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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 3/ मन्त्र 4
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    इन्द्रा या॑हि चित्रभानो सु॒ता इ॒मे त्वा॒यवः॑। अण्वी॑भि॒स्तना॑ पू॒तासः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑ । आ । या॒हि॒ । चि॒त्र॒भा॒नो॒ इति॑ चित्रऽभानो । सु॒ताः । इ॒मे । त्वा॒ऽयवः॑ । अण्वी॑भिः । तना॑ । पू॒तासः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रा याहि चित्रभानो सुता इमे त्वायवः। अण्वीभिस्तना पूतासः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र। आ। याहि। चित्रभानो इति चित्रऽभानो। सुताः। इमे। त्वाऽयवः। अण्वीभिः। तना। पूतासः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    इदानीमेतद्विद्योपयोगिनाविन्द्रशब्देनेश्वरसूर्य्यावुपदिश्येते।

    अन्वयः

    हे चित्रभानो इन्द्र परमेश्वर ! त्वमस्मानायाहि कृपया प्राप्नुहि, येन भवता इमे अण्वीभिस्तना पुष्कलद्रव्यदाः पूतासस्त्वायवः सुता उत्पादिता पदार्था वर्त्तन्ते तैर्गृहीतोपकारानस्मान्सम्पादय। तथा योऽयमिन्द्रः स्वगुणैः सर्वान् पदार्थानायाति प्राप्नोति तेनेमे अण्वीभिः किरणकारणावयवैस्तना विस्तृतप्राप्तिहेतवस्त्वायवस्तन्निमित्तप्राप्तायुषः पूतासः सुताः संसारस्थाः पदार्थाः प्रकाशयुक्ताः क्रियन्ते तैरिति पूर्ववत्॥४॥

    पदार्थः

    (इन्द्र) परमेश्वर सूर्य्यो वा। अत्राह यास्काचार्य्यः—इन्द्र इरां दृणातीति वेरां ददातीति वेरां दधातीति वेरां दारयत इति वेरां धारयत इति वेन्दवे द्रवतीति वेन्दौ रमत इति वेन्धे भूतानीति वा। तद्यदेनं प्राणैः समैन्धँस्तदिन्द्रस्येन्द्रत्वमिति विज्ञायते। इदं करणादित्याग्रायण इदं दर्शनादित्यौपमन्यव इन्दतेर्वैश्वर्य्यकर्मण इदञ्छत्रूणां दारयिता वा द्रावयिता वा दारयिता च यज्वनाम्। (निरु०१०.८) इन्द्राय साम गायत नेन्द्रादृते पवते धाम किंचनेन्द्रस्य नु वीर्य्याणि प्रवोचमिन्द्रे कामा अयंसत। (निरु०७.२)। इराशब्देनान्नं पृथिव्यादिकमुच्यते। तद्दारणात्तद्दानात्तद्धारणात्। चन्द्रलोकस्य प्रकाशाय द्रवणात्तत्र रमणादित्यर्थेनेन्द्रशब्दात् सूर्य्यलोको गृह्यते। तथा सर्वेषां भूतानां प्रकाशनात् प्राणैर्जीवस्योपकरणादस्य सर्वस्य जगत उत्पादनाद् दर्शनहेतोश्च सर्वैश्वर्य्ययोगाद् दुष्टानां शत्रूणां विनाशकाद् दूरे गमकत्वाद् यज्वनां रक्षकत्वाच्चेत्यर्थादिन्द्रशब्देनेश्वरस्य ग्रहणम्। एवं परमेश्वराद्विना किञ्चिदपि वस्तु न पवते। तथा सूर्य्याकर्षणेन विना कश्चिदपि लोको नैव चलति तिष्ठति वा। प्र तु॑विद्यु॒म्नस्य॒ स्थवि॑रस्य॒ घृष्वे॑र्दि॒वो र॑रप्शे महि॒मा पृ॑थि॒व्याः। नास्य॒ शत्रु॒र्न प्र॑ति॒मान॑मस्ति॒ न प्र॑ति॒ष्ठिः पु॑रुमा॒यस्य॒ सह्योः॑॥ (ऋ०६.१८.१२) यस्यायं महाप्रकाशस्य वृद्धस्य सर्वपदार्थानां जगदुत्पत्तौ सङ्घर्षकर्त्तुः सहनशीलस्य बहुपदार्थनिर्मातुरिन्द्रस्य परमैश्वर्य्यवतः परमेश्वरस्य सूर्य्यलोकस्य सृष्टेर्मध्ये महिमा प्रकाशते तस्यास्य न कश्चिच्छत्रुः, न किञ्चित्परिमाणसाधनमर्थादुपमानं नैकत्राधिकरणं चास्ति, इत्यनेनोभावर्थौ गृह्येते।(आयाहि) समन्तात्प्राप्तो भव भवति वा (चित्रभानो) चित्रा आश्चर्यभूता भानवो दीप्तयो यस्य सः (सुताः) उत्पन्ना मूर्त्तिमन्तः पदार्थाः (इमे) विद्यमानाः (त्वायवः) त्वां तं वोपेताः। छन्दसीणः। (उणा०१.२) इत्यौणादिके उण्प्रत्यये कृते आयुरिति सिध्यति। त्वदित्यत्र छान्दसो वर्णलोपो वेत्यनेन तकारलोपः। (अण्वीभिः) कारणैः, प्रकाशावयवैः किरणैरङ्गुलिभिर्वा। वोतो गुणवचनात्। (अष्टा०४.१.४४) अनेन ङीषि प्राप्ते व्यत्ययेन ङीन्। (तना) विस्तृतधनप्रदाः। तनेति धननामसु पठितम्। (निरु०२.१०) अत्र सुपां सुलुगित्यनेनाकारादेशः। (पूतासः) शुद्धाः शोधिताश्च॥४॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारेणेश्वरस्य सूर्य्यस्य वा यानि कर्माणि प्रकाश्यन्ते तानि परमार्थव्यवहारसिद्धये मनुष्यैः समुपयोक्तव्यानि सन्तीति॥४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    परमेश्वर ने अगले मन्त्र में इन्द्र शब्द से अपना और सूर्य्य का उपदेश किया है-

    पदार्थ

    (चित्रभानो) हे आश्चर्य्यप्रकाशयुक्त (इन्द्र) परमेश्वर ! आप हमको कृपा करके प्राप्त हूजिये। कैसे आप हैं कि जिन्होंने (अण्वीभिः) कारणों के भागों से (तना) सब संसार में विस्तृत (पूतासः) पवित्र और (त्वायवः) आपके उत्पन्न किये हुए व्यवहारों से युक्त (सुताः) उत्पन्न हुए मूर्तिमान् पदार्थ उत्पन्न किये हैं, हम लोग जिनसे उपकार लेनेवाले होते हैं, इससे हम लोग आप ही के शरणागत हैं। दूसरा अर्थ-जो सूर्य्य अपने गुणों से सब पदार्थों को प्राप्त होता है, वह (अण्वीभिः) अपनी किरणों से (तना) संसार में विस्तृत (त्वायवः) उसके निमित्त से जीनेवाले (पूतासः) पवित्र (सुताः) संसार के पदार्थ हैं, वही इन उनको प्रकाशयुक्त करता है॥४॥

    भावार्थ

    यहाँ श्लेषालङ्कार समझना। जो-जो इस मन्त्र में परमेश्वर और सूर्य्य के गुण और कर्म प्रकाशित किये गये हैं, इनसे परमार्थ और व्यवहार की सिद्धि के लिये अच्छी प्रकार उपयोग लेना सब मनुष्यों को योग्य है॥४॥

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    विषय

    साक्षात्कार

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार प्राणसाधना करनेवाला जीवात्मा प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे (इन्द्र) - परमैश्वर्यशाली प्रभो । (आयाहि) - आप आइए । प्राणसाधना से वासनाओं को विनष्ट करके मैंने अपने हृदय को आपके निवास के योग्य बनाया है । 
    २. हे (चित्रभानो) - [चित्र] ज्ञान को देनेवाली दीप्तिवाले प्रभो ! (इमे) - ये (सुताः) - उत्पन्न हुए-हुए सोमकण (त्वायवः) - आपकी कामनावाले हैं । ये आपके दर्शन के लिए ज्ञानाग्नि का इंधन बनाकर उसे दीप्त कर रहे हैं । ये सोमकण (अण्वीभिः) - सूक्ष्म बुद्धियों के साथ (तना) - सदा (पूतासः) - पवित्रता को सिद्ध करनेवाले हैं । सोम की रक्षा से जहाँ बुद्धि सूक्ष्म बनती है वहाँ हृदय पवित्र होता है और इस प्रकार ये सोम हमें प्रभु की प्राप्ति के योग्य बनाते हैं । इसी को काव्यमयी भाषा में इस प्रकार कहते हैं कि - ये सोम प्रभु की कामनावाले हैं । 
    ३. प्रभु को जब हम सूक्ष्मबुद्धि के द्वारा अपने पवित्र हृदय में देख पाते हैं तब हम प्रकाश-ही-प्रकाश को अनुभव करते हैं । वे प्रभु 'चित्रभानु' तो हैं ही  , उनकी दीप्ति भी अद्भुत है  , वह शब्दों का विषय नहीं है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हे प्रभो । हम सोम की रक्षा द्वारा बुद्धि को सूक्ष्म बनाएँ  , हृदय को पवित्र करें और आपका दर्शन करते हुए आपके अद्भुत प्रकाश का साक्षात्कार करें ।
     

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    विषय

    परमेश्वर ने इस मन्त्र में इन्द्र शब्द से अपना और सूर्य्य का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    (प्रथमः)- हे चित्रभानो इन्द्र (परमेश्वर) ! त्वम् अस्मान् आयाहि कृपया प्राप्नुहि, येन भवता इमे अण्वीभिः तनाः पुष्कल द्रव्यदाः पूतासः त्वायवः सुताः उत्पादिताः पदार्था वर्त्तन्ते तैः गृहीता उपकारान् अस्मान् सम्पादय ॥४॥


    (द्वितीयः)- यः अयम् इन्द्रः स्वगुणैः सर्वान् पदार्थान् आयाति प्राप्नोति तेन इमे अण्वीभिः किरण कारणा  अवयवैः तनाः विस्तृत प्राप्ति हेतवः त्वावयः तत् निमित्त  प्राप्ता आयुषः पूतासः सुताः संसारस्थाः पदार्थाः प्रकाशयुक्ताः क्रियन्ते तैः इति पूर्ववत् ॥४॥

    पदार्थ

    पदार्थ(प्रथम)-  हे  (चित्रभानो) चित्रा आश्चर्यभूता भानवो दीप्तयो यस्य सः =जिसका सूर्य एक अद्भुत प्रकार से चमकता है, (इन्द्र) परमेश्वर सूर्य्यो वा=ऐसे परमेश्वर या सूर्य ! (त्वम्) =आप, (अस्मान्)=हमें, (आयाहि) समन्तात्प्राप्तो भव भवति वा =अच्छी तरह से प्राप्त होओ, (कृपया प्राप्नुहि)= कृपया अच्छी तरह से प्राप्त होओ, (येन)=जिससे, (भवता)=आपके द्वारा, (इमे)=ये, (अण्वीभिः) कारणैः, प्रकाशावयवैः किरणैरङ्गुलिभिर्वा=कारणों से, प्रकाश के अङ्गों से अथवा किरणों की उँगलियों से, (तना) विस्तृतधनप्रदाः= प्रचुर धन देनेवाले, (पुष्कल)= बहुत, (द्रव्यदाः)=द्रव्य देने वाले, (पूतासः) शुद्धाः शोधिताश्च= पवित्र और पवित्र किये हुए (त्वायवः) त्वां तं = आपके उन, (सुताः) उत्पन्ना मूर्त्तिमन्तः पदार्थाः= उत्पन्न हुए मूर्तिमान् पदार्थ, (इमे) विद्यमानाः= विद्यमान, (उत्पादिताः)= उत्पन्न किए हुए, (पदार्था)=पदार्थ, (वर्त्तन्ते)= हैं, (तैः)= उनके द्वारा, (गृहीता)= ग्रहण किए हुए, (उपकारान्)=उपकार, (अस्मान्)=हमारे लिए, (सम्पादय)= प्राप्त कराओ ॥४॥
    पदार्थ (द्वितीय)- (यः)= जो, (अयम्)= यह, (इन्द्र)  सूर्य्यो=सूर्य, (सर्वान्)=समस्त, (पदार्थान्)= पदार्थों को, (आयाति-प्राप्नोति)=प्राप्त कराता है, (तेन)=उसके द्वारा,  (इमे) विद्यमानाः=वर्तमान,    (अण्वीभिः) कारणैः प्रकाशावयवैःकिरणैरङ्गुलिभिर्वा= कारणों से, प्रकाश के अङ्गों से अथवा किरणों की उँगलियों से, (तना) विस्तृतधनप्रदाः= प्रचुर धन प्रदान करनेवाले, (प्राप्ति) = प्राप्ति का, (हेतवः)=कारण, (त्वायवः) त्वां तं वोपेताः= आपके उन, (आयुषः)= शस्त्र, (पूतासः) शुद्धाः शोधिताश्च = शुद्ध और पवित्र किये हुए, (सुताः) उत्पन्ना मूर्त्तिमन्तः पदार्थाः =उत्पन्न हुए मूर्तिमान् पदार्थ, (प्रकाशयुक्ताः)=प्रकाश से युक्त, (क्रियन्ते)=करते हैं, (तैः)= उनके द्वारा (गृहीता)= ग्रहण किए हुए, (उपकारान्)=उपकार, (अस्मान्)=हमारे लिए, (सम्पादय)=प्राप्त कराओ ॥४॥  

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    यहाँ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार से ईश्वर और सूर्य के कर्मों को प्रकाशित किया गया है। सब मनुष्यों को चाहिये कि उनके द्वारा परमार्थ और व्यवहार की सिद्धि के लिये अच्छी प्रकार से  उपयोग में लें॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (प्रथमः)-  हे  (चित्रभानो) जिसका सूर्य एक अद्भुत प्रकार से चमकता है, (इन्द्र) ऐसे परमेश्वर या सूर्य ! (त्वम्) आप, (अस्मान्) हमें (कृपया प्राप्नुहि) कृपया अच्छी तरह से प्राप्त होओ। (येन) जिससे (भवता) आपके द्वारा (इमे) ये (अण्वीभिः) प्रकाश की किरणों से (तना) प्रचुर धन देनेवाले, (पूतासः) पवित्र और पवित्र किये हुए (त्वायवः) आपके उन (सुताः) उत्पन्न किये हुए मूर्तिमान् पदार्थ  (वर्त्तन्ते) हैं, (तैः) उनके द्वारा (गृहीता) ग्रहण किए हुए (उपकारान्) उपकार (अस्मान्) हमारे लिए (सम्पादय) प्राप्त कराओ ॥४॥

    (द्वितीयः)- (यः) जो, (अयम्) यह (इन्द्र)  सूर्य, (सर्वान्) समस्त (पदार्थान्) पदार्थों को (आयाति) प्राप्त कराता है। (तेन) उसके द्वारा  (इमे) वर्तमान    (अण्वीभिः) प्रकाश की किरणों से (तना) प्रचुर धन प्रदान करनेवाले, (प्राप्ति) प्राप्ति के (हेतवः) कारण (त्वायवः) आपके उन (आयुषः) शस्त्र और (पूतासः) शुद्ध और पवित्र किये हुए, (सुताः) उत्पन्न हुए मूर्तिमान् पदार्थों को (प्रकाशयुक्ताः) प्रकाश से युक्त (क्रियन्ते) करते हैं। (तैः) उनके द्वारा (गृहीता) ग्रहण किए हुए (उपकारान्) उपकार (अस्मान्) हमारे लिए (सम्पादय) प्राप्त कराओ ॥४॥  

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इन्द्र) परमेश्वर सूर्य्यो वा। अत्राह यास्काचार्य्यः-इन्द्र इरां दृणातीति वेरां ददातीति वेरां दधातीति वेरां दारयत इति वेरां धारयत इति वेन्दवे द्रवतीति वेन्दौ रमत इति वेन्धे भूतानीति वा। तद्यदेनं प्राणैः समैन्धँस्तदिन्द्रस्येन्द्रत्वमिति विज्ञायते। इदं करणादित्याग्रायण इदं दर्शनादित्यौपमन्यव इन्दतेर्वैश्वर्य्यकर्मण इदञ्छत्रूणां दारयिता वा द्रावयिता वा दारयिता च यज्वनाम्। (निरु०१०.८) इन्द्राय साम गायत नेन्द्रादृते पवते धाम किंचनेन्द्रस्य नु वीर्य्याणि प्रवोचमिन्द्रे कामा अयंसत। (निरु०७.२)। इराशब्देनान्नं पृथिव्यादिकमुच्यते। तद्दारणात्तद्दानात्तद्धारणात्। चन्द्रलोकस्य प्रकाशाय द्रवणात्तत्र रमणादित्यर्थेनेन्द्रशब्दात् सूर्य्यलोको गृह्यते। तथा सर्वेषां भूतानां प्रकाशनात् प्राणैर्जीवस्योपकरणादस्य सर्वस्य जगत उत्पादनाद् दर्शनहेतोश्च सर्वैश्वर्य्ययोगाद् दुष्टानां शत्रूणां विनाशकाद् दूरे गमकत्वाद् यज्वनां रक्षकत्वाच्चेत्यर्थादिन्द्रशब्देनेश्वरस्य ग्रहणम्। एवं परमेश्वराद्विना किञ्चिदपि वस्तु न पवते। तथा सूर्य्याकर्षणेन विना कश्चिदपि लोको नैव चलति तिष्ठति वा। प्र तु॑विद्यु॒म्नस्य॒ स्थवि॑रस्य॒ घृष्वे॑र्दि॒वो र॑रप्शे महि॒मा पृ॑थि॒व्याः। नास्य॒ शत्रु॒र्न प्र॑ति॒मान॑मस्ति॒ न प्र॑ति॒ष्ठिः पु॑रुमा॒यस्य॒ सह्योः॑॥ (ऋ०६.१८.१२) यस्यायं महाप्रकाशस्य वृद्धस्य सर्वपदार्थानां जगदुत्पत्तौ सङ्घर्षकर्त्तुः सहनशीलस्य बहुपदार्थनिर्मातुरिन्द्रस्य परमैश्वर्य्यवतः परमेश्वरस्य सूर्य्यलोकस्य सृष्टेर्मध्ये महिमा प्रकाशते तस्यास्य न कश्चिच्छत्रुः, न किञ्चित्परिमाणसाधनमर्थादुपमानं नैकत्राधिकरणं चास्ति, इत्यनेनोभावर्थौ गृह्येते।(आयाहि) समन्तात्प्राप्तो भव भवति वा (चित्रभानो) चित्रा आश्चर्यभूता भानवो दीप्तयो यस्य सः (सुताः) उत्पन्ना मूर्त्तिमन्तः पदार्थाः (इमे) विद्यमानाः (त्वायवः) त्वां तं वोपेताः। छन्दसीणः। (उणा०१.२) इत्यौणादिके उण्प्रत्यये कृते आयुरिति सिध्यति। त्वदित्यत्र छान्दसो वर्णलोपो वेत्यनेन तकारलोपः। (अण्वीभिः) कारणैः, प्रकाशावयवैः किरणैरङ्गुलिभिर्वा। वोतो गुणवचनात्। (अष्टा०४.१.४४) अनेन ङीषि प्राप्ते व्यत्ययेन ङीन्। (तना) विस्तृतधनप्रदाः। तनेति धननामसु पठितम्। (निरु०२.१०) अत्र सुपां सुलुगित्यनेनाकारादेशः। (पूतासः) शुद्धाः शोधिताश्च॥४॥
    विषयः- इदानीमेतद्विद्योपयोगिनाविन्द्रशब्देनेश्वरसूर्य्यावुपदिश्येते।

    अन्वयः(महर्षिकृतः)- हे चित्रभानो इन्द्र परमेश्वर ! त्वमस्मानायाहि कृपया प्राप्नुहि, येन भवता इमे अण्वीभिस्तना पुष्कलद्रव्यदाः पूतासस्त्वायवः सुता उत्पादिता पदार्था वर्त्तन्ते तैर्गृहीतोपकारानस्मान्सम्पादय। तथा योऽयमिन्द्रः स्वगुणैः सर्वान् पदार्थानायाति प्राप्नोति तेनेमे अण्वीभिः किरणकारणावयवैस्तना विस्तृतप्राप्तिहेतवस्त्वायवस्तन्निमित्तप्राप्तायुषः पूतासः सुताः संसारस्थाः पदार्थाः प्रकाशयुक्ताः क्रियन्ते तैरिति पूर्ववत्॥४॥


    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषालङ्कारेणेश्वरस्य सूर्य्यस्य वा यानि कर्माणि प्रकाश्यन्ते तानि परमार्थव्यवहारसिद्धये मनुष्यैः समुपयोक्तव्यानि सन्तीति॥४॥

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    विषय

    सूर्य के समान राजा के कर्त्तव्य, पक्षान्तर में परमेश्वर का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! परमेश्वर ! राजन् ! हे ( चित्रभानो ) अद्भुत आश्चर्यकारक दीप्तियों वाले ! तू ( आयाहि ) आ, हमें प्राप्त हो । ( इमे ) ये ( सुताः ) उत्पन्न समस्त पदार्थ, ऐश्वर्य ( त्वायवः ) तुझे प्राप्त हों। और वे ( तना ) विस्तृत धनसम्पत्तियुक्त, ( अण्वीभिः ) किरणों या तेजों से युक्त ( पूतासः ) परम पवित्र हैं। इसी प्रकार हे राजन् ! ( इमे त्वायवः सुताः ) ये तुझे प्राप्त अभिषिक्त राजगण भी ( अण्वीभिः पूतासः ) किरणों के समान तेजस्विनी शक्तियों या प्रजाओं से पवित्र आचारवान् एवं अभिषिक्त हैं । तू उनको प्राप्त हो । छोटे २ राजा भी अपने मण्डलों की प्रजाओं द्वारा अभिषिक्त हों और । वे अपने बीच में सूर्य के समान महाराजा के अधीन रहें । परमेश्वर पक्ष में—ये समस्त पदार्थ ( अण्वीभिः ) सूक्ष्म कारण द्रव्यों से बने हैं, ये सब तुझे ही प्राप्त कराते, तेरी महिमा गाते हैं ॥ सूर्य पक्ष में—ये सब पदार्थ किरणों से शुद्ध पवित्र होते हैं वे तुझे ही प्राप्त हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१२ मधुच्छन्दा ऋषिः ॥ देवता—१-३ अश्विनौ । ४-६ इन्द्रः । ७-९ विश्वे देवाः । १०–१२ सरस्वती ।। गायत्र्य: ।। द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    येथे श्लेषालंकार आहे. या मंत्रात जे जे परमेश्वर व सूर्याचे गुण, कर्म सांगितलेले आहेत त्याचा परमार्थसिद्धीसाठी व व्यवहारसिद्धीसाठी माणसांनी चांगल्या प्रकारे उपयोग करून घ्यावा ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    Indra, Lord Supreme of wondrous light and power, come and bless us. All these sacred objects in existence, created, energised and extended over spaces from the subtlest causes by you are sustained in your divine power.

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    Translation

    O soul, the lower self, of wonderful splendour , listen to us. All attainments of the vital and mental complex are meant for your acceptance.

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    Subject of the mantra

    God has preached about Himself and the Sun in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    First in favour of God- He=O! (citrabhāno)=whose Sun shines in a wonderful way,, (indra)= such a god or sun, (tvam) you, (asmān)=to us,(kṛpayā prāpnuhi)=please get obtained, (yena)=like, (bhavatā)=by you, (ime)=these, (aṇvībhiḥ)=by Sun rays, (tanā)=provider of ample wealth, (pūtāsaḥ)=holy and sanctified, (tvāyavaḥ)=your those, (sutāḥ)=created substances are, (varttante)=are, (taiḥ)=by them, (gṛhītā)=having received (upakārān)=favour/help, (asmān)=for us, (sampādaya)=get it obtained. Second in favour of Sun- (yaḥ)=which, (ayam)=these, (indra)=sun, Our=and, (sarvān)=all, (padārthān)=to substances, (āyāti) =gets obtained, (tena)=by him, (ime) =present these, (aṇvībhiḥ)=by the part of light due to, (tanā)=being expanded in the whole universe, (prāpti)=of gaining, (hetavaḥ)=reason, (tvāyavaḥ)=with that light of yours, (āyuṣaḥ)=weapons, (pūtāsaḥ)=purified and sanctified, (sutāḥ)=produced material substances, (prakāśayuktāḥ)=illuminated, (kriyante)=do, (taiḥ)=by them, (gṛhītā)=received, (upakārān)=benefactions, (asmān)=for us, (sampādaya)= get it obtained.

    English Translation (K.K.V.)

    O whose Sun shines in a wonderful way, such a God! You please get obtained well to us. By which you have made these rich, holy and sanctified with rays of light, get it obtained for us for the help received from you which are the embodied substances created by you. English Translation (K.K.V.) Second in favour of Sun- This Sun, which provides all things; through that those who give abundant wealth by the rays of the present light. Because of your attainment, those of yours weapons and the idol objects created, purified and sanctified, endowed with light. Get obtained the favours received by them for us.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is paronomasia as a figurative in this mantra. The deeds of the God and Sun have been elucidated. All human beings should use them well for the accomplishment of charity and conduct.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) O God of Wonderful light or marvelously Bright Lord, please come i.e. may we attain Thee on all sides as Thou hast made all these objects with subtle causes and they giving various kinds of wealth and being pure are in Thee. They are dependent on Thee for nourishment and support. Enable us to get benefit by their proper use. The second meaning of the word Indra which is the devata or subject matter of this Mantra is the sun. This sun with his rays comes to all objects. It is the sun who gives light to all these objects of the world and purifies them with his rays.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    By the use of the Shleshalankara or Paronomasia the word Indra is to be taken here for God and the sun. It is they that give light to all. All should use them properly for spiritual and secular purposes.

    Translator's Notes

    (रुद्रा:) प्राणा वै रुद्रा: (शत० ११ –६, ३ –७ ) By अश्विनौ may also be taken men and women of self-control who are absolutely truthful. They should be destroyers of miseries and should attend Yajnas as priests. इन्द्रियाणि हयानाहुः ( कठोपः १.३.४. )The senses have been compared to the horses, so अश्विनौ means men and women of self-control. In the Nirukta 10.8 various etymologies of Indra have been given which prove that it stands primarily for God and secondarily for the sun इदंकरणात् इदंदर्शनात् etc. The Creator of the world, the Seer of the world etc. In the Mantras like इन्द्राय साम गायत । नेन्द्रादृते पवते धाम किंचन etc. the word Indra is used in the sense of God without whom, nothing can be pure. In mantra like- प्रतु॑विद्युम्नस्य स्थवि॑रस्यधृष्वेदिवो ररप्शे महिमा पृथिव्याः । नास्य॒ शत्रुर्न प्र॑ति॒मानमस्ति न प्रति॒ष्ठि: पु॑रुमा॒यस्य॒ सह्योः ।। अ० ६. १८. १२ । Indra stands both for God and the sun whose glory is shining everywhere.

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