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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 3/ मन्त्र 12
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - सरस्वती छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    म॒हो अर्णः॒ सर॑स्वती॒ प्र चे॑तयति के॒तुना॑। धियो॒ विश्वा॒ वि रा॑जति॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हः । अर्णः॑ । सर॑स्वती । प्र । चे॒त॒य॒ति॒ । के॒तुना॑ । धियः॑ । विश्वाः॑ । वि । रा॒ज॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना। धियो विश्वा वि राजति॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महः। अर्णः। सरस्वती। प्र। चेतयति। केतुना। धियः। विश्वाः। वि। राजति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 12
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 6; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    या सरस्वती केतुना महदर्णः खलु जलार्णवमिव शब्दसमुद्रं प्रकृष्टतया सम्यग् ज्ञापयति सा प्राणिनां विश्वा धियो विराजति विविधतयोत्तमा बुद्धीः प्रकाशयति॥१२॥

    पदार्थः

    (महः) महत्। अत्र सर्वधातुभ्योऽसुन्नित्यसुन्प्रत्ययः। (अर्णः) जलार्णवमिव शब्दसमुद्रम्। उदके नुट् च। (उणा०४.१९७) अनेन सूत्रेणार्तेरसुन्प्रत्ययः। अर्ण इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (सरस्वती) वाणी (प्र) प्रकृष्टार्थे (चेतयति) सम्यङ् ज्ञापयति (केतुना) शोभनकर्मणा प्रज्ञया वा। केतुरिति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.९) (धियः) मनुष्याणां धारणावतीर्बुद्धीः (विश्वाः) सर्वाः (वि) विशेषार्थे (राजति) प्रकाशयति। अत्रान्तर्भावितो ण्यर्थः। निरुक्तकार एनं मन्त्रमेवं समाचष्टे-महदर्णः सरस्वती प्रचेतयति प्रज्ञापयति केतुना कर्मणा प्रज्ञया वेमानि च सर्वाणि प्रज्ञानान्यभिविराजति वागर्थेषु विधीयते तस्मान्माध्यमिकां वाचं मन्यन्ते वाग्व्याख्याता। (निरु०११.२७)॥१२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकोपमेयलुप्तोपमालङ्कारः। यथा वायुना चालितः सूर्य्येण प्रकाशितो जलरत्नोर्मिसहितो महान् समुद्रोऽनेकव्यवहाररत्नप्रदो वर्त्तते तथैवास्याकाशस्थस्य वेदस्थस्य च महतः शब्दसमुद्रस्य प्रकाशहेतुर्वेदवाणी विदुषामुपदेशश्चेतरेषां मनुष्याणां यथार्थतया मेधाविज्ञानप्रदो भवतीति॥१२॥सूक्तद्वयसम्बन्धिनोऽर्थस्योपदेशानन्तरमनेन तृतीयसूक्तेन क्रियाहेतुविषयस्याश्विशब्दार्थमुक्त्वा तत्सिद्धिकर्तॄणां विदुषां स्वरूपलक्षणमुक्त्वा विद्वद्भवनहेतुना सरस्वतीशब्देन सर्वविद्याप्राप्तिनिमित्तार्था वाक् प्रकाशितेति वेदितव्यम्। द्वितीयसूक्तोक्तानां वाय्विन्द्रादीनामर्थानां सम्बन्धे तृतीयसूक्तप्रतिपादितानामश्विविद्वत्सरस्वत्य-र्थानामन्वयाद् द्वितीयसूक्तोक्तार्थेन सहास्य तृतीयसूक्तोक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। अस्य सूक्तस्यार्थः सायणाचार्य्यादिभिरन्यथैव वर्णितः। तत्र प्रथमं तस्यायं भ्रमः—‘द्विविधा हि सरस्वती विग्रहवद्देवता नदीरूपा च। तत्र पूर्वाभ्यामृग्भ्यां विग्रहवती प्रतिपादिता। अनया तु नदीरूपा प्रतिपाद्यते। ’ इत्यनेन कपोलकल्पनयाऽयमर्थो लिखित इति बोध्यम्। एवमेव व्यर्था कल्पनाऽध्यापक- विलसनाख्यादीनामप्यस्ति। ये विद्यामप्राप्य व्याख्यातारो भवन्ति तेषामन्धवत्प्रवृत्तिर्भवतीत्यत्र किमाश्चर्य्यम्॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    ईश्वर ने फिर भी वह वाणी कैसी है, इस बात का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    जो (सरस्वती) वाणी (केतुना) शुभ कर्म अथवा श्रेष्ठ बुद्धि से (महः) अगाध (अर्णः) शब्दरूपी समुद्र को (प्रचेतयति) जनानेवाली है, वही मनुष्यों की (विश्वाः) सब बुद्धियों को (विराजति) विशेष करके प्रकाश करती है॥१२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकोपमेयलुप्तोपमालङ्कार दिखलाया है। जैसे वायु से तरङ्गयुक्त और सूर्य्य से प्रकाशित समुद्र अपने रत्न और तरङ्गों से युक्त होने के कारण बहुत उत्तम व्यवहार और रत्नादि की प्राप्ति में बड़ा भारी माना जाता है, वैसे ही जो आकाश और वेद का अनेक विद्यादि गुणवाला शब्दरूपी महासागर को प्रकाशित करानेवाली वेदवाणी का उपदेश है, वही साधारण मनुष्यों की यथार्थ बुद्धि का बढ़ानेवाला होता है॥१२॥ दो सूक्तों की विद्या का प्रकाश करके इस तृतीय सूक्त से क्रियाओं का हेतु अश्विशब्द का अर्थ और उसके सिद्ध करनेवाले विद्वानों का लक्षण तथा विद्वान् होने का हेतु सरस्वती शब्द से सब विद्याप्राप्ति के निमित्त वाणी के प्रकाश करने से जान लेना चाहिये। दूसरे सूक्त के अर्थ के साथ तीसरे सूक्त के अर्थ की सङ्गति है। इस सूक्त का अर्थ सायणाचार्य्य आदि नवीन पण्डितों ने अशुद्ध प्रकार से वर्णन किया है। उनके व्याख्यानों में पहले सायणाचार्य्य का भ्रम दिखलाते हैं। उन्होंने सरस्वती शब्द के दो अर्थ माने हैं। एक अर्थ से देहवाली देवतारूप और दूसरे से नदीरूप सरस्वती मानी है। तथा उनने यह भी कहा है कि इस सूक्त में पहले दो मन्त्र से शरीरवाली देवरूप सरस्वती का प्रतिपादन किया है, और अब इस मन्त्र से नदीरूप सरस्वती का वर्णन करते हैं। जैसे यह अर्थ उन्होंने अपनी कपोलकल्पना से विपरीत लिखा है, इसी प्रकार अध्यापक विलसन की व्यर्थ कल्पना जाननी चाहिये। क्योंकि जो मनुष्य विद्या के बिना किसी ग्रन्थ की व्याख्या करने को प्रवृत्त होते हैं, उनकी प्रवृत्ति अन्धों के समान होती है॥

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    विषय

    ज्ञान का महान् समुद्र

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार आराधक के 'विचार  , उच्चार व आचार' को पवित्र करनेवाली यह (सरस्वती) - ज्ञानाधिदेवता (महो अर्णः) - एक महान् जल है । ज्ञान - प्रवाह से बहने के कारण जलरूप है । यह सरस्वती ज्ञान का समुद्र ही है । 
    २. यह सरस्वती (केतुना) - ज्ञान के प्रकाश के द्वारा (प्रचेतयति) - आराधक को प्रकृष्ट चेतना प्राप्त कराती है  , उसके हृदयान्तरिक्ष को ज्ञान के प्रकाश से उयोतित कर देती है ।
    ३. यह (सरस्वती) - वेदवाणी (विश्वा धियः) सम्पूर्ण ज्ञानों को (विराजति) - विशेषरूप से दीप्त करती है  , अर्थात् यह सब सत्यविद्याओं का आगार है  , ज्ञानों का कोश है । प्रभु ने मानव - उन्नति के लिए आवश्यक प्रत्येक सत्यज्ञान का इसमें प्रकाश किया है । उस पूर्ण प्रभु का दिया हुआ यह ज्ञान सचमुच पूर्ण ही है । इस महान् ज्ञान - समुद्र में तैरनेवाला पुरुष एक अद्भुत आनन्द प्राप्त करता है । संसार के सभी आनन्दों में इस आनन्द का स्थान 
    सर्वोच्च है । 

     

    भावार्थ

    भावार्थ - वेदवाणी ज्ञान का समुद्र है  , सब सत्य - विद्याओं का मूल है । यह अपने प्रकाश से आराधक के हृदय को प्रकृष्ट चेतना प्राप्त कराती है । 

    विशेष / सूचना

    विशेष - इस तृतीय सूक्त का आरम्भ द्वितीय सूक्त की समाप्ति पर वर्णित 'मित्रावरुण' की ही आराधना से होता है । 'मित्रावरुण' यह प्राणापान का भी नाम है । प्राणशक्ति मित्र है तो अपान वरुण है । प्राणशक्ति के होने पर मनुष्य मित्रता व स्नेह की वृत्तिवाला होता है । अपान के ठीक कार्य करने पर द्वेष भी मनुष्य से दूर रहता है । कोष्ठबद्धता की वृत्तिवाले ईर्ष्यालु  , द्वेषी व चिड़चिड़े होते हैं । प्राणापान की साधना से मनुष्य शुभ वृत्तिवाला बनता है [१] । इस साधना से अशुभ वासनाएँ दूर होती हैं [३] । इनको दूर करके मनुष्य प्रभु के साक्षात्कार के योग्य होता है [४] । उसके अन्दर उत्तरोत्तर दिव्यगुणों की वृद्धि होती है [७] । इन दिव्यगुणों के विकास के लिए ही वह सरस्वती की आराधना करता है  , ज्ञान का पुजारी बनता है [१०] । यह सरस्वती की आराधना  , ज्ञानरूप परमैश्वर्यवा9ले प्रभु की उपासना उसे 'सुरूप' बनाती है । इस वर्णन से अगला सूक्त आरम्भ होता है -
     

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    विषय

    ईश्वर ने फिर भी वह वाणी कैसी है, इस बात का प्रकाश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    या सरस्वती केतुना महत् अर्णः खलु जलार्णवम् इव शब्दसमुद्रं प्रकृष्टतया सम्यग् ज्ञापयति सा प्राणिनां विश्वा धियः विराजति विविधतया  उत्तमा बुद्धीः प्रकाशयति॥१२॥

    पदार्थ

    (या) =जो, (सरस्वती) वाणी (केतुना) शोभनकर्मणा प्रज्ञया वा=शुभ कर्म अथवा श्रेष्ठ बुद्धि से (महत्) अगाध= (अर्णः) जलार्णवमिव शब्दस=शब्दरूपी समुद्र को (प्रचेतयति) जनानेवाली है, वही मनुष्यों की, (विश्वाः) सर्वाः=सब बुद्धियों को (विराजति) विशेष करके प्रकाश करती है, (खलु)=निश्चय से,(प्रकृष्टतया)-सम्यग्=अच्छी तरह से, (ज्ञापयति) व्यक्त करती है, (सा)=वह, (प्राणिनांम्)=प्राणियों को, (विश्वाः) सर्वाः= सब बुद्धियों को, (धियः) मनुष्याणां धारणावतीर्बुद्धीः=मनुष्यों की धारणावती बुद्धि,  (वि) विशेषार्थे=विशेष रूप से, (राजति) प्रकाशयति= प्रकाशित करती है॥१२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में वाचकोपमेयलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वायु से चालित, सूर्य से प्रकाशित और जल की रत्नमय लहरों सहित से समुद्र अनेक व्यवहारवाले रत्नों का प्रदान कर्ता होता है, वैसे ही इस आकाश स्थित और वेद स्थित बहुत महान् शब्दरूपी सागर को प्रकाशित करानेवाली वेदवाणी का उपदेश है, जो दूसरे मनुष्यों को उचित रूप से मेधा और विशेष ज्ञान को प्रदान करनेवाला होता है॥१२॥

    विशेष

    सूक्त का भावार्थ- दो सूक्तों की विद्या का उपदेश करने के बाद तृतीय सूक्त से क्रियाओं का हेतु “अश्विशब्द” का अर्थ कह करके उसके सिद्ध करनेवाले विद्वानों का  स्वरूप और लक्षण कह करके विद्वान् होने के हेतु “सरस्वती” शब्द से सब विद्या की प्राप्ति के निमित्त अर्थ को लिखा गया है, ऐसा जान लेना चाहिये। दूसरे सूक्त के अर्थ के  साथ तीसरे सूक्त के अर्थ की सङ्गति है, ऐसा जान लेना चाहिये। इस सूक्त का अर्थ सायणाचार्य्य आदि नवीन पण्डितों ने अशुद्ध प्रकार से वर्णन किया है। उनके व्याख्यानों में पहले सायणाचार्य्य का भ्रम दिखलाते हैं। उन्होंने “सरस्वती” शब्द के दो अर्थ माने हैं। एक अर्थ से देहवाली देवतारूप और दूसरे से नदीरूप सरस्वती मानी है। तथा उन्होंने यह भी कहा है कि इस सूक्त में पहले दो मन्त्र से शरीरवाली देवरूप सरस्वती का प्रतिपादन किया है, और अब इस मन्त्र से नदीरूप सरस्वती का वर्णन करते हैं। जैसे यह अर्थ उन्होंने अपनी कपोलकल्पना से विपरीत लिखा है, इसी प्रकार अध्यापक विलसन की व्यर्थ कल्पना जाननी चाहिये। क्योंकि जो मनुष्य विद्या के बिना किसी ग्रन्थ की व्याख्या करने को प्रवृत्त होते हैं, उनकी प्रवृत्ति अन्धों के समान होती है॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (या) जो (सरस्वती) वाणी (केतुना) शुभ कर्म अथवा श्रेष्ठ बुद्धि से (महत्) अगाध (अर्णः) शब्दरूपी समुद्र को (प्रचेतयति) जनाने वाली है और (विश्वाः) सब मनुष्यों की बुद्धियों को (विराजति) विशेष करके प्रकाशित करती है। (खलु) वह निश्चय से (प्रकृष्टतया) अच्छी तरह से (ज्ञापयति) व्यक्त करती है। (सा) वह वाणी (प्राणिनांम्) प्राणियों की (विश्वाः) सब (धियः) मनुष्यों की धारणावती बुद्धि को (वि) विशेष रूप से (राजति) प्रकाशित करती है॥१२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (महः) महत्। अत्र सर्वधातुभ्योऽसुन्नित्यसुन्प्रत्ययः। (अर्णः) जलार्णवमिव शब्दसमुद्रम्। उदके नुट् च। (उणा०४.१९७) अनेन सूत्रेणार्तेरसुन्प्रत्ययः। अर्ण इत्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (सरस्वती) वाणी (प्र) प्रकृष्टार्थे (चेतयति) सम्यङ् ज्ञापयति (केतुना) शोभनकर्मणा प्रज्ञया वा। केतुरिति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.९) (धियः) मनुष्याणां धारणावतीर्बुद्धीः (विश्वाः) सर्वाः (वि) विशेषार्थे (राजति) प्रकाशयति। अत्रान्तर्भावितो ण्यर्थः। निरुक्तकार एनं मन्त्रमेवं समाचष्टे-महदर्णः सरस्वती प्रचेतयति प्रज्ञापयति केतुना कर्मणा प्रज्ञया वेमानि च सर्वाणि प्रज्ञानान्यभिविराजति वागर्थेषु विधीयते तस्मान्माध्यमिकां वाचं मन्यन्ते वाग्व्याख्याता। (निरु०११.२७)॥१२॥
    विषयः- पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः- या सरस्वती केतुना महदर्णः खलु जलार्णवमिव शब्दसमुद्रं प्रकृष्टतया सम्यग् ज्ञापयति सा प्राणिनां विश्वा धियो विराजति विविधतयोत्तमा बुद्धीः प्रकाशयति॥१२॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकोपमेयलुप्तोपमालङ्कारः। यथा वायुना चालितः सूर्य्येण प्रकाशितो जलरत्नोर्मिसहितो महान् समुद्रोऽनेकव्यवहाररत्नप्रदो वर्त्तते तथैवास्याकाशस्थस्य वेदस्थस्य च महतः शब्दसमुद्रस्य प्रकाशहेतुर्वेदवाणी विदुषामुपदेशश्चेतरेषां मनुष्याणां यथार्थतया मेधाविज्ञानप्रदो भवतीति॥१२॥

    सूक्तस्य भावार्थः- सूक्तद्वयसम्बन्धिनोऽर्थस्योपदेशानन्तरमनेन तृतीयसूक्तेन क्रियाहेतुविषयस्याश्विशब्दार्थमुक्त्वा तत्सिद्धिकर्तॄणां विदुषां स्वरूपलक्षणमुक्त्वा विद्वद्भवनहेतुना सरस्वतीशब्देन सर्वविद्याप्राप्तिनिमित्तार्था वाक् प्रकाशितेति वेदितव्यम्। द्वितीयसूक्तोक्तानां वाय्विन्द्रादीनामर्थानां सम्बन्धे तृतीयसूक्तप्रतिपादितानामश्विविद्वत्सरस्वत्य-र्थानामन्वयाद् द्वितीयसूक्तोक्तार्थेन सहास्य तृतीयसूक्तोक्तार्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। अस्य सूक्तस्यार्थः सायणाचार्य्यादिभिरन्यथैव वर्णितः। तत्र प्रथमं तस्यायं भ्रमः-'द्विविधा हि सरस्वती विग्रहवद्देवता नदीरूपा च। तत्र पूर्वाभ्यामृग्भ्यां विग्रहवती प्रतिपादिता। अनया तु नदीरूपा प्रतिपाद्यते। ' इत्यनेन कपोलकल्पनयाऽयमर्थो लिखित इति बोध्यम्। एवमेव व्यर्था कल्पनाऽध्यापक- विलसनाख्यादीनामप्यस्ति। ये विद्यामप्राप्य व्याख्यातारो भवन्ति तेषामन्धवत्प्रवृत्तिर्भवतीत्यत्र किमाश्चर्य्यम्॥
     

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    विषय

    वेद वाणी का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( सरस्वती ) ज्ञानमयी वेदवाणी ( केतुना ) अपने ज्ञान से ही ( महः अर्णः ) बड़े भारी ज्ञानसागर का ( प्रचेतयति ) उत्तम रीति से ज्ञान कराती है । और ( विश्वा ) समस्त ( धियः ) ज्ञानों और कर्मों को ( वि राजति) विविध प्रकार से प्रकाशित करती है। जिस प्रकार निरन्तर बहती जलधारा यह सूचना देती है कि उसके निकास में अनन्त जल सागर है जो कभी समाप्त नहीं होता उसी प्रकार वेदवाणी भी उपदेश परम्परा से बराबर विस्तृत होकर अपने निकास में स्थित अनन्त ज्ञान और शब्दराशि का ज्ञान कराती है । इति षष्ठो वर्गः ॥ इति प्रथमोऽनुवाकः ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१२ मधुच्छन्दा ऋषिः ॥ देवता—१-३ अश्विनौ । ४-६ इन्द्रः । ७-९ विश्वे देवाः । १०–१२ सरस्वती ।। गायत्र्य: ।। द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकोपमेय लुप्तोपमालंकार आहे. जसे वायूने तरंगित व सूर्याने प्रकाशित झालेला समुद्र आपली रत्ने व तरंग यांनी युक्त असून अनेक व्यवहारांत व रत्नप्राप्तीत फार मोठा मानला जातो. तसेच जी आकाश व अनेक विद्या व गुण असणारी वेदाच्या शब्दरूपी महासागराला प्रकाशित करणारी वेदवाणी व विद्वानांचा उपदेश आहे, तोच साधारण माणसांच्या यथार्थ बुद्धीला वर्धित करणारा असतो. ॥ १२ ॥

    टिप्पणी

    या सूक्ताचा अर्थ सायणाचार्य इत्यादी नवीन पंडितांनी अयोग्य रीतीने लावलेला आहे. त्यांच्या व्याख्येच्या अगोदर सायणाचार्याचा भ्रम दर्शविला जात आहे. त्यांनी सरस्वती शब्दाचे दोन अर्थ सांगितलेले आहेत. एक अर्थ देहयुक्त देवता व दुसरा नदीरूपी सरस्वती मानलेली आहे. त्यांनी हेही सांगितलेले आहे की, या सूक्तात पहिल्या दोन मंत्रांत शरीर देवरूपी सरस्वतीचे प्रतिपादन केलेले आहे व त्यानंतरच्या या मंत्रात नदीरूपी सरस्वतीचे वर्णन केलेले आहे. जसा हा अर्थ त्यांनी कपोलकल्पित व विपरीत लिहिलेला आहे, त्याचप्रकारे अध्यापक विल्सनची कल्पना व्यर्थ मानली पाहिजे. कारण जी माणसे विद्येविना एखाद्या ग्रंथाची व्याख्या करण्यास प्रवृत्त होतात, त्यांची प्रवृत्ती अंधाप्रमाणे असते.

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    Sarasvati, mighty ocean flow of mother knowledge and divine speech, shines with her radiance of omniscience and illuminates the universal mind and the minds of humanity across the worlds of existence.

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    Translation

    This speech-divine sets in motion all the energies of the soul and intellect. It enlightens the wisdom of all who are seekers of truth.

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    Subject of the mantra

    Even then, what kind of that speech is, has been elucidated by God in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yā)=Which, (sarasvatī)=speech, (ketunā)=by auspicious deeds or excellent intellect, (mahat)=profound, (arṇaḥ)=ocean in the form of words, (pracetayati)=makes known, [aura]=and, (viśvāḥ)=to memory of all men, (virājati)= specifically propagates, Vah=that, (khalu)=certainly, (prakṛṣṭatayā)=properly, (jñāpayati)=expresses, (sā)=That speech, (prāṇināṃm)=of living beings, (viśvāḥ) = all, (dhiyaḥ)= intellects, (vi)=specifically, (rājati)=enligens.ht

    English Translation (K.K.V.)

    (yā)=Which, (sarasvatī)=speech, (ketunā)=by auspicious deeds or excellent intellect, (mahat)=profound, (arṇaḥ)=ocean in the form of words, (pracetayati)=makes known, [aura]=and, (viśvāḥ)=to memory of all men, (virājati)= specifically propagates, Vah=that, (khalu)=certainly, (prakṛṣṭatayā)=properly, (jñāpayati)=expresses, (sā)=That speech, (prāṇināṃm)=of living beings, (viśvāḥ) = all, (dhiyaḥ)= intellects, (vi)=specifically, (rājati)=enlightens.

    Footnote

    Translation of gist of the mantra by Maharshi Dayanand- There is vocal latent simile as a figurative in this mantra. Just as the ocean with the pearly waves of water, is the giver of many precious gems, in the same way, this is the teaching of the speech of Vedas, which illuminates the ocean situated in this sky and the very great ocean of words located in the Vedas, one who bestows merit and special knowledge to other human beings. Translation of the hymn by Maharshi Dayanand- After preaching the knowledge of the two hymns, the meaning of the word “Saraswati” has been written for the purpose of attaining all knowledge by saying the meaning of “aśviśabda” for actions from the third hymn, saying the nature and characteristics of the scholars who accomplish it. It should be known that the translation of the third hymn is consistent with the translation of the second hymn. The translation of this hymn has been wrongly described by later scholars like Sayanacharya et cetera. Sayanacharya's illusion is first shown in his lectures. He has considered two meanings of the word "Saraswati". In one sense having the body is considered as the deity and in the other as the river form "Saraswati". And he has also said that in this hymn first two hymns have rendered Saraswati as the deity of having the body, and now with this mantra he describes "Saraswati" as the river. Just as, he has written this translation contrary to his imagination, similarly the vain imagination of professor Wilson should be known. Because, those who are inclined to interpret a book without knowledge, their tendency is like a blind man.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The Vedic Speech which along with noble actions and intellect enlightens that great ocean of the words like the great ocean of water, gives intellectual brightness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    अर्णव इति उदकनामस ( निघ० १.१२ ) = Intellect. केतुरिति प्रज्ञानामसु ( निघ० ३.९ ) = The ocean. This Mantra has also been explained in the above manner by Yaskacharya in Nirukta 11.27.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the ocean of water when shaken by the wind and illuminated by the sun along with its waves gives out many useful gems and jewels, in the same way, the Vedic speech which enlightens the words used in the Vedas and present in the sky and the sermons of enlightened persons gives true and accurate knowledge and intellect to the people. Thus in this hymn, the definition and duties of the learned and the nature of their noble speech are mentioned and so it has great connection with the second hymn about the Ashvinau and Indra. This hymn also has been mis interpreted by Sayanacharya, Prof. Wilson and others. Sayanacharya says that Saraswati is of two kinds, one in the form of a goddess and the other in the form of a river. In this mantra, the form of the river is mentioned. All this is Sayanacharya's wild imagination. The same is the case with Prof. Wilson and other Western translators. There is nothing surprising in it because those who begin to interpret the Vedas without acquiring their proper knowledge do like this, imitating others blindly.

    Translator's Notes

    Sayanacharya's interpretation as translated by Prof. Wilson is as follows, as quoted by Rishi Dayananda in his commentary.द्विविधा हि सरस्वती विग्रहवदेवता नदीरूपा च । अनया तु नदीरूपा प्रतिपाद्यते । तादृशी सरस्वती केतुना-कर्मणा प्रवाहरूपेण प्रभूतमुदकं प्रचेतयति । स्वकीयेन देवतारूपेण (विश्वा धियः ) सर्वाणयनुष्ठातृप्रज्ञानानि [ विराजति ] विशेषेण दीपयति || Prof. Wilson and Griffith blindly imitate Sayana saying "Saraswati makes manifest by her acts a mighty river and (in her own form ) enlightens all understanding.'. ( Wilson ). Griffith's translation is as follows- "Saraswati, the mighty flood-she with her light illuminates, she brightens every pious thought." Griffith then says in the foot-note 'She' ( Saraswati ) was no doubt, primarily a river deity, as her name 'The watery' clearly denotes. etc. Rishi Dayananda strongly criticises and takes exception to such un-authenticated interpretations, considering them as the wild imagination of Sayanacharya, prof. Wilson and others. According to their interpretation, the first two lines of the 12th Mantra are about the river Saraswati, while the third is about the goddess Saraswati who enlightens all understandings" ( Wilson ) or “who brightens every pious thought (Griffith). This inconsistency and confusion of thought must be evident to every impartial thoughtful person. In Rishi Dayananda's interpretation, there is no inconsistency or absurdity of this kind and it is therefore quite acceptable, giving the definition and nature of the noble (Vedic) speech. It is clearly substantiated by the Vedic Lexicon Nighantu. सरस्वतीति वाङ्नामसु पठितम् ( निघ० १.११ ) Rishi Dayananda's criticism of Sayanacharya was endorsed later by an impartial thinker of world-wide reputation Yogi Shri Aurobindo saying- "If ever there was a monument of arbitrarily erudite ingenuity, of great learning divorced from sound judgement and sure taste and a faithfully critical and comparative observation, from direct seeing and often even from plainest common sense or of a constant fitting of the test into the procrustean bed of pre-conceived theory, it is surely this commentary otherwise so imposing, so useful as first crude material, so erudite and laborious, left to us by the Acharya Sayana. (Bankim, Tilak and Dayananda by Shri Aurabindo P. 51-52).

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