ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 37/ मन्त्र 1
क्री॒ळं वः॒ शर्धो॒ मारु॑तमन॒र्वाणं॑ रथे॒शुभ॑म् । कण्वा॑ अ॒भि प्र गा॑यत ॥
स्वर सहित पद पाठक्री॒ळम् । वः॒ । शर्धः॑ । मारु॑तम् । अ॒न॒र्वाण॑म् । र॒थे॒ऽशुभ॑म् । कण्वाः॑ । अ॒भि । प्र । गा॒य॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
क्रीळं वः शर्धो मारुतमनर्वाणं रथेशुभम् । कण्वा अभि प्र गायत ॥
स्वर रहित पद पाठक्रीळम् । वः । शर्धः । मारुतम् । अनर्वाणम् । रथेशुभम् । कण्वाः । अभि । प्र । गायत॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 37; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
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विषय - अब सैंतीसवें सूक्त का आरंभ है। और इस सूक्त भर में मोक्ष मूलर आदि साहिबों का किया हुआ व्याख्यान असंगत है। उसमें एक-२ मंत्र से उनकी असंगति जाननी चाहिये, इस सूक्त के प्रथम मंत्र में विद्वानों को वायु के गुणों से क्या-२ उपकार लेना चाहिये इस विषय का उपदेश किया है।
पदार्थ -
हे (कण्वाः) मेधावी विद्वान्मनुष्यो ! तुम जो (वः) आप लोगो के (अनर्वाणम्) घोड़ों के योग से रहित (रथे) विमानादियानों में (क्रीडम्) क्रीड़ा का हेतु क्रिया में (शुभम्) शोभनीय (मारुतम्) पवनों का समूह रूप (शर्धः) बल है उसको (अभि प्रगायत) अच्छे प्रकार सुनो वा उपदेश करो ॥१॥
भावार्थ - सायणाचार्य्य ने (मारुतम्) इस पद को पवनों का संबन्धि (तस्येदम्) इस सूक्त से अण् प्रत्यय और व्यत्यय से आद्युदात्त स्वर अशुद्ध व्याख्यान किया है बुद्धिमान् पुरुषों को चाहिये कि जो पवन प्राणियों के चेष्टा, बल, वेग, यान और मंगल आदि व्यवहारों को सिद्ध करते इस से इनके गुणों की परीक्षा करके इन पवनों से यथायोग्य उपकार ग्रहण करें ॥१॥ मोक्षमूलर साहिब ने अर्व शब्द से अश्व के ग्रहण का निषेध किया है सो भ्रमभूल होने से अशुद्ध ही है और फिर अर्व शब्द से सब जगह अश्व का ग्रहण किया है यह भी प्रमाण के न होने से अशुद्ध ही है। इस मंत्र में अश्वरहित विमान आदि रथ की विवक्षा होने से उन यानों में कलाओं से चलाये हुए पवन तथा अग्नि के प्रकाश और जल की बाफ के वेग से यानों के गमन का संभव है इस से यहां कुछ पशुरूप अश्व नहीं लिये हैं ॥१॥
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विषयः - (क्रीडम्) क्रीडन्ति यस्मिँस्तत्। अत्र क्रीडृ विहार इत्यस्माद् घञर्थे कविधानम् इति कः प्रत्ययः। (वः) युष्माकम् (शर्धः) बलम्। शर्ध इति बलनामसु पठितम्। निघं० २।९। (मारुतम्) मरुतां समूहः। अत्र मृग्रोरुतिः। उ० १।९५। इति मृङ्धातोरुतिः प्रत्ययः। अनुदात्तादेरञ्। अ० ४।२।४४। इत्यञ्प्रत्ययः। इदम् पदम् सायणाचार्येण मरुतां संबन्धि तस्येदम् इत्यण् व्यत्ययेनाद्युदात्तत्वमित्यशुद्धं व्याख्यातम् (अनर्वाणम्) अविद्यमाना अर्वाणोश्वा यस्मिँस्तम्। अर्वेत्यश्वनामसु पठितम्। निघं० १।१४। (रथे) रयते गच्छति येन तस्मिन् विमानादियाने (शुभम्) शोभनम् (कण्वाः) मेधाविनः (अभि) आभिमुख्ये (प्र) प्रकृष्टार्थे (गायत) शब्दायत शृणुतोपदिशत च ॥१॥
अन्वयः - अत्र मोक्षमूलरादिकृतव्याख्यानां सर्वमसंगतं तव प्रत्येकमंत्रे णानर्जयमस्तीति वेद्यम्। तत्रादिमे मंत्रे विद्वद्भिर्वायुगुणैः किं किं कर्त्तव्यमित्युपदिश्यते।
पदार्थः -
हे कण्वा मेधाविनो विद्वांसो यूयं यद्वोनर्वाणं रथे क्रीडं क्रियायां शुभमारुतं शर्धोस्ति तदभिप्रगायत ॥१॥
भावार्थः - विद्वद्भिर्ये वायवः प्राणिनां चेष्टाबलवेगयानमङ्गलादिव्यवहारान् साधयन्ति तस्मात्तद्गुणान् परीक्ष्यैतेभ्यो यथा योग्यमुपकारा ग्राह्याः ॥१॥ मोक्षमूलराख्येनार्वशब्देन ह्यश्वग्रहणनिषेधः कृतः सोशुद्ध एव भ्रममूलत्वात्। तथा पुनरर्वशब्देन सर्वत्रैवाश्वग्रहणं क्रियत इत्युक्तम्। एतदपि प्रमाणाभावादशुद्धमेव। अत्र विमानादेरमश्वस्य रथस्य विवक्षितत्वात्। अत्र कलाभिश्चालितेन वायुनाग्नेः प्रदीपनाज्जलस्य बाष्पवेगेन यानस्य गमनं कार्य्यते नहि पशवोश्वा गृह्यन्त इति ॥
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Meaning -
Men of science and knowledge, sing and celebrate the playful, superior and irresistible power of the wind harnessed in the chariot without the horse.
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विषय - या सूक्तात अग्नीचा प्रकाश करणारे, सर्व प्रयत्न, बल व आयूचा निमित्त असलेला वायू व त्या वायूविद्या जाणणाऱ्या राजप्रजेच्या विद्वानाच्या गुणवर्णनाने या सूक्तार्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणून घ्यावी. ॥
भावार्थ - सायणाचार्य (मारुतम्) या पदाला वायूसंबंधी (तस्येदम्) या सूत्राने अ ण प्रत्यय व व्यत्यायाने आद्युदात्त स्वर अशुद्ध व्याख्या केलेली आहे. बुद्धिमान पुरुष जे वायू, प्राण्यांचे प्रयत्न, बल, वेग, यान व मंगल इत्यादी व्यवहारांना सिद्ध करतात, त्यांच्या गुणांची परीक्षा करून या वायूचा यथायोग्य उपयोग करून घ्यावा.
टिप्पणी -
या सूक्तात मोक्षमूलर इत्यादी साहेबांनी केलेली व्याख्या असंगत आहे. त्यात एका एका मंत्राने त्यांची असंगती म्हणावी लागेल. मोक्षमूलर साहेबांनी अर्व शब्दाला अश्व असे ग्रहण करण्याचा निषेध केलेला आहे. त्यासाठी ते भ्रममूल असल्यामुळे अशुद्धच आहे व पुन्हा अर्व शब्दाने सर्वत्र अश्वचे ग्रहण केलेले आहे, हेही प्रमाण नसल्यामुळे अशुद्धच आहे. या मंत्रात अश्वरहित विमान इत्यादीचे प्रयोजन असल्यामुळे त्या यानात कळांद्वारे चालविलेल्या वायू व अग्नीचा प्रकाश, जल यांच्या वाफेच्या वेगाने यानांच्या गमनांची शक्यता आहे. त्यामुळे पशुरूपी अश्व घेतलेले नाहीत. ॥ १ ॥
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