई है तथा (अदितिः) = यह अन्तरिक्ष (स्वसा) = स्वसृस्थानापन्न बहिन है। इस प्रकार तुम्हारा महत्त्व है। २. (अदृष्टाः) = तुम हमसे अदृष्ट हो । अँधेरे के कारण और छुपे हुए होने के कारण हम तुम्हें देख नहीं पाते, परन्तु तुम (विश्वदृष्टाः) = सबको देखनेवाले हो, (तिष्ठत) = तुम अपने-अपने स्थान पर स्थित हो और वहाँ स्थित होते हुए वायुशोधन आदि कार्यों को करते हुए तुम (सु) = अच्छी प्रकार (कम्) = सुख को (इलयता) = हम सबके लिए प्रेरित करनेवाले होओ। ३. वस्तुतः जो द्युलोक हमारा पितृस्थानापन्न है, वही द्युलोक इन सर्पादि का भी पिता है। इसी प्रकार पृथिवी प्राणिमात्र की माता है । चन्द्रमा भाई के समान है और अन्तरिक्ष बहिन के। इस प्रकार इन सर्पादि से भी हमारा बन्धुत्व है । यदि गलती से हमारा हाथ-पाँव इन पर न पड़ जाए तो ये हमें काटते नहीं। इन सब कृमियों की भी इस ब्रह्माण्ड में अपनी-अपनी उपयोगिता है जिसका ज्ञान न होने से ये हमें व्यर्थ व हानिकर दिखने लगते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - सब प्राणियों के पिता व माता द्युलोक व पृथिवीलोक हैं। इस प्रकार प्राणियों का परस्पर बन्धुत्व है। अपने-अपने स्थान में स्थित सभी प्राणी कल्याणकर हैं ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    विषैले जीवों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( द्यौः) सूर्य या आकाश, मेघादि वृष्टि द्वारा पालक होने से ( वः पिता ) तुम जीवों का पालक, पिता के समान है । ( पृथिवी माता) यह पृथिवी सबकी माता के समान है। (सोमः भ्रातः) ओषधि गण और चन्द्रमा भरण करने वाला होने से सबके भ्राता के समान है । (अदितिः) ये सब उत्पन्न जीव जन्तु ( स्वसा ) सब अपने २ सामर्थ्य से चलते, सरकने वाले या सुख से रहने वाले होने से ‘स्वसा’ अर्थात् भगिनी के समान हैं । ये ( अदृष्टाः ) कुछ जो दिख नहीं पड़ते, दूसरे ( विश्व दृष्टाः ) जो सबको दिख पड़ते हैं वे सभी (तिष्ठत) हे जन्तु गणो ! तुम रहो और ( सुकम् इळयत ) अच्छी प्रकार सुख पूर्वक विचरो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ अबोषधिसूर्या देवताः॥ छन्द:– १ उष्णिक् । २ भुरिगुष्णिक्। ३, ७ स्वराडुष्णिक्। १३ विराडुष्णिक्। ४, ९, १४ विराडनुष्टुप्। ५, ८, १५ निचृदनुष्टुप् । ६ अनुष्टुप् । १०, ११ निचृत् ब्राह्मनुष्टुप् । १२ विराड् ब्राह्म्यनुष्टुप । १६ भुरिगनुष्टुप् ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे विषधारी प्राणी आहेत त्यांच्या विष शमनासाठी शांतीचे उपाय व औषधी वगैरे उपायांनी निवारण केले पाहिजे. ॥ ६ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O seeds, parasites, insects and other carriers of poison such as bacteria and viruses, the heaven of light is your father, creator, the earth is your mother, feeder, soma is your brother and nature’s fertility is your sister (since both nectar and poison are bom of the creative power of nature). Unseen and yet universally seen and known are you all. Why move, better be still for the sake of good and comfort?

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Way to the cure of poison victims.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O visible or invisible venomous creatures the sun is like your father, while the earth is your mother ; (moon) SOME is brother, while Aditi or Prakriti ( matter) is the sister. Abide in your own holes, enjoy your own pleasure, but do not give trouble to other beings.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The venomous creatures should be kept away by means of insecticides and other alleviating drugs. Moreover, their poison should be treated by appropriate tranquilizing medicines.

    Foot Notes

    (सोम:) चन्द्र: = Moon. ( इलपत ) गच्छत । अव अन्येषामपीति दीर्घः = Go away. (द्यौः) सूर्य : = The sun (अदितिः) अदितिः । अदीना देवमाता (N.K.T. 4.22) = The mother of all divine objects the matter.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top