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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 37/ मन्त्र 14
    ऋषि: - कण्वो घौरः देवता - मरूतः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    प्र या॑त॒ शीभ॑मा॒शुभिः॒ सन्ति॒ कण्वे॑षु वो॒ दुवः॑ । तत्रो॒ षु मा॑दयाध्वै ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । या॒त॒ । शीभ॑म् । आ॒शुभिः॑ । स॒न्ति॒ । कण्वे॑षु । वः॒ । दुवः॑ । तत्रो॒ इति॑ । सु । मा॒द॒या॒ध्वै॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र यात शीभमाशुभिः सन्ति कण्वेषु वो दुवः । तत्रो षु मादयाध्वै ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । यात । शीभम् । आशुभिः । सन्ति । कण्वेषु । वः । दुवः । तत्रो इति । सु । मादयाध्वै॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 37; मन्त्र » 14
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    (प्र) प्रकृष्टार्थे (यात) अभीष्टं स्थानं प्राप्नुत (शीभम्) शीघ्रम् शीभमिति क्षिप्रनामसु पठितम्। निघं० २।१५। (आशुभिः) शीघ्रं गमनागमनकारकैर्विमानादियानैः (सन्ति) (कण्वेषु) मेधाविषु (वः) युष्माकम् (दुवः) परिचरणानि (तत्रो) तेषु खलु (सु) शोभनार्थे। सुञः। अ० ८।३।१०७। इति मूर्द्धन्यादेशः। (मादयाध्वै) मादयध्वम्। लेट् प्रयोगोऽयम् ॥१४॥

    अन्वयः

    पुनर्मनुष्यैर्वायुभ्यः किं किं कार्य्यमित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे राजप्रजाजना यूयमाशुभिः शीभं वायुवत् प्र यात। येषु कण्वेषु वो दुवः सन्ति तत्रो सु मादयाध्वै ॥१४॥

    भावार्थः

    राजप्रजास्थैर्विद्वद्भिर्जनैरभीष्टस्थानेषु वायुवच्छीघ्रगमनाय यानान्युत्पाद्य स्वकार्याणि सततं साधनीयानि। धर्मात्मनां सेवनेऽधर्मात्मनां च ताड़ने सदैवानन्दितव्यश्च ॥१४॥ मोक्षमूलरोक्तिः यूयं तीव्रगतीनामश्वानामुपरि स्थित्वा शीघ्रमागच्छत तत्र युष्माकं पूजारयः कण्वानां मध्ये सन्ति यूयं तेषां मध्ये आनन्दं कुरुतेत्यशुद्धास्ति। कुतः। महान्तो वेगादयो गुणा एवाश्वास्ते वायौ समवायसम्बन्धेन वर्त्तन्ते। तेषामुपरि वायूनां स्थितेरसंभवात्। कण्वशब्देन विदुषां ग्रहणं तत्र निवासेनानन्दस्योद्भवाच्चेति ॥१४॥

    हिन्दी (1)

    विषय

    फिर मनुष्यों को वायुओं से क्या-२ कार्य्य लेना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे राजपुरुषो ! तुम लोग (आशुभिः) शीघ्र ही गमनागमन करानेवाले यानों से (शीभं) शीघ्र वायु के समान (प्र यात) अच्छे प्रकार अभीष्ट स्थान को प्राप्त हुआ करो जिन (कण्वेषु) बुद्धिमान् विद्वानों में (वः) तुम लोगों की (दुवः) सत् क्रिया हैं (तत्र उ) उन विद्वानों में तुम लोग (सु मादयाध्वै) सुन्दर रीति से प्रसन्न रहो ॥१४॥

    भावार्थ

    राजा और प्रजा के विद्वानों को चाहिये कि वायु के समान अभीष्ट स्थानों को शीघ्र जाने आने के लिये विमानादि यान बना के अपने कार्यों को निरन्तर सिद्ध करें और धर्मात्माओं की सेवा तथा दुष्टों को ताड़ने में सदैव आनन्दित रहैं ॥१४॥ मोक्षमूलर की उक्ति है कि तुम तीव्र गतिवाले घोड़ों के ऊपर स्थित होकर जल्दी आओ वहां आपके पुजारी कण्वों के मध्य में हैं तुम उनमें आनन्दित होओ सो यह अशुद्ध है क्योंकि बड़े-२ वेग आदि गुण ही वायु के हैं, वे गुण उनमें समवाय सम्बन्ध से रहते हैं, उनके ऊपर इन पवनों की स्थिति होने का ही संभव नहीं और कण्व शब्द से विद्वानों का ग्रहण है उनमें निवास करने से विद्या की प्राप्ति और आनन्द का प्रकाश होता है ॥१४॥ सं० उ० के अनुसार महान् वेगादि गुण ही अश्व हैं। सं०

    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजा व प्रजेतील विद्वानांनी वायूप्रमाणे अभीष्टस्थानी तात्काळ जाण्या-येण्यासाठी विमान इत्यादी याने बनवून आपल्या कार्यांना निरंतर सिद्ध करावे व धर्मात्म्यांची सेवा आणि दुष्टांचे ताडन करण्यात सदैव आनंदी व तत्पर राहावे. ॥ १४ ॥

    टिप्पणी

    मोक्षमूलरची उक्ती अशी की, तुम्ही तीव्र गतीच्या घोड्यांवर स्वार होऊन लवकर या. तेथे आपले पुजारी कण्वांच्या मध्ये आहेत. तुम्ही त्यात आनंदित व्हा, हे अशुद्ध आहे. कारण अति वेग इत्यादी गुणच वायूचे आहेत. ते गुण त्यांच्यात समवाय संबंधाने असतात. त्यांच्यावर या वायूंची स्थिती होण्याची शक्यता नाही व कण्व शब्दाने विद्वानांचे ग्रहण होते. त्यांच्या मध्ये निवास करण्याने विद्येची प्राप्ती व आनंद होतो. ॥ १४ ॥

    English (1)

    Meaning

    Maruts, dynamic heroes of the nation, go fast by the straightest paths set out for you. Your honour and achievement lies in the heart of the learned and the wise. And there, with the learned and the wise, we’ll celebrate.

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