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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 25/ मन्त्र 4
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - वरुणः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    परा॒ हि मे॒ विम॑न्यवः॒ पत॑न्ति॒ वस्य॑इष्टये। वयो॒ न व॑स॒तीरुप॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परा॑ । हि । मे॒ । विऽम॑न्यवः । पत॑न्ति । वस्यः॑ऽइष्टये । वयः॑ । न । व॒स॒तीः । उप॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परा हि मे विमन्यवः पतन्ति वस्यइष्टये। वयो न वसतीरुप॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परा। हि। मे। विऽमन्यवः। पतन्ति। वस्यःऽइष्टये। वयः। न। वसतीः। उप॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 25; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स एवार्थो दृष्टान्तेन साध्यते॥

    अन्वयः

    हे जगदीश्वर ! त्वत्कृपया वयो वसतीर्विहाय दूरस्थानान्युपपतन्ति न इव। मे मम वासात् वस्यइष्टये विमन्यवः परा पतन्ति हि खलु दूरे गच्छन्तु॥४॥

    पदार्थः

    (परा) उपरिभावे। प्र परेत्येतस्य प्रातिलोम्यं प्राह। (निरु०१.३) (हि) खलु (मे) मम (विमन्यवः) विविधो मन्युर्येषां ते (पतन्ति) पतन्तु गच्छन्तु। अत्र लोडर्थे लट्। (वस्यइष्टये) वसीयत इष्टये सङ्गतये। अत्र वसुशब्दान्मतुप् ततोऽतिशय ईयसुनि। विन्मतोर्लुक्। (अष्टा०५.३.६५) इति मतोर्लुक्। टेः। (अष्टा०६.४.१५५) इति टेर्लोपस्ततश्छान्दसो वर्णलोपो वा इतीकारस्य लोपश्च। (वयः) पक्षिणः (न) इव (वसतीः) वसन्ति यासु ता विहाय (उप) सामीप्ये॥४॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा ताडिताः पक्षिणो दूरं गत्वा वसन्ति, तथैव क्रोधयुक्ताः प्राणिनो मत्तो दूरे वसन्त्वहमपि तेभ्यो दूरे वसेयम्। यस्मादस्माकं स्वभावविपर्यासो धनहानिश्च कदाचिन्न स्यातामिति॥४॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    फिर भी उसी अर्थ को दृष्टान्त से अगले मन्त्र में सिद्ध किया है॥

    पदार्थ

    हे जगदीश्वर ! जैसे (वयः) पक्षी (वसतीः) अपने रहने के स्थानों को छोड़-छोड़ दूर देश को (उपपतन्ति) उड़ जाते हैं (न) वैसे (मे) मेरे निवास स्थान से (वस्यइष्टये) अत्यन्त धन होने के लिये (विमन्यवः) अनेक प्रकार के क्रोध करनेवाले दुष्ट जन (परापतन्ति) (हि) दूर ही चले जावें॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे उड़ाये हुए पक्षी दूर जाके बसते हैं, वैसे ही क्रोधी मुझ से दूर बसें और मैं भी उनसे दूर बसूँ, जिससे हमारा उलटा स्वभाव और धर्म की हानि कभी न होवे॥४॥

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    विषय

    फिर भी उसी अर्थ को दृष्टान्त से इस मन्त्र में सिद्ध किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे जगदीश्वर ! त्वत् कृपया वयः वसतीः विहाय दूरस्थानानि उपपतन्ति (न)इव। (मे)मम वासात् वस्यः इष्टये विमन्यवः परा पतन्ति हि खलु दूरे गच्छन्तु॥४॥

    पदार्थ

    हे (जगदीश्वर)=जगदीश्वर! (त्वत्)=आपसे, (कृपया)=कृपया, (वयः) पक्षिणः=पक्षी, (वसतीः) वसन्ति यासु ता विहाय=अपने रहने के स्थानों को छोड़-छोड़. (दूरस्थानानि)=दूरस्थ स्थानों में, (उप) सामीप्ये=समीप में, (पतन्ति)=उड़ जाते हैं, (न) इव=वैसे, (मे) मम=मेरे, (वासात्)=निवास स्थान से,  (वस्यइष्टये) वसीयत इष्टये सङ्गतये=सत्सङ्गति में रहने के लिये, (विमन्यवः) विविधो मन्युर्येषां ते=अनेक प्रकार के क्रोध करनेवाले,  (परा) उपरिभावे=ऊपर, (पतन्ति) पतन्तु गच्छन्तु=उड़ कर चले जायें, (हि) खलु=ही, (दूरे)=दूर, (गच्छन्तु)=चले जायें॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे ताड़ित किए हुए पक्षी दूर जाके बसते हैं, वैसे ही क्रोधी मुझ से दूर बसें और मैं भी उनसे दूर बसूँ, जिससे हमारा उलटा स्वभाव और धर्म की हानि कभी न होवे॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (जगदीश्वर) जगदीश्वर! (त्वत्) आपकी (कृपया) कृपा से (वयः) पक्षी  (वसतीः) अपने रहने के स्थानों को छोड़-छोड़ कर (दूरस्थानानि) दूरस्थ [और] (उप) समीप स्थानों में (पतन्ति) उड़ जाते हैं। (न) वैसे ही (मे) मेरे (वासात्) निवास स्थान से (वस्यइष्टये)  सत्सङ्गति में रहने के लिये (विमन्यवः)  अनेक प्रकार के क्रोध करनेवाले  (परा)  ऊपर (पतन्ति) उड़ कर चले जायें। (हि) निश्चित रूप से (दूरे) दूर (गच्छन्तु) चले जायें॥४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (परा) उपरिभावे। प्र परेत्येतस्य प्रातिलोम्यं प्राह। (निरु०१.३) (हि) खलु (मे) मम (विमन्यवः) विविधो मन्युर्येषां ते (पतन्ति) पतन्तु गच्छन्तु। अत्र लोडर्थे लट्। (वस्यइष्टये) वसीयत इष्टये सङ्गतये। अत्र वसुशब्दान्मतुप् ततोऽतिशय ईयसुनि। विन्मतोर्लुक्। (अष्टा०५.३.६५) इति मतोर्लुक्। टेः। (अष्टा०६.४.१५५) इति टेर्लोपस्ततश्छान्दसो वर्णलोपो वा इतीकारस्य लोपश्च। (वयः) पक्षिणः (न) इव (वसतीः) वसन्ति यासु ता विहाय (उप) सामीप्ये॥४॥
    विषयः- पुनः स एवार्थो दृष्टान्तेन साध्यते॥

    अन्वयः- हे जगदीश्वर ! त्वत्कृपया वयो वसतीर्विहाय दूरस्थानान्युपपतन्ति न इव। मे मम वासात् वस्यइष्टये विमन्यवः परा पतन्ति हि खलु दूरे गच्छन्तु॥४॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा ताडिताः पक्षिणो दूरं गत्वा वसन्ति, तथैव क्रोधयुक्ताः प्राणिनो मत्तो दूरे वसन्त्वहमपि तेभ्यो दूरे वसेयम्। यस्मादस्माकं स्वभावविपर्यासो धनहानिश्च कदाचिन्न स्यातामिति॥४॥

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    विषय

    उत्तम जीवन की प्राप्ति

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार जब मैं अपने मन को प्रभु के साथ बाँधता हूँ तब (मे) - मेरी (विमन्यवः) - क्रोध से रहित बुद्धियाँ (वस्यः) - अतिशयेन वसुमान् , अर्थात् उत्तम निवासक तत्त्वोंवाले जीवन की (इष्टये) - प्राप्ति के लिए (हि) - निश्चयपूर्वक (परापतन्ति) - विषयों से पराङ्मुख होकर आपकी ओर आती हैं । 

    २. मेरी वृत्तियाँ उसी प्रकार हे वरुण! आपकी ओर आती हैं (न) - जैसे कि (वयः) - पक्षी (वसतीः उप) - अपने निवासस्थानों की ओर आते हैं । पक्षी थक - थकाकर अथवा किसी से भयभीत होकर घोंसले की ओर आता है , इसी प्रकार जीव में विषयों से एक श्रान्ति उत्पन्न हो जाती है , उनमें आनन्द के स्थान में अब क्षीणता के कारण निर्वेद उत्पन्न हो जाता है अथवा वह इन विषयों से भयभीत हो उठता है और उस समय उसकी वृत्तियाँ इन विषयों से पराङ्मुख होकर प्रभु की ओर दौड़ती हैं , उस समय ही मनुष्य को वास्तविक शान्ति प्राप्त होती है और उसका जीवन उत्तम बनता है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - मेरी वृत्तियाँ विषय - पराङ्मुख होकर प्रभु की ओर चलें । इसी में जीवन की उत्तमता तथा सच्ची शान्ति है । 

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    विषय

    वरुण, परमेश्वर, और राजा, के प्रति भक्तों और प्रजाओं की प्रार्थना ।

    भावार्थ

    (वयः) एक्षिगण जिस प्रकार (वसतीः न उप पतन्ति) अपने रहने के जगहों के प्रति उड़ आते हैं उसी प्रकार हे वरुण ! राजन् ! ( मे ) मेरी ( विमन्यवः ) विविध प्रकार की बुद्धियां, ( वस्यः ) सबसे श्रेष्ठ वसु, सबको वास देने हारे, सबके शरणरूप तेरी ( इष्टये ) प्राप्त करने के लिये (हि) मिश्चय ( परा उप पतन्ति ) तेरे समीप तक उड़ती २ तुझ तक पहुंचती हैं । अथवा—(वयः वसतीः न) पक्षी जिस प्रकार अपने स्थानों को छोड़ कर अपने आहार को प्राप्त करने के लिये चले चले जाते हैं इसी प्रकार ( विमन्यवः ) विशेष ज्ञानवान् पुरुष अति अधिक धन प्राप्ति के लिये ( परा पतन्ति हि ) दूर २ देशों तक जावें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः॥ वरुणो देवता ॥ गायत्र्य: । एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (मे विमन्यवः) वरुण परमात्मन् ! मेरी विविध मान्यताएं मेरे विविध विचारां (वस्यः-इष्टये) अतिशयित धन की इष्टि-प्राप्ति तथा अतिशयित वास की इष्टि-प्राप्ति के लिये (हि) निश्चय (परा-उप पतन्ति) 'परा पतन्ति, उप पतन्ति' तुझ से परे संसार में धन प्राप्ति के लिये भी पतन करती हैं और तुझ अपने घर की ओर भी वास प्राप्ति के लिये पतन करते हैं (वयः-न वसतीः) जैसे पक्षी अपने घर से परे वन जङ्गल गगन में अन्न भोजन की प्राप्ति के लिये पतन करते हैं उडान करते हैं और वास प्राप्ति के लिये अपने वासस्थलियों घोसलों की ओर भी पतन करते हैं-उडान लेते हैं अतः वरुण - परमात्मन् ! मेरे विचारों का वास स्थान तू ही है तेरे प्रति मेरे विचार गमन करें-उडान भरें यह यहां आकांक्षा है ॥४॥

    विशेष

    ऋषिः-आजीगर्तः शुनः शेपः (इन्द्रियभोगों की दौड में शरीरगर्त में गिरा हुआ विषयलोलुप महानुभाव) देवता-वरुणः (वरने योग्य और वरने वाला परमात्मा)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे उड्डाण केलेले पक्षी दूर जातात तसेच क्रोधी जीव माझ्यापासून दूर जावेत. मीही त्यांच्यापासून दूर जावे. ज्यामुळे आमचा स्वभाव विरोधी बनू नये व धनाची हानीही होऊ नये. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    For the sake of my domestic good and well being, I pray, may those who are ill-disposed and impassioned against me go off far away just as birds leave their nests and fly away.

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    Subject of the mantra

    Even then, by illustration of meaning in this mantra, the assertion is proved.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (jagadïshvara)=God, (tvat)=your, (kṛpayā)=by mercy, (vayaḥ)=the birds, (vasatīḥ)=leaving their place of inhabitation, (dūrasthānāni)=distant, [aura]=and, (upa)=nearby places, (patanti)=fly away, (na)=in the same way, (me)=my, (vāsāt)=from the places of habitation, (vasyiṣṭaye)=to live in the company of good people, (vimanyavaḥ)=raging in many ways, (parā)=above, (patanti)=must fly away,(hi)=certainly, (dūre)=far away, (gacchantu)=must go away.

    English Translation (K.K.V.)

    O God! By your mercy the birds leaving their place of inhabitation fly away to distant and nearby places. In the same way, to live in the company of good people, raging in many ways, certainly, must fly away above from the places of habitation, must go far away.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. Just as the chastened birds live far away, so let the angry ones stay away from me and let me also stay away from them, so that our inimical nature and dharma may never be harmed.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued, by giving an illustration.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O God, As birds flee to distant places having left off their nests, in the same manner, let persons given to anger may go away from my residence, in order to attain wealth.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (विमन्यवः) विविधः मन्युर्येषां ते ॥ = Men of angry nature or hot temper. (वस्य इष्टये ) वसीयतः इष्टये - संगतये अत्र वसुशब्दान्मतृप ततोऽतिशय ईग्रसुनि विन्मतोर्लुक् (अष्टा० ५.३.६५ ) टे: अ० ६४-१५५ इति टेर्लोपः ततः छान्दसो वर्णलोपः वा इतीकारस्य लोपश्च ॥

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As birds when beaten (with stones), go away to distant places, in the same manner, let the persons indulging in anger, keep away from me and I keep away from them, so that let there be no change (for the worse) in our nature or habits and also loss of wealth.

    Translator's Notes

    मन्युरितिक्रोध नाम ( निघ० २.१३) हृष्टये is derived from यज-देव पूजा संगतिकरण दानेषु Hence Rishi Dayananda has taken it in the sense of 2nd meaning, and explained it as संगतये Swami Ananda Tirtha's translation though different from the above interpretation is significant from the spiritual point of view. पराक् पतन्ति मे प्रज्ञाः, विविधाः शुभलब्धये । पक्षिणां वसतीर्यद्वत, हा न त्वां प्राप्नुवन्ति च ॥ (ऋग्भाष्ये मध्वाचार्य कृते )

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