Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 3 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 3/ मन्त्र 9
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    विश्वे॑ दे॒वासो॑ अ॒स्रिध॒ एहि॑मायासो अ॒द्रुहः॑। मेधं॑ जुषन्त॒ वह्न॑यः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    विश्वे॑ । दे॒वासः॑ । अ॒स्रिधः॑ । एहि॑ऽमायासः । अ॒द्रुहः॑ । मेध॑म् । जु॒ष॒न्त॒ । वह्न॑यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विश्वे देवासो अस्रिध एहिमायासो अद्रुहः। मेधं जुषन्त वह्नयः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विश्वे। देवासः। अस्रिधः। एहिऽमायासः। अद्रुहः। मेधम्। जुषन्त। वह्नयः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 6; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    एते कीदृशस्वभावा भूत्वा किं सेवेरन्नित्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे एहिमायासोऽस्रिधोऽद्रुहो वह्नयो विश्वेदेवासो भवन्तो मेधं ज्ञानक्रियाभ्यां सेवनीयं यज्ञं जुषन्त संप्रीत्या सेवध्वम्॥९॥

    पदार्थः

    (विश्वे) समस्ताः (देवासः) वेदपारगाः (अस्रिधः) अक्षयविज्ञानवन्तः। क्षयार्थस्य नञ्पूर्वकस्य स्रिधेः क्विबन्तस्य रूपम्। (एहिमायासः) आसमन्ताच्चेष्टायां प्रज्ञा येषां ते। चेष्टार्थस्याङ्पूर्वस्य ईहधातोः सर्वधातुभ्य इन्। (उणा०४.११९) इतीन्प्रत्ययान्तं रूपम्। मायेति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.९) (अद्रुहः) द्रोहरहिताः (मेधम्) ज्ञानक्रियामयं शुद्धं यज्ञं सर्वैर्विद्वद्भिः शुभैर्गुणैः कर्मभिर्वा सह सङ्गमम्। मेध इति यज्ञनामसु पठितम्। (निघं०३.१७) (जुषन्त) प्रीत्या सेवध्वम्। (वह्नयः) सुखस्य वोढारः। अयं वहेर्निप्रत्ययान्तः प्रयोगः वह्नयो वोढारः। (निरु०८.३)॥९॥

    भावार्थः

    ईश्वर आज्ञापयति-भो विद्वांसः ! परक्षयद्रोहरहिता विशालविद्यया क्रियावन्तो भूत्वा सर्वेभ्यो मनुष्येभ्यो विद्यासुखयोः सदा दातारो भवन्त्विति॥९॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    विद्वान् लोग कैसे स्वभाववाले होकर कैसे कर्मों को सेवें, इस विषय को ईश्वर ने अगले मन्त्र में दिखाया है-

    पदार्थ

    (एहिमायासः) हे क्रिया में बुद्धि रखनेवाले (अस्रिधः) दृढ़ ज्ञान से परिपूर्ण (अद्रुहः) द्रोहरहित (वह्नयः) संसार को सुख पहुँचानेवाले (विश्वे) सब (देवासः) विद्वान् लोगो ! तुम (मेधम्) ज्ञान और क्रिया से सिद्ध करने योग्य यज्ञ को प्रीतिपूर्वक यथावत् सेवन किया करो॥९॥

    भावार्थ

    ईश्वर आज्ञा देता है कि-हे विद्वान् लोगो ! तुम दूसरे के विनाश और द्रोह से रहित तथा अच्छी विद्या से क्रियावाले होकर सब मनुष्यों को सदा विद्या से सुख देते रहो॥९॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अशोषण - अद्रोह

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में वर्णित प्रकार से प्राप्त हुए - हुए (विश्वेदेवासः) - सब दिव्यगुण (अस्त्रिधः) - क्षय से रहित हैं । ये मनुष्य को क्षीण न होने देनेवाले हैं अथवा शोषण से रहित हैं । ये मनुष्य में औरों के शोषण  , परन्तु अपने पोषण की वृत्ति को जन्म देनेवाले नहीं हैं । 
    २. (एहिमायासः) [आ ईहते इति एहिः  , माया प्रज्ञा] - समन्तात् क्रियाशील प्रज्ञावाले हैं  , अर्थात् ये प्रज्ञा - सम्पादन करते हैं और इनकी प्रज्ञा शरीर  , मन व बुद्धि के दृष्टिकोण से अथवा व्यक्ति  , समाज  , राष्ट्र व विश्व के दृष्टिकोण से क्रियाशील होती है । ये बुद्धिपूर्वक इस प्रकार का प्रयत्न करते हैं कि 'शरीर  , मन व बुद्धि' तीनों का स्वास्थ्य बढ़े तथा 'व्यक्ति  , समाज व विश्व' सभी का कल्याण - साधन हो । 
    ३. (अद्रुहः) - ये विश्वेदेव द्रोह की भावना से रहित होते हैं । दिव्यगुणों का यही तो मुख्य लक्षण है कि वहाँ किसी के प्रति द्रोह की भावना नहीं  , किसी की जिघांसा नहीं  , सबके कल्याण की भावना ही वहाँ काम करती है । 
    ४. ये दिव्यगुण  , (वह्नयः) [वोढारः] - कार्यभार का वहन करनेवाले होते हैं । अपने कर्तव्य - कर्मों के भार को सहर्ष स्वीकार करते हैं और उन कर्मों को सफलता तक पहुँचाने के लिए प्रयत्नशील होते हैं । 
    ५. (मेधम्) - [मेधृ संगमे] अपने कार्यों में संगमन की भावना का (जुषन्त) - प्रीतिपूर्वक सेवन करते हैं । 'सं गच्छध्वम्' प्रभु के इस निर्देश को सम्यक्तया जीवन में क्रियान्वित करते हैं । 'येन देवा न वियन्ति' = देवलोग तो विरुद्ध दिशाओं में चला ही नहीं करते  , वे तो मिलकर ही चलते हैं । वस्तुतः इस मेल व ऐक्य के कारण ही वे मृत्यु को जीतनेवाले होते हैं । इनसे विपरीत वृत्तिवाले असुर 'मिथो विघ्नाना उपयन्तु मृत्युम्' - एक-दूसरे के कार्य को विहत [नष्ट] करते हुए मृत्यु के मार्ग का अनुक्रमण करते हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - देवताओं में हिंसा व द्रोह नहीं होते । ये मिलकर चलते हैं । कार्यों को समाप्ति तक ले - जानेवाले होते हैं । इनकी प्रज्ञा व्यापक  , उन्नतिवाले कर्मों को सिद्ध करती है । 
     

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    विषय(भाषा)- विद्वान् लोग कैसे स्वभाववाले होकर कैसे कर्मों को सेवें, इस विषय को ईश्वर ने इस मन्त्र में दिखाया है-

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे एहिमायासः अस्रिधः अद्रुहः वह्नयः विश्वे देवासः भवन्तः मेधं ज्ञानक्रियाभ्यां सेवनीयं  यज्ञं जुषन्त सं प्रीत्या सेवध्वम्॥९॥

    पदार्थ

    हे  (एहिमायासः) आसमन्ताच्चेष्टायां प्रज्ञा येषां ते=क्रिया में हर ओर से बुद्धि रखनेवाले, (अस्रिधः) अक्षयविज्ञानवन्तः=अक्षय ज्ञान से परिपूर्ण, (अद्रुहः) द्रोहरहिताः= द्रोहरहित, (वह्नयः) सुखस्य वोढारः= संसार को सुख पहुँचानेवाले, (विश्वे) समस्ताः= समस्त, (देवासः) वेदपारगाः= वेद के  विद्वान् लोगो !  (भवन्तः)=आप, (मेधम्) ज्ञानक्रियामयं शुद्धं यज्ञं सर्वैर्विद्वद्भिः शुभैर्गुणैः कर्मभिर्वा सह सङ्गमम् =समस्त विद्वानों के द्वारा ज्ञान और क्रिया से सिद्ध करने योग्य यज्ञ अथवा  शुभ गुणों और कर्मों के द्वारा संगतिकरण, (जुषन्त) प्रीत्या सेवध्वम्= भली भांति प्रीतिपूर्वक सेवन किया करो॥९॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    ईश्वर आज्ञा देता है, हे विद्वान् लोगो ! तुम दूसरे के विनाश और द्रोह से रहित तथा अच्छी विद्या से क्रियावाले होकर सब मनुष्यों को सदा विद्या से सुख देते रहो॥९॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे  (एहिमायासः)  क्रिया में हर ओर से बुद्धि रखनेवाले, (अस्रिधः) अक्षय ज्ञान से परिपूर्ण, (अद्रुहः) द्रोहरहित, (वह्नयः) संसार को सुख पहुँचानेवाले, (विश्वे)  समस्त (देवासः) वेद के  विद्वान् लोगों !  (भवन्तः) आप (मेधम्) समस्त विद्वानों के द्वारा ज्ञान और क्रिया से सिद्ध करने योग्य यज्ञ अथवा  शुभ गुणों और कर्मों के द्वारा संगतिकरण का (जुषन्त) भली भांति प्रीतिपूर्वक सेवन किया करो॥९॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (विश्वे) समस्ताः (देवासः) वेदपारगाः (अस्रिधः) अक्षयविज्ञानवन्तः। क्षयार्थस्य नञ्पूर्वकस्य स्रिधेः क्विबन्तस्य रूपम्। (एहिमायासः) आसमन्ताच्चेष्टायां प्रज्ञा येषां ते। चेष्टार्थस्याङ्पूर्वस्य ईहधातोः सर्वधातुभ्य इन्। (उणा०४.११९) इतीन्प्रत्ययान्तं रूपम्। मायेति प्रज्ञानामसु पठितम्। (निघं०३.९) (अद्रुहः) द्रोहरहिताः (मेधम्) ज्ञानक्रियामयं शुद्धं यज्ञं सर्वैर्विद्वद्भिः शुभैर्गुणैः कर्मभिर्वा सह सङ्गमम्। मेध इति यज्ञनामसु पठितम्। (निघं०३.१७) (जुषन्त) प्रीत्या सेवध्वम्। (वह्नयः) सुखस्य वोढारः। अयं वहेर्निप्रत्ययान्तः प्रयोगः वह्नयो वोढारः। (निरु०८.३)॥९॥
    विषयः- एते कीदृशस्वभावा भूत्वा किं सेवेरन्नित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे एहिमायासोऽस्रिधोऽद्रुहो वह्नयो विश्वेदेवासो भवन्तो मेधं ज्ञानक्रियाभ्यां सेवनीयं यज्ञं जुषन्त संप्रीत्या सेवध्वम्॥९॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)-ईश्वर आज्ञापयति-भो विद्वांसः ! परक्षयद्रोहरहिता विशालविद्यया क्रियावन्तो भूत्वा सर्वेभ्यो मनुष्येभ्यो विद्यासुखयोः सदा दातारो भवन्त्विति॥९॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    विद्वानों और वीर पुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( विश्वे देवासः ) समस्त विद्वान् पुरुष ( अस्त्रिधः ) अक्षय विज्ञान और कोष से युक्त, ( एहिमायासः ) सब विषयों में चतुर बुद्धि वाले, (अद्रुहः) किसी के प्रति द्रोह बुद्धि न करनेवाले, अहिंसक, (वन्हयः) राष्ट्र और समाज के कार्यों को धारण करनेवाले विद्वान् पुरुष (मेधं जुषन्त ) यज्ञ, परस्पर के सत्संग और सेवनीय अन्न को सेवन करें ।

    टिप्पणी

    ‘एहिमायासः’ – आङ्पूर्वस्य ईहतेश्चेष्टार्थस्य इनिः । एहिः सर्वतो गामिनी माया प्रज्ञा येषां ते । जिनकी बुद्धियां सब तरफ़ यत्नशील हैं वे विद्वान्, अर्थात् ( Proficiant in all arts & branches of knowledge) विद्या की सब शाखा प्रशाखाओं में निष्णात ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-१२ मधुच्छन्दा ऋषिः ॥ देवता—१-३ अश्विनौ । ४-६ इन्द्रः । ७-९ विश्वे देवाः । १०–१२ सरस्वती ।। गायत्र्य: ।। द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वर आज्ञा देतो की- हे विद्वान लोकांनो! तुम्ही दुसऱ्याचा नाश व विद्रोह न करता ज्ञानवान व कर्मशील बनून सर्व माणसांना सदैव विद्येचे सुख देत राहा. ॥ ९ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Meaning

    Divinities of the world, unerring and unfouling lovers of Omniscience, free from hate and fear, come at the fastest and join the ecstasies of the brilliant fires of the yajna of love, compassion and knowledge.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    May our entire sense-organs be free from decay. May they be full of cognitional activities and devoid of malice. They are capable of receiving and remitting the rays of divine Knowledge. May they all be nourished to the full.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    What nature scholars should have and what kind of actions they should have in serving, this subject has been depicted by God in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (ehimāyāsaḥ) =using wisdom in action from every way, (asridhaḥ)=full of everlasting knowledge, (adruhaḥ)=without rancour, (vahnayaḥ)=world pleasers, (viśve) =all, (devāsaḥ)=scholars of Vedas, (bhavantaḥ) =You, (medham)= of yajna accomplishable by all scholars with knowledge and deeds, in other words association of performers with auspicious virtues and deeds, (juṣanta)=serve affectionately well.

    English Translation (K.K.V.)

    O all scholars of Vedas! Using wisdom in action from every way. World pleasers, you serve affectionately well, yajan, accomplishable by all scholars with knowledge and deeds, in other words, association of performers with auspicious virtues and deeds.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    God commands, “O scholars! May you always give happiness to all human beings by learning, being free from the destruction and hatred of others and acting with good knowledge”.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should be their nature and what should they serve is taught in the 9th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Let learned persons well-versed in the Vedas and possessing un-decaying wisdom, devoid of malice, bearers of happiness, whose intellect is on all sides engaged in doing noble acts, attend the pure Yajna (non-violent sacrifice) consisting of knowledge, good actions and association with the learned and noble virtues.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (एहिमायासः) मायेति प्रज्ञानाम (निघ० ३.९ ) आसमन्तात् चेष्टायांप्रज्ञा येषां ते ईहधातोः सर्वधातुभ्यइन् (उणा० ८. ११९ ) इति इन् प्रत्यय: (मेधम् ) ज्ञानक्रियामयं शुद्धं यज्ञं सर्वैर्विद्वद्भिः शुभैर्गुणैः कर्मभिर्वा संगमम् मेधइतियज्ञनामसु (निघ० ३.१७ ) वह्नयः वोढार: (निरुक्ते ८.३ ) वह प्रापणे इति धातोर्निप्रत्ययः । (मेधम्) मेधृ-मेधासंगमनयोहिंसायां च The Medha used for Yajna is from the root, Medhri to associate hence the commentator's explanation सर्वैर्विद्भिः शुभैर्गुणै कर्मभिर्वा संगमम् How absurd it is for Roth, Bohtlink and Griffith to translate एहिमायास: as changing shape like serpents. This is nothing but the wild imagination of Roth and Bohtlink confounding एहिमायास: with अहिमायास: though the two are quite different. Rishi Dayananda is right in deriving एहि from आसमन्तात् prefix with ईह-चैष्टायाम् and giving the meaning of समन्तात् चेष्टायां प्रज्ञा येषाम् मायेति प्रज्ञानाम निघ० ३.१ as translated above, viz. whose intellect is on all sides engaged in noble acts. whom Even Sayanacharya on many western scholars generally rely interprets it as सर्वतोव्याप्तप्रज्ञा : i. e. very intelligent. Wilson translates it as 'Omniscient" which is not quite correct. But Roth's and Griffith's translation as 'changing shape like serpents' is simply astounding and even mischievous as it implies by serpent's simile crookedness in devas or wise men which is against the Vedic spirit. देवानां भद्रा सुमतिर्ऋजुयताम् ( ऋ० १-८९.१ ) ऋजुदीध्यानाः ।। तैः कीदृशी वाक् प्राप्तुमेष्टव्येत्युपदिश्यते ।। (ऋ० १०-६७-२ )

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God commands — O learned people ! You should be always givers of knowledge and happiness to all persons, being free from violence and malice, possessing vast learning and being engaged in good deeds.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top