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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 30/ मन्त्र 2
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    श॒तं वा॒ यः शुची॑नां स॒हस्रं॑ वा॒ समा॑शिराम्। एदु॑ नि॒म्नं न री॑यते॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒तम् । वा॒ । यः । शुची॑नाम् । स॒हस्र॑म् । वा॒ । सम्ऽआ॑शिराम् । आ । इत् । ऊँ॒ इति॑ । नि॒म्नम् । न । री॒य॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शतं वा यः शुचीनां सहस्रं वा समाशिराम्। एदु निम्नं न रीयते॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शतम्। वा। यः। शुचीनाम्। सहस्रम्। वा। सम्ऽआशिराम्। आ। इत्। ऊँ इति। निम्नम्। न। रीयते॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 30; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    पवित्रश्चोपचितो विद्वान् योऽग्निर्भौतिकोऽस्ति सोऽयं निम्नमधः स्थानं गच्छतीव शुचीनां शतं शतगुणो वा समाशिरां सहस्रं वैद्वाधारभूतो दाहको वा रीयते विजानाति॥२॥

    पदार्थः

    (शतम्) असंख्यातम् (वा) पक्षान्तरे (यः) बहुशुभगुणयुक्तो जनः (शुचीनाम्) शुद्धानां पवित्रकारकाणां मध्ये। शुचिश्शोचतेर्ज्वलतिकर्म्मणः। (निरु०६.१) (सहस्रम्) बह्वर्थे (वा) पक्षान्तरे (समाशिराम्) सम्यगभितः श्रीयन्ते सेव्यन्ते सद्गुणैर्ये तेषाम्। अत्र श्रयतेः स्वाङ्गे शिरः किच्च। (उणा०४.२००) अनेनासुन् प्रत्ययः शिर आदेशश्चासुनि। (आ) आधारार्थे (इत्) एव (उ) वितर्के (निम्नम्) अधःस्थानम् (न) इव (रीयते) विजानाति। रीयतीति गतिकर्मसु पठितम्। (निघं०२.१४)॥२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। अयमग्निः सूर्यविद्युत्प्रसिद्धरूपेण शतशः शुद्धीः करोति पच्यमानानां पदार्थानां मध्ये वेगैस्सहस्रशः पदार्थान् पचति, यथा जलमधःस्थानमभिद्रवति तथैवायमग्निरूर्ध्वम् अभिगच्छत्यनयोर्विपर्यासकरणेनाग्निमधः स्थापयित्वा तदुपरि जलस्य स्थापनेन द्वयोर्योगाद् वाष्पैर्वेगादयो गुणा जायन्त इति॥२॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    जो शुद्ध गुण, कर्म, स्वभावयुक्त विद्वान् है, उसी से यह जो भौतिक अग्नि है, वह (निम्नम्) (न) जैसे नीचे स्थान को जाते हैं, वैसे (शुचीनाम्) शुद्ध कलायन्त्र वा प्रकाशवाले पदार्थों का (शतम्) (वा) सौ गुना अथवा (समाशिराम्) जो सब प्रकार से पकाए जावें, उन पदार्थों का (सहस्रम्) (वा) हजार गुना (आ) (इत्) (उ) आधार और दाह गुणवाला (रीयते) जानता है॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। यह अग्नि सूर्य और बिजली जो इसके प्रसिद्ध रूप हैं, सैकड़ों पदार्थों की शुद्धि करता है और पकने योग्य पदार्थों में हजारों पदार्थों को अपने वेग से पकाता है, जैसे जल नीची जगह को जाता है, वैसे ही यह अग्नि ऊपर को जाता है। इन अग्नि और जल को लौट-पौट करने अर्थात् अग्नि को नीचे और जल को ऊपर स्थापन करने से वा दोनों के संयोग से वेग आदि गुण उत्पन्न होते हैं॥२॥

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    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    पवित्रः च उपचितः विद्वान् यःअग्निः भौतिकः अस्ति सः अयं निम्नम् अधः स्थानं  गच्छति इव शुचीनां शतं शतगुणः वा समाशिरां सहस्रं वै द्वा  आधारभूतः दाहकः वा रीयते विजानाति॥२॥ 

    पदार्थ

    (पवित्रः)=पवित्र (च)=और, (उपचितः)=समृद्ध (विद्वान्)=विद्वान्, (यः)=जो, (भौतिकः)=भौतिक (अग्निः) =अग्नि (अस्ति)= है, (च)=और, (सः)=वह, (अयम्)=इस, (निम्नम्) अधः स्थानम्=नीचे के स्थान को,  (गच्छति)=जाता है, (इव)=ऐसे ही, (शुचीनाम्) शुद्धानां पवित्रकारकाणां मध्ये= शुद्ध और पवित्र करने वालों में, (शतम्) असंख्यातम्=असंख्यात, (शतगुणः)=सौ गुना (वा)=अथवा,  (समाशिराम्) सम्यगभितः श्रीयन्ते सेव्यन्ते सद्गुणैर्ये तेषाम्=जो सब प्रकार से और सब दिशाओं से सद्गुणो से सेवा करते हैं, उनको,  (सहस्रम्) बह्वर्थे =बहुतों को, (वै) =निश्चय से (द्वा)=दो,  (आधारभूतः)= आधारभूत, (दाहकः)=दाहक,  (वा)=और, (रीयते) विजानाति=जानता है ॥२॥ 

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। यह अग्नि है, सूर्य और बिजली के प्रसिद्ध रूप से सैकड़ों पदार्थों की शुद्धि करता है और पदार्थों को पकाता है। जैसे जल नीचे  स्थानों को बहता है, वैसे ही यह अग्नि ऊपर को जाते हुए  इन दो अग्नि और जल के उलटे करने से अर्थात् अग्नि को नीचे और जल को ऊपर स्थापित करने से दोनों के संयोग से वाष्प आदि के द्वारा वेग आदि गुण उत्पन्न होते हैं॥२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यः) जो (पवित्रः) पवित्र (च) और (उपचितः) समृद्ध (विद्वान्)  विद्वान् या (भौतिकः) भौतिक (अग्निः) अग्नि (अस्ति)  है (च) और (सः) वह (अयम्) इस (निम्नम्) नीचे के स्थान को  (गच्छति) जाता है। (इव) ऐसे ही (शुचीनाम्) शुद्ध और पवित्र करने वालों में (शतम्) असंख्यात, (शतगुणः) सौ गुना (वा) अथवा  (समाशिराम्) जो सब प्रकार से और सब दिशाओं से सद्गुणो से सेवा करते हैं, उन  (सहस्रम्) बहुतों को (वै) निश्चय से ही (द्वा) दो    (आधारभूतः) आधारभूत (दाहकः) दाहकों के रूप में  (रीयते) जानता है ॥२॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (शतम्) असंख्यातम् (वा) पक्षान्तरे (यः) बहुशुभगुणयुक्तो जनः (शुचीनाम्) शुद्धानां पवित्रकारकाणां मध्ये। शुचिश्शोचतेर्ज्वलतिकर्म्मणः। (निरु०६.१) (सहस्रम्) बह्वर्थे (वा) पक्षान्तरे (समाशिराम्) सम्यगभितः श्रीयन्ते सेव्यन्ते सद्गुणैर्ये तेषाम्। अत्र श्रयतेः स्वाङ्गे शिरः किच्च। (उणा०४.२००) अनेनासुन् प्रत्ययः शिर आदेशश्चासुनि। (आ) आधारार्थे (इत्) एव (उ) वितर्के (निम्नम्) अधःस्थानम् (न) इव (रीयते) विजानाति। रीयतीति गतिकर्मसु पठितम्। (निघं०२.१४)॥२॥
    विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः- पवित्रश्चोपचितो विद्वान् योऽग्निर्भौतिकोऽस्ति सोऽयं निम्नमधः स्थानं गच्छतीव शुचीनां शतं शतगुणो वा समाशिरां सहस्रं वैद्वाधारभूतो दाहको वा रीयते विजानाति॥२॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। अयमग्निः सूर्यविद्युत्प्रसिद्धरूपेण शतशः शुद्धीः करोति पच्यमानानां पदार्थानां मध्ये वेगैस्सहस्रशः पदार्थान् पचति, यथा जलमधःस्थानमभिद्रवति तथैवायमग्निरूर्ध्वम् अभिगच्छत्यनयोर्विपर्यासकरणेनाग्निमधः स्थापयित्वा तदुपरि जलस्य स्थापनेन द्वयोर्योगाद् वाष्पैर्वेगादयो गुणा जायन्त इति॥२॥

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    विषय

    पवित्रता व नीरोगता

    पदार्थ

    १. प्रभु कहते है कि हे जीवो ! इस बात का ध्यान करो कि (यः) - जो सोम (शतं शुचीनाम्) - सैकड़ों पवित्रताओं का कारण है (वा) - तथा (सहस्त्रं समाशिराम्) - [सम् आ- श्रृ-हिंसायाम्] जो सम्यक्तया समन्तात् वासनाओं , हजारों बुराइयों को व रोग - कृमियों को शीर्ण करनेवाला है , वह सोम (आ इत् उ) - निश्चयपूर्वक सब प्रकार से (निम्नम्) - नीचे की ओर (न रीयते) - नहीं जाता है [री गतौ] , अर्थात् तुम इस बात के लिए दृढ़संकल्प बनो कि ये सोमकण शरीर में ही व्याप्त हों , तुम ऊर्ध्वरेतस् बनो । 

    २. सब मानस - पवित्रताएँ [शुचि] , सब शरीर की नीरोगताएँ [समाशिर्] इस ऊध्वरेतस् बनने पर ही निर्भर करती हैं । इसका अपव्यय हुआ तो मानस पवित्रताएँ भी गई और शरीर भी विविध रोगों का शिकार हुआ । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम इस बात का पूर्ण ध्यान करें कि सोम का अपव्यय न हो ताकि हम पवित्र व नीरोग बने रहें । 

     

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    विषय

    वीर पुरुषों का सेनापति या नायक से सम्बन्ध ।

    भावार्थ

    (निम्नं न) जिस प्रकार जल नीचे की ओर वह जाता है उसी प्रकार (यः) जो विद्वान् (शुचीनां) शुद्ध पवित्र करने वाले (शतं) सहस्रों साधनों, कर्मों और पदार्थों के प्रति और (समाशिराम्) आश्रय या सेवन करने योग्य (सहस्रम्) हज़ारों ग्राह्य पदार्थों के प्रति (आरीयते इत्) झुकता ही है वह उनको प्राप्त कर उनका ज्ञान करता है। भौतिक अग्नि विद्युत् के पक्ष में—वह विद्युत् (शुचीनां शतं) कान्ति वाले, धातु के बने सैकड़ों और अपने सहस्त्रों आश्रय द्रव्य के प्रति ऐसे वेग से आता है जैसे जल नीचे स्थान पर वह आता है। विद्युत सुवाहक धातु के बने पदार्थों और आश्रय स्थान मेघ, पृथिवी आदि पदार्थों पर भी अति शीघ्रता से जल के समान आ दौड़ता है। इसी प्रकार ताप भी जल जैसे नीच आ जाता है, वैसे संग लगे पदार्थों में सुगमता से फेल जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः ॥ देवता—१—१६ इन्द्रः । १७–१९ अश्विनौ । २०–२२ उषाः॥ छन्दः—१—१०, १२—१५, १७—२२ गायत्री। ११ पादनिचृद् गायत्री । १६ त्रिष्टुप् । द्वाविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. सूर्य व विद्युत ज्याची प्रसिद्ध रूपे आहेत तो अग्नी शेकडो पदार्थ शुद्ध करतो व पचण्यायोग्य हजारो पदार्थांना शिजवितो. जसे जल खालच्या बाजूला वाहते तसा अग्नी वर जातो तेव्हा अग्नी व जलाचा विपर्याय करून अर्थात अग्नीला खाली व जलाला वर स्थापन करून किंवा दोन्हींचा संयोग करून वेग इत्यादी गुण उत्पन्न होतात. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, controller of fire, water and electric energy, raises the pure ones to power hundred, and the mixed and synthesised ones to power thousand. Never does He or His power or the efficacy of His creations go down.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of he is, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yaḥ)=That, (pavitraḥ)=Holy (ca) =and, (upacitaḥ)=plentiful, (vidvān) =scholar or (bhautikaḥ)=physical, (agniḥ)=fire, (asti) =is,(ca)=and, (saḥ)=that, (ayam)=this, (nimnam)= to the downward place,(gacchati)=goes, (iva)=in the same way, (śucīnām)=between the pure and the sanctified (śatam) countless, (śataguṇaḥ)=hundred-fold, (vā)=in othe words,(samāśirām) =Those who serve with virtue in all respects and from all directions, (sahasram)=to many (vai)=definitely (dvā)=two, (ādhārabhūtaḥ)= basic causatives, (dāhakaḥ) dāhakoṃ ke=as flammables (rīyate)=knows.

    English Translation (K.K.V.)

    One who is pure and rich scholar or material fire and that goes to this lower place. In the midst of such purifying and sanctifying ones, one surely knows the countless, hundred-fold or many who serve with virtues in all respects and from all directions, as the two basic causatives.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. It is the fire, the famous form of the Sun and electricity that purifies and cooks hundreds of the substances. Just as water flows down to the places, similarly this fire going up in other words, setting fire down and water up, the combination of both produces velocity et cetera.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is that Indra is taught in the 2nd Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    A learned person of pure nature and selected among many on account of his wisdom and character knows, that as water goes to lower level, this fire which is the recipient of a hundred pure articles and of a thousand substances that are taken owing to their attributes, is the sustainer and burner of impurity.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( शुचीनाम ) शुद्धानां पवित्रकारकाणां मध्ये शुचिः शुचिः शोचतेर्ज्वलतिकर्मणः (निरुक्ते ६.१ ) | = Of the pure and purifying. (समाशिराम्) सम्यक् अभितः श्रीयन्ते सेव्यन्ते सद्गुणैः ये तेष।म् । अत्र श्रयतेः स्वांगे शिर: किच्च (उणा० ४.२००) = Of those who are taken or accepted on account of virtues. ( रीयते ) विजानाति रीयतीति गतिकर्मसु पठितम् ( निघ० २.१० ) । = Knows.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is simile used in the Mantra. This Agni in the form of the sun, electricity and material fire purifies substances in hundreds of ways and cooks thousands of articles speedily. As water goes to lower level, this fire goes upwards or downwards. Taking this contrast in mind and by placing fire below and water above it, by their conjunction through steam, speed and other qualities are produced.

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