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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 3/ मन्त्र 8
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    विश्वे॑ दे॒वासो॑ अ॒प्तुरः॑ सु॒तमाग॑न्त॒ तूर्ण॑यः। उ॒स्रा इ॑व॒ स्वस॑राणि॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वे॑ । दे॒वासः॑ । अ॒प्ऽतुरः॑ । सु॒तम् । आ । ग॒न्त॒ । तूर्ण॑यः । उ॒स्राःऽइ॑व । स्वस॑राणि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वे देवासो अप्तुरः सुतमागन्त तूर्णयः। उस्रा इव स्वसराणि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वे। देवासः। अप्ऽतुरः। सुतम्। आ। गन्त। तूर्णयः। उस्राःऽइव। स्वसराणि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तानेवोपदिशति।

    अन्वयः

    हे अप्तुरस्तूर्णयो विश्वेदेवासः यूयं स्वसराणि प्रकाशयितुं उस्राः किरणा इव सुतं कर्मोपासनाज्ञानरूपं व्यवहारं प्रकाशयितुमागन्त नित्यमागच्छत समन्तात्प्राप्नुत॥८॥

    पदार्थः

    (विश्वे) समस्ताः (देवासः) विद्यावन्तः (अप्तुरः) मनुष्याणामपः प्राणान् तुतुरति विद्यादिबलानि प्राप्नुवन्ति प्रापयन्ति च ते। अयं शीघ्रार्थस्य तुरेः क्विबन्तः प्रयोगः। (सुतम्) अन्तःकरणाभिगतं विज्ञानं कर्तुम् (आगन्त) आगच्छत। अयं गमेर्लोटो मध्यमबहुवचने प्रयोगः। बहुलं छन्दसि। (अष्टा०२.४.७३) इत्यनेन शपो लुकि कृते तप्तनप्तनथनाश्च। (अष्टा०७.१.४५) इति तबादेशे पित्वादनुनासिकलोपाभावः। (तूर्णयः) सर्वत्र विद्यां प्रकाशयितुं त्वरमाणाः। ञित्वरा सम्भ्रमे इत्यस्मात् वहिश्रिश्रुयुद्रुग्लाहात्वरिभ्यो नित्। (उणा०४.५३) अत्र नेरनुवर्त्तनात्तूर्णिरिति सिद्धम्। (उस्रा इव) सूर्य्यकिरणा इव। उस्रा इति रश्मिनामसु पठितम्। (निरु०१.५) (स्वसराणि) अहानि। स्वसराणीत्यहर्नामसु पठितम्। (निरु०१.९)॥८॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ईश्वरेणैतन्मन्त्रेणेयमाज्ञा दत्ता-हे सर्वे विद्वांसो नैव युष्माभिः कदाचिदपि विद्यादिशुभगुणप्रकाशकरणे विलम्बालस्ये कर्त्तव्ये। यथा दिवसे सर्वे मूर्तिमन्तः पदार्थाः प्रकाशिता भवन्ति तथैव युष्माभिरपि सर्वे विद्याविषयाः सदैव प्रकाशिता कार्य्या इति॥८॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    ईश्वर ने फिर भी उन्हीं विद्वानों का प्रकाश अगले मन्त्र में किया है-

    पदार्थ

    हे (अप्तुरः) मनुष्यों को शरीर और विद्या आदि का बल देने, और (तूर्णयः) उस विद्या आदि के प्रकाश करने में शीघ्रता करनेवाले (विश्वेदेवासः) सब विद्वान् लोगो ! जैसे (स्वसराणि) दिनों को प्रकाश करने के लिये (उस्रा इव) सूर्य्य की किरण आती-जाती हैं, वैसे ही तुम भी मनुष्यों के समीप (सुतम्) कर्म, उपासना और ज्ञान को प्रकाश करने के लिये (आगन्त) नित्य आया-जाया करो॥८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है।

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    विषय

    अनालस्य व कर्मशीलता

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में वर्णित (विश्वेदेवासः) - सब दिव्यगुण (सुतम्) - सोमनिष्पादनरूप यज्ञ में (आगन्त) - आते हैं  , अर्थात् शरीर में सोमकणों की रक्षा करने पर हममें दिव्यगुणों का विकास होता है । 
    २. ये विश्वेदेव (अप्तुरः) [अप्सु तुतुरति  , तुर त्वरणे] कर्मों को शीघ्रता से करनेवाले होते हैं  , अर्थात् क्रियाशील होते हैं । (तूर्णयः) - त्वरावाले  , आलस्य से शून्य ये देव होते हैं । वस्तुतः दिव्यगुणों का सम्भव क्रियामयता व आलस्यशून्यता में ही है । अकर्मण्यता व आलस्य सब दुर्गुणों के लिए गद्देदार आसन का काम करते हैं । यह आलस्य ही विलास के लिए उर्वराभूमि प्रमाणित होता है । ३. क्रियामयता  , आलस्यशून्यता व इनके द्वारा सोम का संरक्षण होने पर सब दिव्यगुण इस प्रकार निश्चय से हमें प्राप्त होते हैं (इव) - जैसे कि (उस्त्रा) - किरणें (स्वसराणि) - दिनों को प्राप्त होती हैं । 'दिन निकले और सूर्य - किरणें भूमि पर न पड़ें' यह सम्भव नहीं  , इसी प्रकार हम 'अप्तुर  , तूर्णि व सुतसम्पादक' बनें और हमें दिव्यगुण प्राप्त न हो  , यह असम्भव है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - दिव्यगुणों की प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि हम [क] क्रियाशील बनें  , [ख] आलस्यशून्य हों  , [ग] वीर्यरक्षणरूप 'सुत' यज्ञ को करनेवाले हों । 
     

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    विषय

    ईश्वर ने फिर भी उन्हीं विद्वानों का प्रकाश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे अप्तुरः तूर्णयः विश्वे देवासः यूयं  स्वसराणि प्रकाशयितुम्  उस्राः किरणा इव सुतं कर्मोपासना ज्ञानरूपं व्यवहारं प्रकाशयितुम् आगन्त नित्यम् आगच्छत समन्तात् प्राप्नुत॥८॥

    पदार्थ

    हे (अप्तुरः) मनुष्याणामपः प्राणान् तुतुरति विद्यादिबलानि प्राप्नुवन्ति प्रापयन्ति च ते=मनुष्यों को शरीर और विद्या आदि का बल देने, और  (तूर्णयः) सर्वत्र विद्यां प्रकाशयितुं त्वरमाणाः= उस विद्या आदि के प्रकाश करने में शीघ्रता करनेवाले,  (विश्वे) समस्ताः=समस्त, (देवास) विद्यावन्तः=विद्वान्, (यूयम्)= तुम सब, (स्वसराणि) अहानि स्वसराणी= दिनों को प्रकाश करने के लिये, (उस्रा इव) सूर्य्यकिरणा इव=सूर्य्य की किरणों के समान, (सुतम्) अन्तःकरणाभिगतं विज्ञानं कर्तुम्=अन्तःकरण के अन्तर्गत  ज्ञान का प्रकाश करने के लिये, (कर्मोपासना)=कर्म और उपासना को, (ज्ञानरूपम्)= जानने के लिए, (व्यवहारम्)= व्यवहार, (प्रकाशयितुम्)= प्रकाशित करने के लिए.  (आगन्त) आगच्छत=आया करो॥८॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमा अलङ्गकार है।  ईश्वर ने इस मन्त्र में आज्ञा दी है-हे समस्त विद्वानों आपके द्वारा कभी भी विद्या आदि शुभगुणों के प्रकाश करने में विलम्ब या आलस्य नहीं करना चाहिए। जैसे दिन में सब मूर्तिमान् पदार्थ प्रकाशित होते हैं, वैसे ही तुम लोगों के द्वारा भी समस्त विद्याओं के विषयों का  सदैव प्रकाश करना चाहिए।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (अप्तुरः) मनुष्यों को शरीर और विद्या आदि का बल देने और  (तूर्णयः) उस विद्या आदि के प्रकाश करने में शीघ्रता करनेवाले,  (विश्वे) समस्त  (देवास)  विद्वान् लोगों! (यूयम्) तुम सब  (स्वसराणि) दिनों को प्रकाशित करने के लिये (उस्रा इव) सूर्य की किरणों के समान, (सुतम्) अन्तःकरण के अन्तर्गत  ज्ञान का प्रकाश करने के लिये, (कर्मोपासना) कर्म और उपासना को (ज्ञानरूपम्) ज्ञानरूप (व्यवहारम्) व्यवहार में, (प्रकाशयितुम्)  प्रकाशित करने के लिये (आगन्त) आओ॥८॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (विश्वे) समस्ताः (देवासः) विद्यावन्तः (अप्तुरः) मनुष्याणामपः प्राणान् तुतुरति विद्यादिबलानि प्राप्नुवन्ति प्रापयन्ति च ते। अयं शीघ्रार्थस्य तुरेः क्विबन्तः प्रयोगः। (सुतम्) अन्तःकरणाभिगतं विज्ञानं कर्तुम् (आगन्त) आगच्छत। अयं गमेर्लोटो मध्यमबहुवचने प्रयोगः। बहुलं छन्दसि। (अष्टा०२.४.७३) इत्यनेन शपो लुकि कृते तप्तनप्तनथनाश्च। (अष्टा०७.१.४५) इति तबादेशे पित्वादनुनासिकलोपाभावः। (तूर्णयः) सर्वत्र विद्यां प्रकाशयितुं त्वरमाणाः। ञित्वरा सम्भ्रमे इत्यस्मात् वहिश्रिश्रुयुद्रुग्लाहात्वरिभ्यो नित्। (उणा०४.५३) अत्र नेरनुवर्त्तनात्तूर्णिरिति सिद्धम्। (उस्रा इव) सूर्य्यकिरणा इव। उस्रा इति रश्मिनामसु पठितम्। (निरु०१.५) (स्वसराणि) अहानि। स्वसराणीत्यहर्नामसु पठितम्। (निरु०१.९)॥८॥
    विषयः- पुनस्तानेवोपदिशति।

    अन्वयः- हे अप्तुरस्तूर्णयो विश्वेदेवासः यूयं स्वसराणि प्रकाशयितुं उस्राः किरणा इव सुतं कर्मोपासनाज्ञानरूपं व्यवहारं प्रकाशयितुमागन्त नित्यमागच्छत समन्तात्प्राप्नुत॥८॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। ईश्वरेणैतन्मन्त्रेणेयमाज्ञा दत्ता-हे सर्वे विद्वांसो नैव युष्माभिः कदाचिदपि विद्यादिशुभगुणप्रकाशकरणे विलम्बालस्ये कर्त्तव्ये। यथा दिवसे सर्वे मूर्तिमन्तः पदार्थाः प्रकाशिता भवन्ति तथैव युष्माभिरपि सर्वे विद्याविषयाः सदैव प्रकाशिता कार्य्या इति॥

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    विषय

    विद्वानों और वीर पुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( उस्राः ) सूर्य के किरण ( स्वसराणि इव ) जिस प्रकार दिनों को प्रकाशित करने के लिये नित्य नियम से आते हैं, उसी प्रकार हे ( विश्वे देवासः ) विद्वान् ज्ञान-प्रकाश से युक्त पुरुषो ! आप लोग ( अप्तुरः ) मेघों के समान मनुष्यों को जल वृष्टि द्वारा अन्नादि बुद्धि और कर्मों का उपदेश देने वाले, ( तूर्णयः ) स्वयं अति शीघ्रता से प्राप्त होने में समर्थ होकर ( सुतम् ) ज्ञान प्रदान करने के लिये, अथवा ( सुतम् ) अभिषिक्त राजा या समृद्ध राष्ट्र को ( आ गन्त ) प्राप्त होओ ।

    टिप्पणी

    ‘स्वसराणि’ – अहानि भवन्ति । स्वयं सारीणि । अपि वा स्वरादित्यो भवति स एनानि सारयति । निरु० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१२ मधुच्छन्दा ऋषिः ॥ देवता—१-३ अश्विनौ । ४-६ इन्द्रः । ७-९ विश्वे देवाः । १०–१२ सरस्वती ।। गायत्र्य: ।। द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. ईश्वराने जी आज्ञा केलेली आहे ती सर्व विद्वानांनी निश्चयाने जाणून घ्यावी की विद्या इत्यादी शुभगुणांना प्रकाशित करण्यास कुणीही थोडासाही विलंब किंवा आळस करू नये. जसे सूर्य दिवसा सर्व पदार्थांना प्रकाशित करतो तसेच विद्वान लोकांनीही विद्या सदैव प्रकाशित केली पाहिजे. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    Visionaries of the world, generous givers, wise scholars of life and literature, fast as winds and eager as dawn for the day and mother-cow for the calf in the stall, come to your own and bring us the essences of knowledge and wisdom.

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    Translation

    May our swift-moving senses, givers of happiness, bring functional perfection, as the solar rays diligently bring day-light.

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    Subject of the mantra

    God has again elucidated same scholars in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (apturaḥ)=giving human beings power of body wisdom etc. [aura]=and, (tūrṇayaḥ)=making haste in elucidating by knowledge etc. (viśve)=all, (devāsa)=scholars, (yūyam)=you all, (svasarāṇi) =to illuminate days, (usrā iva)= like the rays of the sun, (sutam)= to elucidate the inner sense, (karmopāsanā)=to deeds and worship, (jñānarūpam)=in the form of knowledge, (vyavahāram)= in behaviour, (prakāśayitum)=for elucidating, (āganta)=come.

    English Translation (K.K.V.)

    O all scholars, who are quick to give strength to human beings of body and knowledge etc. and to reveal that knowledge etc.! You come like the rays of the Sun to illuminate all the days, to reveal the knowledge within the conscience, to manifest deeds and worship in the form of knowledge.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. God has commanded in this mantra- “O all scholars! you should never delay or have laziness in revelation of the auspicious virtues of knowledge etc. Just as all embodied objects are illuminated in the day, so should all the subjects of all disciplines always be revealed by you”.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Swift-moving and acting rapidly to diffuse light (of knowledge) in all directions, o enlightened persons, come to give us knowledge as the solar rays come diligently to the days or as milch kine hasten to their stalls. Come to enlighten us regarding various sciences. उस्रा इति रश्मिनामसु (निघ० १.५) = The rays of the sun स्वसराणि-अहानि स्वसराणीत्यहर्नामसु । ( निघ० १.९) = The days.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God commands through this Mantra. O learned persons ! you should never show any kind of sloth or laziness in diffusing the light of good knowledge, action and meditation. As all embodied articles are manifest in day time, so you should enlighten all, regarding essential subjects. स्वसराणीति गृहनाम (निघ० ३.४ ) उस्रा इति गोनामसु (निघ० २.११)

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