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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 2/ मन्त्र 9
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    क॒वी नो॑ मि॒त्रावरु॑णा तुविजा॒ता उ॑रु॒क्षया॑। दक्षं॑ दधाते अ॒पस॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क॒वी इति॑ । नः॒ । मि॒त्रावरु॑णा । तु॒वि॒ऽजा॒तौ । उ॒रु॒ऽक्षया॑ । दक्ष॑म् । द॒धा॒ते॒ इति॑ । अ॒पस॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कवी नो मित्रावरुणा तुविजाता उरुक्षया। दक्षं दधाते अपसम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कवी इति। नः। मित्रावरुणा। तुविऽजातौ। उरुऽक्षया। दक्षम्। दधाते इति। अपसम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    इमावस्माकं किं किं धारयत इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    इमौ तुविजातावुरुक्षयौ कवी मित्रावरुणौ नोऽस्माकं दक्षमपसं च दधाते धरतः॥९॥

    पदार्थः

    (कवी) क्रान्तदर्शनौ सर्वव्यवहारदर्शनहेतू। कविः क्रान्तदर्शनो भवति कवतेर्वा। (निरु०१२.१३) एतन्निरुक्ताभिप्रायेण कविशब्देन सुखसाधकौ मित्रावरुणौ गृह्येते। (नः) अस्माकम् (मित्रावरुणौ) पूर्वोक्तौ (तुविजातौ) बहुभ्यः कारणेभ्य उत्पन्नौ बहुषु वा प्रसिद्धौ। तुवीति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) (उरुक्षया) बहुषु जगत्पदार्थेषु क्षयो निवासो ययोस्तौ। अत्र सुपां सुलुगित्याकारः। उर्विति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) ‘क्षि निवासगत्योः’ अस्य धातोरधिकरणार्थः क्षयशब्दः। (दक्षम्) बलम् (दधाते) धरतः (अपसम्) कर्म। अप इति कर्मनामसु पठितम्। (निरु०२.१) व्यत्ययो बहुलमिति लिङ्गव्यत्ययः। इदमपि सायणाचार्य्येण न बुद्धम्॥९॥

    भावार्थः

    ब्रह्माण्डस्थाभ्यां बलकर्मनिमित्ताभ्यामेताभ्यां सर्वेषां पदार्थानां सर्वचेष्टाविद्ययोः पुष्टिधारणे भवत इति॥९॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    वे हम लोगों के कौन-कौन पदार्थों के धारण कनरेवाले हैं, इस बात का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    (तुविजातौ) जो बहुत कारणों से उत्पन्न और बहुतों में प्रसिद्ध (उरुक्षया) संसार के बहुत से पदार्थों में रहनेवाले (कवी) दर्शनादि व्यवहार के हेतु (मित्रावरुणा) पूर्वोक्त मित्र और वरुण हैं, वे (नः) हमारे (दक्षम्) बल तथा सुख वा दुःखयुक्त कर्मों को (दधाते) धारण करते हैं॥९॥

    भावार्थ

    जो ब्रह्माण्ड में रहनेवाले बल और कर्म के निमित्त पूर्वोक्त मित्र और वरुण हैं, उनसे क्रिया और विद्याओं की पुष्टि तथा धारणा होती है॥९॥

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    विषय

    कवि - तुविजात - उरुक्षय

    पदार्थ

    १. मन्त्रसंख्या सात में 'मित्र व वरुण' को बलवर्धक व हिंसा का नाशक कहा था । उसी भाव को पुष्ट करते हुए कहते हैं कि (मित्रावरुणा) - ये स्नेह व निर्द्वेषता (नः) - हमारे लिए (दक्षम्) - बल को तथा (अपसम्) - व्यापक व उदार कर्म को , गत मन्त्र के 'बृहत्क्रतु' को (दधाते) - धारण करते हैं । हम अपने जीवन में सदा व्यापक कर्मों को करनेवाले होते हैं , जब कि हम द्वेष से ऊपर उठकर कार्य करते हैं । हमारे कर्म शक्तिशाली होते हैं , जबकि वे प्रेम से प्रेरित होते हैं । मित्र - देवता वा स्नेह हममें 'दक्ष' का धारण कराता है तो 'वरुण' निर्द्वेषता हमारे कर्मों को अपस-व्यापक [अप् व्याप्तौ] बनाती है ।

    २. ये मित्रावरुण (कवी) - क्रान्तदर्शी हैं , हमारी बुद्धि को तीव्र बनाते हैं । यह सूक्ष्म बुद्धि ही तो हमें अन्ततः प्रभुदर्शन के योग्य बनाती है ।

    ३. (तुविजाता) - ['तुवि बहु  , बहूनामुपकारकतया समुत्पन्नौ' - सायण] ये मित्र और वरुण तो मानो बहुतों के उपकारक के रूप में ही उत्पन्न हुए हैं , अर्थात् इन दो भावनाओं के होने पर इनके कार्य अधिक-से-अधिक प्राणियों का हित करनेवाले होते हैं , इनके कार्य स्वार्थ के संकुचित दृष्टिकोण से न होकर परार्थ की विशाल भावना से प्रेरित होते हैं ।

    ४. (उरुक्षया) - ये विशाल निवासवाले [क्षि निवासे] होते हैं , ये विशालता में ही निवास करते हैं , ये कभी भी संकुचित भावनाओं को अपने में उत्पन्न नहीं होने देते , परिणामतः ये विशाल गतिवाले [क्षि - गति] होते हैं , इनके कार्य उदार होते हैं ।

     

     

     

     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम मित्र और वरुण की उपासना से ' कवि , तुविजात व उरुक्षय ' बनें ।

    विशेष / सूचना

    विशेष - इस द्वितीय सूक्त में जीव प्रभु को 'वायु' नाम से स्मरण करता हुआ प्रभु की वेदवाणी को प्राप्त करने की कामना करता है [१-३] । प्रभु जितेन्द्रिय व क्रियाशील बनने के लिए कहते हैं और सोमकणों की रक्षा का ध्यान कराते हैं [४-६] । जीव अपने जीवन में स्नेह व निर्द्वेषता का व्रत लेता है और बहुतों का उपकारक व उदार बनकर जीने का निश्चय करता है [७-९] ।

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    विषय

    वे हम लोगों के कौन-कौन पदार्थों के धारण करनेवाले हैं, इस बात का प्रकाश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    इमौ तुविजाताऔ उरुक्षयौ कवी मित्रावरुणौ नः (अस्माकम्) दक्षम् अपसं च दधाते धरतः॥९॥

    पदार्थ

    (इमौ)=ये दोनों, (तुविजातौ) बहुभ्यः कारणेभ्य उत्पन्नौ बहुषु वा प्रसिद्धौ= जो बहुत कारणों से उत्पन्न और बहुतों में प्रसिद्ध, (उरुक्षयौ) बहुषु जगत्पदार्थेषु क्षयो निवासो ययोस्तौ= संसार के बहुत से पदार्थों में रहनेवाले, (कवी) क्रान्तदर्शनौ सर्वव्यवहारदर्शनहेतू= दर्शनादि व्यवहार के हेतु, (मित्रावरुणौ) पूर्वोक्तौ= पिछले मन्त्र में कहे गए मित्र और वरुण हैं, (नः) अस्माकम्= हमारे, (दक्षम्) बलम्= बल तथा सुख वा दुःखयुक्त, (अपसम्) कर्म = कर्मों को, (च) =भी, (दधाते) धरतः=धारण करते हैं॥९॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो ब्रह्माण्ड में रहनेवाले बल और कर्म के निमित्त पूर्वोक्त मित्र और वरुण हैं, उनसे क्रिया और विद्याओं की पुष्टि तथा धारणा होती है॥९॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- मित्र और वरुण को ऋग्वेद के मन्त्र संख्या- (ऋग्वेद ०१.०२.०८) मंह स्पष्ट क्या गया है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (इमौ) ये दोनों (तुविजातौ) जो बहुत कारणों से उत्पन्न और बहुतों में प्रसिद्ध हैं; (उरुक्षयौ) संसार के बहुत से पदार्थों में रहनेवाले (कवी) और दर्शनादि व्यवहार के हेतु (मित्रावरुणौ) पिछले मन्त्र में कहे गए मित्र और वरुण हैं। ये (नः) हमारे (दक्षम्) बल तथा सुख वा दुःखयुक्त (अपसम्) कर्मों को (च) भी (दधाते) धारण करते हैं॥९॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (कवी) क्रान्तदर्शनौ सर्वव्यवहारदर्शनहेतू। कविः क्रान्तदर्शनो भवति कवतेर्वा। (निरु०१२.१३) एतन्निरुक्ताभिप्रायेण कविशब्देन सुखसाधकौ मित्रावरुणौ गृह्येते। (नः) अस्माकम् (मित्रावरुणौ) पूर्वोक्तौ (तुविजातौ) बहुभ्यः कारणेभ्य उत्पन्नौ बहुषु वा प्रसिद्धौ। तुवीति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) (उरुक्षया) बहुषु जगत्पदार्थेषु क्षयो निवासो ययोस्तौ। अत्र सुपां सुलुगित्याकारः। उर्विति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) 'क्षि निवासगत्योः' अस्य धातोरधिकरणार्थः क्षयशब्दः। (दक्षम्) बलम् (दधाते) धरतः (अपसम्) कर्म। अप इति कर्मनामसु पठितम्। (निरु०२.१) व्यत्ययो बहुलमिति लिङ्गव्यत्ययः। इदमपि सायणाचार्य्येण न बुद्धम्॥९॥
    विषयः- इमावस्माकं किं किं धारयत इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- इमौ तुविजातावुरुक्षयौ कवी मित्रावरुणौ नोऽस्माकं दक्षमपसं च दधाते धरतः॥९॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- ब्रह्माण्डस्थाभ्यां बलकर्मनिमित्ताभ्यामेताभ्यां सर्वेषां पदार्थानां सर्वचेष्टाविद्ययोः पुष्टिधारणे भवत इति॥९॥

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    विषय

    मित्र और वरुण नाम से वायु, सूर्य, प्राण, अपान, न्यायाधीश और राजा ।

    भावार्थ

    (कवी) क्रान्तदर्शी, दूरदर्शी, परम विद्वान् (मित्रावरुण) पूर्व कहे मित्र और वरुण दोनों (तुविजाता) बहुतसे सहकारी जनों से सामर्थ्य वान् एव बहुतों में प्रसिद्ध, ( उरुक्षया ) बहुतों से निवास स्थानों में, अथवा विशाल निवासस्थानों में रहनेवाले होकर ( अपसम् ) कर्म ( दक्षं च ) और बल ( दधाते ) धारण करते हैं । वे राष्ट्र के सब कार्यों और अधिकारों को अपने वश करते हैं । भौतिक पक्ष में—अग्नि वायु दोनों, समस्त व्यवहारदर्शक होने से ‘कवि’ हैं । बहुत कारणों से उत्पन्न होने से ‘तुविजात’ हैं । महान् अन्तरिक्ष में व्यापक होने से ‘उरुक्षय’ हैं वे ज्ञान और क्रियाओं को उत्पन्न करते हैं । इति चतुर्थो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मधुच्छन्दाः ऋषिः ॥ १-३ वायुर्देवता । ४-६ इन्द्रवायू । ७-९ मित्रा वरुणौ । गायत्र्यः ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ब्रह्मांडात असणारे बल व कर्मानिमित्त पूर्वोक्त जे मित्र व वरुण आहेत, त्यांच्याकडून क्रिया व विद्या यांची पुष्टी व धारणा होते. ॥ ९ ॥

    टिप्पणी

    या सूक्तार्थाचा सायणाचार्य इत्यादी व विल्सन इत्यादी युरोप देशवासी लोकांनी वेगळाच अर्थ सांगितलेला आहे.

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    Creative, illuminative and inspiring, Mitra and Varana, sun and pranic energy, like the breath of life, are universally pervasive and mighty potent, and both wield the divine power of versatile action.

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    Translation

    O supreme Lord of cosmic enlightenment, may we attain prosperity through our selfless work and may we be strong to accomplish them. O Lord, you exist for the benefit of all of us - so we think. You are the refuge of multitudes.

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    Subject of the mantra

    They hold which substances of ours, this has been elucidated in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (imau)=these two. (tuvijātau)=those who were born out of many reasons and are famous in many, (urukṣayau)=residing in many substances of earth, (kavī)=cause of viewing habit etc, (mitrāvaruṇau) = the Mitra and Varuna said in the previous mantra are, [ye]=These, (naḥ)=our, (dakṣam)=power and delightful or sorrowful, (apasam)=deeds, (ca)=also, (dadhāte)=possess.

    English Translation (K.K.V.)

    These two, who were born out of many reasons and are famous in many are residing in many substances of the earth and are cause of viewing habit et cetera. These are Mitra and Varuna, said in the previous mantra. These possess our power and our delightful or sorrowful deeds.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Those who are the aforesaid Mitra and Varuṇa for the forces and actions residing in the universe, the actions and knowledge are nourished and assumed by them.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    Mitra and Varuna have been explained in mantra no. 01.02.08 of Rigveda.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The Mitra and Varuna are givers of happiness. They are famous on account of many qualities. They dwell in many objects of the world and are of dominion. They maintain strength and accomplish many deeds. They are born for the benefit of many and are the refuge of multitude.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    On account of Mitra and Varuna which in the world give strength and help in the performance of actions, there is growth and sustenance of all objects.

    Translator's Notes

    त्रियतेजनैः, वारयतिवाशत्रून्-वरुण: राजानावनभिद्रहा ध्रुवे सदस्युत्तमे । सहस्रस्थूण आसाते || मित्रावरुणौदेवते । In this Mantra, the word Mitravaruna has been clearly - used for the King and the Prime Minister who sit in a thousand pillared Assembly Hall. Rishi Dayananda also has taken मित्रावरुणौ in this sense of प्राणोदानवद् राजप्रधानामात्थौ ( Rig.392 ) and (Rig. 3. 33. 10) teacher & preacher. Sayanacharya has taken Vayu Indra, Mitra and Varuna as the names of various Gods living some where in heaven and according to his interpretation, they are being worshipped and prayed to through these hymns. Thus it is polytheism or worship of many Gods and Goddessess that the Vedas preach, though the truth is that the Vedas preach the worship of one God only and Vayu, Indra, Mitra, Varuna stand for many useful objects, like the sun, air, hydrogen and Oxygen Gases Prana, electricity etc. Wilson mostly following Sayana gives polytheistic translation in such words as- 1. Vayu, pleasant to behold, approach, these libations are prepared for thee, drink of them, hear our invocations. 2. Mitra and Varuna, augmenters of water, dispensers of Water, you connect this perfect rite with its true reward. These translators have been unable to grasp the fundamental teaching of the Vedas-Monotheism. Therefore, the Rishi had to condemn their translation.

    Foot Notes

    अयं वै पृथिवीलोकोमित्रः, असौ (दयुलोक:) वरुणः । (शत० १२.९.१२) द्यावापृथिवी वै मित्रावरुणयोः प्रियंधाम ||(ताण्ड्य० १४.२.४) Besides these meanings, as has been pointed out by Pandit Guru Dutta, they stand from the scientific point of view for hydrogen and oxygen gases by the combination of which water is produced. From Adhibhautic or social point of view, the word Mitra stands for the Prime Minister who is friendly to all and Varuna for the elected King who destroys all enemies. व्रियतेजनैः? In the first hymn, Agni was described as the prominent means of various arts and crafts and in this second hymn Vayu Indra Mitra and Varuna ( which stand for the sun light, air Prana etc.) have been described. Therefore there is inter connection and continuation of the subject. This hymn also, has been misinterpreted by Sayanacharya, Wilson and other Western Scholars. Addendum Let the Scholars please note. Fearing the lengthiness of the volume and limited grasping power of ordinary readers, with the idea of not getting them confounded by seeing many meanings of the same Vedic words, we have given simple meaning of the first Mantra of the Rigveda on P. 1 in an easily intelligible manner. But let the scholars note the following meanings also of some words as explained by Rishi Dayananda in his commentary. ईटे–स्तुवे, वाचे, अधीच्छामि प्रेरयामि वा In case of God-I glorify, beg or entreat, long for the attainment of God. In case of fire-I intensely long for the acquisition of or make use of, investigate ( See P. 1) पुरोहितं-पुरस्तात् सर्व जगद्दधाति तम् = Eternal Support or Sustainer of the universe यज्ञस्य – महिम्नः कर्मणो विदुषां सत्कारस्य संगतस्य सत्संगत्योत्पन्नस्य विद्यादिदानस्य शिल्पकृयोत्पाद्य्स्य वा =of the yajna and all other noble activities consisting of honouring the enlightened persons, association with them and donation ( gift of knowledge and wealth etc.) including industrial activity. [ यजदेवपूजासंगतिकरणदानेषु ] ऋत्विजम् —ऋतौ ऋतौ यजनीयस्तम् – God Adorable in all seasons. ऋतौ ऋतौ प्रत्युत्पत्तिकालं संसारं संगतं करोति तम् – God Who creates the world at the time of all creations. Note-On P.5 instead ofअन्चु-गतिपूजनयोः please read अञ-व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु ।

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