ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 3/ मन्त्र 5
ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
इन्द्रा या॑हि धि॒येषि॒तो विप्र॑जूतः सु॒ताव॑तः। उप॒ ब्रह्मा॑णि वा॒घतः॑॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । आ । या॒हि॒ । धि॒या । इ॒षि॒तः । विप्र॑ऽजूतः । सु॒तऽव॑तः । उप॑ । ब्रह्मा॑णि । वा॒घतः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रा याहि धियेषितो विप्रजूतः सुतावतः। उप ब्रह्माणि वाघतः॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र। आ। याहि। धिया। इषितः। विप्रऽजूतः। सुतऽवतः। उप। ब्रह्माणि। वाघतः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेन्द्रशब्देनेश्वर उपदिश्यते।
अन्वयः
हे इन्द्र ! धियेषितः विप्रजूतस्त्वं सुतावतो ब्रह्माणि वाघतो विदुष उपायाहि॥५॥
पदार्थः
(इन्द्र) परमेश्वर ! (आयाहि) प्राप्तो भव (धिया) प्रकृष्टज्ञानयुक्त्या बुद्ध्योत्तमकर्मणा वा (इषितः) प्रापयितव्यः (विप्रजूतः) विप्रैर्मेधाविभिर्विद्वद्भिर्ज्ञातः। विप्र इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं०३.१५) (सुतावतः) प्राप्तपदार्थविद्यान् (उप) सामीप्ये (ब्रह्माणि) विज्ञातवेदार्थान् ब्राह्मणान्। ब्रह्म वै ब्राह्मणः। (श०ब्रा०१३.१.५.३) (वाघतः) यज्ञविद्यानुष्ठानेन सुखसम्पादिन ऋत्विजः। वाघत इति ऋत्विङ्नामसु पठितम्। (निघं०३.१८)॥५॥
भावार्थः
मनुष्यैर्मूलकारणस्येश्वरस्य संस्कृतया बुद्ध्या विज्ञानतः साक्षात्प्राप्तिः कार्य्या। नैवं विनाऽयं केनचिन्मनुष्येण प्राप्तुं शक्य इति॥५॥
हिन्दी (4)
विषय
ईश्वर ने अगले मन्त्र में अपना प्रकाश किया है-
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमेश्वर ! (धिया) निरन्तर ज्ञानयुक्त बुद्धि वा उत्तम कर्म से (इषितः) प्राप्त होने और (विप्रजूतः) बुद्धिमान् विद्वान् लोगों के जानने योग्य आप (सुतावतः) पदार्थविद्या के जाननेवाले (ब्रह्माणि) ब्राह्मण अर्थात् जिन्होंने वेदों का अर्थ जाना है, तथा (वाघतः) जो यज्ञविद्या के अनुष्ठान से सुख उत्पन्न करनेवाले हैं, इन सबों को कृपा से (उपायाहि) प्राप्त हूजिये॥५॥
भावार्थ
सब मनुष्यों को उचित है कि जो सब कार्य्यजगत् की उत्पत्ति करने में आदिकारण परमेश्वर है, उसको शुद्ध बुद्धि विज्ञान से साक्षात् करना चाहिये॥५॥
विषय
बुद्धि का सम्पादन
पदार्थ
१. गतमन्त्र में जीव द्वारा की गई प्रार्थना को सुनकर प्रभु कहते हैं कि हे (इन्द्र) - इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव ! (आयाहि) - तू मेरे समीप आ ।
२. मेरे समीप आने के लिए ही तू (धिया इषितः) - बुद्धि से प्रेरित होता है , तू सारे कार्यों को बुद्धिपूर्वक करता है अथवा बुद्धि को प्राप्त करने के हेतु से तू प्रेरित होता है , तेरी चेष्टाएँ बुद्धि को प्राप्त करने के लिए होती हैं । सूक्ष्मबुद्धि के द्वारा ही तो तू ब्रह्माण्ड में मेरी महिमा को देख पाएगा ।
३. (विप्रजूतः) तू अपने ब्रह्मचर्यकाल में ज्ञानी आचार्यों से प्रेरित हुआ है [जु - प्रेरणे] , वर्तमान में भी ज्ञानियों के सम्पर्क में रहने के कारण तू सदा उनसे उत्तम ज्ञान की प्रेरणा प्राप्त करता रहता है ।
४. तू (सतावतः) सोम का सम्पादन करनेवाले , संयम द्वारा सोम की रक्षा करनेवाले (वाघतः) मेधावी पुरुष के ज्ञान का वहन करनेवाले विद्वान् व्यक्ति के (ब्रह्माणि) - ज्ञानों को (उप) - समीप रहकर प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु - प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि [क] हमारी प्रत्येक चेष्टा बुद्धि - प्राप्ति को लक्ष्य करके हो , [ख] हमें ज्ञानी पुरुषों से प्रेरणा मिलती रहे तथा [ग] हम संयमी विद्वान् पुरुषों के समीप रहकर ज्ञान - प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहें ।
विषय
विषय(भाषा)- ईश्वर ने इस मन्त्र में अपना प्रकाश किया है-
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे इन्द्र ! धिया इषितः विप्रजूतः त्वं सुतावतः ब्रह्माणि वाघतः विदुष उप आयाहि॥५॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमेश्वर!=परमेश्वर ! (धिया) प्रकृष्टज्ञानयुक्त्या बुद्ध्योत्तमकर्मणा वा= प्रकृष्ट ज्ञानयुक्त बुद्धि वा उत्तम कर्म से, (इषितः) प्रापयितव्यः= प्राप्त होने योग्य, (विप्रजूतः) विप्रैर्मेधाविभिर्विद्वद्भिर्ज्ञातः= बुद्धिमान् विद्वान् लोगों के जानने योग्य, (त्वम्)=तुम, (सुतावतः) प्राप्तपदार्थविद्यान्= पदार्थविद्या के जाननेवाले, (वाघतः) यज्ञविद्यानुष्ठानेन सुखसम्पादिन ऋत्विजः= जो यज्ञविद्या के अनुष्ठान से सुख उत्पन्न करनेवाले हैं, (ब्रह्माणि) विज्ञातवेदार्थान् ब्राह्मणान्=ब्राह्मण अर्थात् जिन्होंने वेदों का अर्थ जाना है, (विदुषः)=विद्वान् लोग, (उप) सामीप्ये=समीप, (आयाहि) प्राप्तो भव=प्राप्त हो जाओ। ॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद- सब मनुष्यों को उचित है कि जो सब कार्यजगत् की उत्पत्ति करने में आदिकारण परमेश्वर है, उसका शुद्ध बुद्धि विज्ञान से साक्षात् करना चाहिये॥५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (इन्द्र) परमेश्वर ! (धिया) प्रकृष्ट ज्ञानयुक्त बुद्धि वा उत्तम कर्म से (इषितः) प्राप्त होने योग्य (विप्रजूतः) बुद्धिमान् विद्वान् लोगों के जानने योग्य (त्वम्) तुम (सुतावतः) पदार्थविद्या के जाननेवाले (वाघतः) जो यज्ञविद्या के अनुष्ठान से सुख उत्पन्न करनेवाले हैं, (ब्रह्माणि) ब्राह्मण अर्थात् जिन्होंने वेदों का अर्थ जाना है को (विदुषः) विद्वान् लोग (उप) समीप (आयाहि) प्राप्त हो जाओ ॥५॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इन्द्र) परमेश्वर ! (आयाहि) प्राप्तो भव (धिया) प्रकृष्टज्ञानयुक्त्या बुद्ध्योत्तमकर्मणा वा (इषितः) प्रापयितव्यः (विप्रजूतः) विप्रैर्मेधाविभिर्विद्वद्भिर्ज्ञातः। विप्र इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं०३.१५) (सुतावतः) प्राप्तपदार्थविद्यान् (उप) सामीप्ये (ब्रह्माणि) विज्ञातवेदार्थान् ब्राह्मणान्। ब्रह्म वै ब्राह्मणः। (श०ब्रा०१३.१.५.३) (वाघतः) यज्ञविद्यानुष्ठानेन सुखसम्पादिन ऋत्विजः। वाघत इति ऋत्विङ्नामसु पठितम्। (निघं०३.१८)॥५॥
विषयः- अथेन्द्रशब्देनेश्वर उपदिश्यते।
अन्वयः- हे इन्द्र ! धियेषितः विप्रजूतस्त्वं सुतावतो ब्रह्माणि वाघतो विदुष उपायाहि ॥५॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्मूलकारणस्येश्वरस्य संस्कृतया बुद्ध्या विज्ञानतः साक्षात्प्राप्तिः कार्य्या। नैवं विनाऽयं केनचिन्मनुष्येण प्राप्तुं शक्य इति॥५॥
विषय
सूर्य के समान राजा के कर्त्तव्य, पक्षान्तर में परमेश्वर का वर्णन ।
भावार्थ
हे (इन्द्र) सूर्य के समान तेजस्वी और ऐश्वर्यवन् ! तू (धिया) उत्तम ज्ञान वाली बुद्धि और उत्तम कर्म से ( इषितः ) प्राप्त होने योग्य है । तू ( विप्रजूतः ) विद्वान् मेधावि पुरुषों से जाना जाता है। तू ( सुतावतः ) उत्तम ज्ञानवान्, मेधावी ( ब्रह्माणि ) वेदज्ञ ब्राह्मण पुरुषों को ( उप आयाहि ) प्राप्त हो ।
टिप्पणी
ब्रह्म वै ब्राह्मणः । शत० १३ । १ ।५।३ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-१२ मधुच्छन्दा ऋषिः ॥ देवता—१-३ अश्विनौ । ४-६ इन्द्रः । ७-९ विश्वे देवाः । १०–१२ सरस्वती ।। गायत्र्य: ।। द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
संपूर्ण कार्यजगताची उत्पत्ती करणारा आदिकारण परमेश्वर आहे तेव्हा माणसांनी शुद्ध बुद्धी विज्ञानाने त्याचा साक्षात्कार केला पाहिजे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (4)
Meaning
Indra, Lord Supreme of light and life, meditated by the pure at heart, realised by the enlightened, distilled from the Veda and the world of existence by the visiona ries, come and inspire the chant of the dedicated yajakas.
Translation
O soul, you are apprehended by understanding, admired by the wise, and sought after by the seekers. May you accept and assimilate what comes out as the essence of a toiling and purposeful life.
Subject of the mantra
God has elucidated about Himself in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (indra)=God, (dhiyā)=by eminent wisdom of knowledge or excellent deed, (iṣitaḥ) =attainable, (viprajūtaḥ)=Worth knowing by intelligent scholars, (tvam)=you, (sutāvataḥ) =knowing material sciences, (vāghataḥ)=those who derive happiness through yajnik rituals, (brahmāṇi)= Brahmin means one who has known the meaning of Vedas, (viduṣaḥ)=scholars, (upa)=closely, (āyāhi)=get to.
English Translation (K.K.V.)
O God! Attainable by eminent wisdom of knowledge or excellent deed, worth knowing by intelligent scholars, You, knowing material sciences; those who derive happiness through yajnik rituals; Brahmanas, in other words those who have understood meanings of Vedas, get obtained to such scholars closely.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
It is proper for all human beings that God who is the primordial cause of creation of all the worlds of action. His intuitive perception should be done with pure specific intellect.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
In this Mantra, God is meant by the word Indra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God! Thou art to be attained through intellect full of wisdom and noble deeds. Thou art known only by the wise. Come therefore O Lord to the enlightened persons who have acquired knowledge of science, are the knowers of the Vedas and priests who bring happiness to all by the performance of the Yajnas and spreading of knowledge.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
विप्र इति मेधाविनामसु ( निघ. ३.१५ ) ब्रह्म वै ब्राह्मणः (शत० ३.१.५.३ ) बाघत इति ऋत्विङ् नामसु ( निघ० ३.१८)
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
People should try to have the realization of God who is the First Efficient Cause or Origin of the Universe, with intellect and wisdom. Without it, He cannot be attained by any one.
Translator's Notes
By coming of God is meant the realization of God's presence in the heart and everywhere else. It is a metaphorical expression. The sage of the Kathopnishad says the same thing in 1.3.12. एष सर्वेषु भूतेषु, गूढात्मा न प्रकाशते । दृश्यते त्वग्रया बुद्धया, सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः ।। He (God) is the Secret Self in all existences and does not manifest Himself to vision, yet is He seen by the seers of the subtle and perfect understanding. ( Shri Aurobindo's Translation ).
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