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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 37/ मन्त्र 15
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - मरूतः छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अस्ति॒ हि ष्मा॒ मदा॑य वः॒ स्मसि॑ ष्मा व॒यमे॑षाम् । विश्वं॑ चि॒दायु॑र्जी॒वसे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस्ति॑ । हि । स्म॒ । मदा॑य । वः॒ । स्मसि॑ । स्म॒ । व॒यम् । ए॒षा॒म् । विश्व॑म् । चि॒त् । आयुः॑ । जी॒वसे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्ति हि ष्मा मदाय वः स्मसि ष्मा वयमेषाम् । विश्वं चिदायुर्जीवसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्ति । हि । स्म । मदाय । वः । स्मसि । स्म । वयम् । एषाम् । विश्वम् । चित् । आयुः । जीवसे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 37; मन्त्र » 15
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (अस्ति) वर्त्तते (हि) यतः (स्म) खलु। अत्र निपातस्य च इति दीर्घः। अविहितलक्षणो मूर्द्धन्यः सुषामादिषु द्रष्टव्यः। अ० ८।३।९८। इति वार्त्तिकेन मूर्द्धन्यादेशः। इदं पदं सायणाचार्येण व्याकरणविषयमबुद्ध्वा त्यक्तम्। (मदाय) आनन्दाय (वः) युष्माकम् (स्मसि) भवेम। अत्र लिङर्थे लट्। इदन्तोमसि* इतीकारागमः (स्म) तैरन्तर्ये। अत्रापि पूर्ववन्मूर्द्धन्यादेशः। (वयम्) उपदेश्या जनाः (एषाम्) ज्ञातविद्यानां मरुतां सकाशात् (विश्वम्) सर्वम् (चित्) अपि (आयुः) प्राणधारणम् (जीवसे) जीवितुम्। अत्र तुमर्थे०¤ इत्यसेन्प्रत्ययः ॥१५॥ *[अ० ७।१।४६।] ¤[अ० ३।४।९।]

    अन्वयः

    पुनस्ते वायवः किं प्रयोजनाः सन्तीत्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे विद्वांसो मनुष्या एषां हि स्म वो युष्माकं मदाय जीवसे विश्वमायुरस्ति तथाभूता वयं चित्स्मसि स्म ॥१५॥

    भावार्थः

    यथा योगाभ्यासेन प्राणविद्याविदो वायुविकारज्ञाः पथ्यकारिणो जनाश्वानन्देन सर्वमायुर्भुञ्जते तथैवेतरैर्जनैस्तत्सकाशात्तद्विद्यां ज्ञात्वा सर्वमायुर्भोक्तव्यम् ॥१५॥ मोक्षमूलरोक्तिः निश्चयेन तत्र युष्माकं प्रसन्नता पुष्कलास्ति वयं सदा युष्माकं भृत्याः स्मः। यद्यपि वयं सर्वमायुर्जीवेमेत्यशुद्धास्ति कुतः। अत्र प्रमाणरूपेण वायुना जीवनं भवतीति वयमेतद्विद्यां विजानीमेत्युक्तत्वादिति ॥१५॥ एवमेव यथात्र मोक्षमूलरेण कपोलकल्पनया मन्त्रार्था विरुद्धा वर्णितास्तघेवाग्रेप्येतदुक्तिरन्यथास्तीति वेदितव्यम्। यदा पक्षपातविरहा विद्वांसो मद्रचितस्य मंत्रार्थ भाष्यस्य मोक्षमूलरोक्तादेश्च सम्यक् परीक्ष्य विवेचनं करिष्यन्ति तदैतेषां कृतावशुद्धिर्विदिता भविष्यतीत्यलमिति विस्तरेणा अत्राग्निप्रकाशकस्य सर्वचेष्टाबलायुर्निमित्तस्य वायोस्तद्विद्याविदां राजप्रजाश्वविदुषां च गुणवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति चतुर्दशो वर्गः सप्तत्रिंशं सूक्तश्च समाप्तम् ॥३७॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वे वायु किस-२ प्रयोजन के लिये हैं, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे विद्वान् मनुष्यो ! (एषाम्) जानी हे विद्या जिन की उन पवनों के सकाश से (हि) जिस कारण (स्म) निश्चय करके (वः) तुम लोगों के (मदाय) आनन्दपूर्वक (जीवसे) जीने के लिये (विश्वम्) सब (आयुः) अवस्था है इसी प्रकार (वयम्) आप से उपदेश को प्राप्त हुए हम लोग (चित्) भी (स्मसि, स्म) निरन्तर होवें ॥१५॥

    भावार्थ

    जैसे योगाभ्यास करके प्राणविद्या और वायु के विकारों को ठीक-२ जाननेवाले पथ्यकारी विद्वान् लोग आनन्दपूर्वक सब आयु भोगते हैं वैसे अन्य मनुष्यों को भी करनी चाहिये कि उन विद्वानों के सकाश से उस वायु विद्या को जानके संपूर्ण आयु भोगें ॥१५॥ मोक्षमूलर की उक्ति है कि निश्चय करके यहां तुम्हारी प्रसन्नता पुष्कल है हम लोग सब दिन तुम्हारे भृत्य हैं जो भी हम संपूर्ण आयु भर जीते हैं- यह अशुद्ध है। क्योंकि यहां प्राणरूप वायु से जीवन होता है हम लोग इस विद्या को जानते हैं इस प्रकार इस मन्त्र का अर्थ है ॥१५॥ इसी प्रकार कि जैसे यहां मोक्षमूलर साहेब ने अपनी कपोल कल्पना से मंत्रो के अर्थ विरुद्ध वर्णन किये हैं वैसे आगे भी इनकी उक्ति अन्यथा ही है ऐसा सबको जानना चाहिये। जब पक्षपात को छोड़ कर मेरे रचे हुए मन्त्रार्थ भाष्य वा मोक्षमूलरादिकों के कहे हुए की परीक्षा करके विवेचन करेंगे तब इनके किये हुए ग्रन्थों की अशुद्धि जान पड़ेगी बहुत को थोड़े ही लिखने से जान लेवें आगे। आगे अब बहुत लिखने से क्या है। इस सूक्त में अग्नि के प्रकाश करनेवाले सब चेष्टा बल और आयु के निमित्त वायु और उस वायु विद्या को जाननेवाले राज* प्रजा के विद्वानों के गुण वर्णन से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगति जाननी चाहिये। यह चौदहवां वर्ग और सैंतीसवां सूक्त समाप्त हुआ ॥३७॥सं० उ० के अनुसार जाने। सं०* सं० वा० के अनुसार राजा, प्रजा, अश्वों और विद्वानों। सं०

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    विषय

    फिर वे वायु किस-किस प्रयोजन के लिये हैं, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे विद्वांसः मनुष्या एषां हि स्म वः युष्माकं मदाय जीवसे विश्वम् आयुः अस्ति तथाभूता वयं चित् स्मसि स्म ॥१५॥

    पदार्थ

    हे (विद्वांसः)= विद्वान्, (मनुष्या)=मनुष्यों!  (एषाम्) ज्ञातविद्यानां मरुतां सकाशात्=ज्ञातविद्या से पवनों को समीप से, (हि) यतः=क्योंकि, (स्म) खलु= निश्चित रूप से, (वः) युष्माकम्=तुम सब, (मदाय) आनन्दाय=आनन्द के लिए,  (जीवसे) जीवितुम्=जीवित रहने के लिए,  (विश्वम्) सर्वम्=सब, (आयुः) प्राणधारणम्=प्राण धारण करते, (अस्ति) वर्त्तते=हैं। (तथाभूता)=ऐसे होकर,  (वयम्) उपदेश्या जनाः=जिनको उपदेशित किया जा रहा है, वे लोग, (चित्) अपि=भी, (स्म) नैरन्तर्ये=निरन्तरता से आनन्दपूर्वक, (स्मसि) भवेम=होवें॥१५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जैसे योगाभ्यास करके प्राणविद्या और वायु के विकारों को ठीक-ठीक जाननेवाले पथ्यकारी विद्वान् लोग आनन्दपूर्वक सब आयु भोगते हैं वैसे अन्य मनुष्यों को भी करनी चाहिये कि उन विद्वानों के सकाश से उस वायु विद्या को जानके संपूर्ण आयु भोगें ॥१५॥ 

    विशेष

    महर्षिकृत टिप्पणी का भाषानुवाद- मोक्षमूलर की उक्ति है कि निश्चय करके यहां तुम्हारी प्रसन्नता पुष्कल है हम लोग सब दिन तुम्हारे भृत्य हैं जो भी हम संपूर्ण आयु भर जीते हैं- यह अशुद्ध है। क्योंकि यहां प्राणरूप वायु से जीवन होता है हम लोग इस विद्या को जानते हंह इस प्रकार इस मन्त्र का अर्थ है। इसी प्रकार कि जैसे यहां मोक्षमूलर साहेब ने अपनी कपोल कल्पना से मंत्रो के अर्थ विरुद्ध वर्णन किये हैं वैसे आगे भी इनकी उक्ति अन्यथा ही है ऐसा सबको जानना चाहिये। जब पक्षपात को छोड़ कर मेरे रचे हुए मन्त्रार्थ भाष्य वा मोक्षमूलरादिकों के कहे हुए की परीक्षा करके विवेचन करेंगे तब इनके किये हुए ग्रन्थों की अशुद्धि जान पड़ेगी बहुत को थोड़े ही लिखने से जान लेवें आगे। आगे अब बहुत लिखने से क्या है। इस सूक्त में अग्नि के प्रकाश करनेवाले सब चेष्टा बल और आयु के निमित्त वायु और उस वायु विद्या को जाननेवाले राज* प्रजा के विद्वानों के गुण वर्णन से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगति जाननी चाहिये। यह चौदहवां वर्ग और सैंतीसवां सूक्त समाप्त हुआ ॥३७॥सं० उ० के अनुसार जाने। सं०* सं० वा० के अनुसार राजा, प्रजा, अश्वों और विद्वानों। सं०

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (विद्वांसः)  विद्वान् (मनुष्या) मनुष्यों! (हि) क्योंकि (एषाम्) ज्ञातविद्या से पवनों को समीप से, (स्म) निश्चित रूप से (वः) तुम सब (मदाय) आनन्द के लिए  (जीवसे) जीवित रहने के लिए (विश्वम्) सब (आयुः) प्राण धारण करते (अस्ति) हैं। (तथाभूता) ऐसे ही होकर  (वयम्) जिनको उपदेशित किया जा रहा है, वे लोग (चित्) भी, (स्म) निरन्तरता से आनन्दपूर्वक (स्मसि) होवें॥१५॥ 
    भावार्थः(महर्षिकृतः)- यथा योगाभ्यासेन प्राणविद्याविदो वायुविकारज्ञाः पथ्यकारिणो जनाश्वानन्देन सर्वमायुर्भुञ्जते तथैवेतरैर्जनैस्तत्सकाशात्तद्विद्यां ज्ञात्वा सर्वमायुर्भोक्तव्यम् ॥१५॥ 

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अस्ति) वर्त्तते (हि) यतः (स्म) खलु। अत्र निपातस्य च इति दीर्घः। अविहितलक्षणो मूर्द्धन्यः सुषामादिषु द्रष्टव्यः। अ० ८।३।९८। इति वार्त्तिकेन मूर्द्धन्यादेशः। इदं पदं सायणाचार्येण व्याकरणविषयमबुद्ध्वा त्यक्तम्। (मदाय) आनन्दाय (वः) युष्माकम् (स्मसि) भवेम। अत्र लिङर्थे लट्। इदन्तोमसि* इतीकारागमः (स्म) तैरन्तर्ये। अत्रापि पूर्ववन्मूर्द्धन्यादेशः। (वयम्) उपदेश्या जनाः (एषाम्) ज्ञातविद्यानां मरुतां सकाशात् (विश्वम्) सर्वम् (चित्) अपि (आयुः) प्राणधारणम् (जीवसे) जीवितुम्। अत्र तुमर्थे०¤ इत्यसेन्प्रत्ययः ॥१५॥ *[अ० ७।१।४६।] ¤[अ० ३।४।९।]
    विषयः- पुनस्ते वायवः किं प्रयोजनाः सन्तीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे विद्वांसो मनुष्या एषां हि स्म वो युष्माकं मदाय जीवसे विश्वमायुरस्ति तथाभूता वयं चित्स्मसि स्म ॥१५॥

    सूक्तस्य भावार्थः- यथा योगाभ्यासेन प्राणविद्याविदो वायुविकारज्ञाः पथ्यकारिणो जनाश्वानन्देन सर्वमायुर्भुञ्जते तथैवेतरैर्जनैस्तत्सकाशात्तद्विद्यां ज्ञात्वा सर्वमायुर्भोक्तव्यम् ॥१५॥ 

    टिप्पणी (महर्षिकृतः)- मोक्षमूलरोक्तिः निश्चयेन तत्र युष्माकं प्रसन्नता पुष्कलास्ति वयं सदा युष्माकं भृत्याः स्मः। यद्यपि वयं सर्वमायुर्जीवेमेत्यशुद्धास्ति कुतः। अत्र प्रमाणरूपेण वायुना जीवनं भवतीति वयमेतद्विद्यां विजानीमेत्युक्तत्वादिति। एवमेव यथात्र मोक्षमूलरेण कपोलकल्पनया मन्त्रार्था विरुद्धा वर्णितास्तघेवाग्रेप्येतदुक्तिरन्यथास्तीति वेदितव्यम्। यदा पक्षपातविरहा विद्वांसो मद्रचितस्य मंत्रार्थ भाष्यस्य मोक्षमूलरोक्तादेश्च सम्यक् परीक्ष्य विवेचनं करिष्यन्ति तदैतेषां कृतावशुद्धिर्विदिता भविष्यतीत्यलमिति विस्तरेणा अत्राग्निप्रकाशकस्य सर्वचेष्टाबलायुर्निमित्तस्य वायोस्तद्विद्याविदां राजप्रजाश्वविदुषां च गुणवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति चतुर्दशो वर्गः सप्तत्रिंशं सूक्तश्च समाप्तम् ॥३७॥
     

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    विषय

    पूर्ण जीवन

    पदार्थ

    १. हे प्राणो ! (वः) - आपके (मदाय) - आनन्द के लिए (हि) - निश्चय से (ष्मा) - नैरन्तर्येण [दया०] (वयम्) - हम (अस्ति) - हैं [अस्ति इति निपातः , न क्रियापदम्] अर्थात् हम प्राणों की साधना करते हुए निरन्तर आनन्दों का अनुभव करते हैं ।
    २. वस्तुतः हे प्राणो ! (एषाम्) - इन, आपके ही (वयम्) - हम (ष्मा) - नैरन्तर्येण (स्मसि) - हैं, अर्थात् हम तो प्राणों के ही उपासक हैं । इन प्राणों की साधना से हमारा अटूट सम्बन्ध हो गया है । इस प्राणसाधना के व्रत से हमारा कभी विच्छेद नहीं होता । 
    ३. यह सब हम इसलिए करते हैं कि (चित्) - निश्चय से (विश्वम् आयुः) - पूर्ण जीवन (जीवसे) - जीने के लिए हम हों । हम सौ वर्ष के दीर्घ जीवन को तो प्राप्त करें ही, साथ ही शरीर, मन व मस्तिष्क - तीनों के दृष्टिकोण से उन्नत होकर हम पूर्ण जीवन जीनेवाले बनें । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना में ही आनन्द लेना चाहिए । यह प्राणसाधना हमारे पूर्ण जीवन का कारण होगी । 
     

    विशेष / सूचना

    विशेष - इस सूक्त का प्रारम्भ इस प्रकार होता है कि ये प्राण हमें एक क्रीड़क की मनोवृत्तिवाला बनाते हैं [१] । इनकी साधना से हम आत्मा की दीप्तिवाले होते हैं । [२] । यह साधना वेदवाणी को हमारे जीवन में अनूदित करेगी [३] । हम शत्रुओं का धर्षण करनेवाले, दीप्त ज्ञानवाले व शत्रुशोषक बलवाले होंगे [४] । इन प्राणों की शक्ति - वृद्धि के लिए हमें चबाकर खाना चाहिए [५] । यह प्राणसाधना मस्तिष्क व शरीर दोनों का शोधन करती है [६] । इससे हमें मन के नियमन में सहायता मिलती है [७] । प्राणों के हिलते ही सब हिल जाता है [८] । इनकी साधना से ही सब शक्तियों का स्थिर विकास होता है [९] । ये अन्तः वाणी को प्रेरित करते हैं [१०] । कामरूप मेघ का प्रच्यावन करते हैं [११] । इनका बल ही हमें कमों में प्रेरित रखता है [१२] । इनकी गति के ठीक होने पर अन्तर्वाणी सुनाई पड़ती है [१३], अतः बुद्धिमान् प्राणों का उपासन करते हैं [१४] और पूर्ण जीवन को प्राप्त करने के लिए यत्नशील होते हैं [१५] । ये मरुत् अपने साधकों को इस प्रकार धारण करते हैं जैसे पिता पुत्र को -
     

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    विषय

    वायुओं के दृष्टान्त से देहगत प्राणों तथा वीरों का वर्णन ।

    भावार्थ

    (वः) आप लोगों के (मदाय) आनन्द लाभ करने के लिए और सदा तृप्त होने और सुखपूर्वक (आयुः जीवसे) जीवन व्यतीत करने के लिए (विश्वं चित्) समस्त पदार्थ (अस्ति हि स्म) सदा विद्यमान रहें। और (एषाम्) इनके ही अधीन (वयम् स्मसि स्म) हम भी सदा रहें और आनन्द से जीवन व्यतीत करें। इति चतुर्दशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कण्वो घौर ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, २, ४, ६–८, १२ गायत्री । ३, ९, ११, १४ निचृद् गायत्री । ५ विराड् गायत्री । १०, १५ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । १३ पादनिचृद्गायत्री । पंचदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे योगाभ्यास करून प्राणविद्या व वायूच्या विकारांना यथायोग्य जाणून त्याप्रमाणे पथ्य करून विद्वान लोक आनंदाने पूर्ण आयुष्य भोगतात तसे इतर माणसांनीही केले पाहिजे की, त्या विद्वानांच्या संगतीने वायूविद्येला जाणून संपूर्ण आयुष्य भोगावे. ॥ १५ ॥

    टिप्पणी

    मोक्षमूलरची उक्ती अशी की, निश्चयपूर्वक तुमची तेथे पुष्कळ प्रसन्नता आहे. आम्ही सदैव तुमचे सेवक आहोत. जे आम्ही संपूर्ण आयुष्यभर जगलेले आहोत. हे अशुद्ध आहे. कारण येथे प्राणरूप वायूमुळे जीवन असते. आम्ही ही विद्या जाणतो. याप्रकारे या मंत्राचा हा अर्थ आहे. ॥ १५ ॥ या प्रकारे येथे जसे मोक्षमूलर साहेबांनी आपल्या कपोलकल्पनेने मंत्रांच्या अर्थाचे विरुद्ध वर्णन केलेले आहे तसे पुढेही त्यांची उक्ती अनर्थकच आहे. असे सर्वांनी जाणले पाहिजे. जेव्हा पक्षपात सोडून मी केलेले मंत्रार्थ भाष्य किंवा मोक्षमूलर इत्यादींनी केलेले भाष्य यांची परीक्षा करून विवेचन करू तेव्हा त्यांच्या ग्रंथांची अशुद्धी कळेल. जास्त असलेले थोडक्यात जाणून घ्यावे. यापुढे अधिक काय लिहावे?

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Surely life is for the joy of living for all of you. May we too enjoy and be happy. Indeed life is for the joy of living for all living beings of the world.

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    Subject of the mantra

    Then, for what purpose those airs are, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (vidvāṃsaḥ)=scholars, (manuṣyā)=human! (hi)=because, (eṣām)=by the knowledge of the winds closely, (sma)=definitely, (vaḥ)=all of you, (madāya)=for happiness, (jīvase)=to survive, (viśvam)=all, (āyuḥ) =possess life breath, (asti)=are, (tathābhūtā)=being like this, (vayam)=those who are being preached, (cit)=also, (sma)=happily in continuance, (smasi)=be.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholars! Definitely you all possess life-breath to live for joy by the close knowledge of the winds. Being like this, those who are being preached may also be happy continuously

    Footnote

    Translation of comments on the mantra by Maharshi Dayanand- Max Müller's quote is- "Be sure that your happiness here is excellent. We are your servants all the days that we live throughout our lives” – this is incorrect. Because, life comes from the vital air here. We know this science. Thus is the meaning of this mantra. In the same way, as Max Müller Sahib has described here against the meaning of the mantra with his own imagination. In the future also his statement is otherwise. Everyone should know this. Leaving aside the partiality, when you examine and interpret the translation of the commentary of mantras propounded by me (Maharshi Dayanand) and Max Müller et cetera, then the inaccuracy of the commentary explained by them will be known. Get to know a lot by writing a little explanation. That much is enough. What is the use of writing a lot now? In this hymn, the association of this hymn with the translation of previous hymn should be known from the description of the virtues of the king, the people, the horses and the scholars who know the power of fire and the air for the life.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Just as by practicing yoga and scholars respecting the diet pattern, who know properly the disorders of vital science and air, enjoy all their lives happily. In the same way, other human beings should also do that by knowing that knowledge of breath practice from the closeness of those scholars and enjoy the whole life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What is the special use of the winds or airs is taught in the fifteenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned parsons, let us be yours (Your admirers and followers) for enjoying bliss and leading full and happy life.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As persons who are well-versed in the science of Prana and practisers of Yoga; eating what is conducive to health enjoy blissfully the full span of life, others also should learn this science from them and enjoy full life. Prof. Maxmuller's translation is as follows- "Truly there is enough for your rejoicing, we always are their servants that we may live even the whole of life." (Vedic Hymns Vol. 1. P.64). This translation is incorrect because here it is clearly stated that let us acquire the knowledge of the air, that enables us to lead happy life. As in this hymn Prof. Maxmuller has misinterpreted the Mantras from his own imagination, he has done so in other Mantras and hymns also. When impartial learned persons will read my commentary of the Vedas and will carefully compare it with that of Prof. Maxmuller and others, they will realize the mistakes committed by them, so there is no need of elaborating upon the subject here. In this hymn, the properties of the air which is the cause of all activities, life and strength and kindler of the fire and also the characteristics of the knowers of the science of the air have been described. Therefore, it is directly connected with the previous hymn. Here ends the thirty-seventh hymn and fourteenth Verga, with its commentary, translation and translator's notes.

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