ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 37/ मन्त्र 2
ये पृष॑तीभिर्ऋ॒ष्टिभिः॑ सा॒कं वाशी॑भिर॒ञ्जिभिः॑ । अजा॑यन्त॒ स्वभा॑नवः ॥
स्वर सहित पद पाठये । पृष॑तीभिः । ऋ॒ष्टिऽभिः॑ । सा॒कम् । वाशी॑भिः । अ॒ञ्जिऽभिः॑ । अजा॑यन्त । स्वऽभा॑नवः ॥
स्वर रहित मन्त्र
ये पृषतीभिर्ऋष्टिभिः साकं वाशीभिरञ्जिभिः । अजायन्त स्वभानवः ॥
स्वर रहित पद पाठये । पृषतीभिः । ऋष्टिभिः । साकम् । वाशीभिः । अञ्जिभिः । अजायन्त । स्वभानवः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 37; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(ये) मरुतइव विज्ञानशीला विद्वांसो जनाः (पृषतीभिः) पर्षन्ति सिञ्चन्ति धर्मवृक्षं याभिरद्भिः (ऋष्टिभिः) याभिः कलायन्त्रयष्टीभिर्ऋषन्ति जानन्ति प्राप्नुवन्ति व्यवहाराँस्ताभिः (साकम्) सह (वाशीभिः) वाणीभिः। वाशीति वाङ्नामसु पठितम्। निघं० १।११। (अञ्जिभिः) अञ्जन्ति व्यक्तीकुर्वन्ति पदार्थगुणान् याभिः क्रियाभिः (अजायन्त) धर्म्मक्रियाप्रचाराय प्रादुर्भवन्ति अत्र लडर्थे लङ्। (स्वभानवः) वायुवत्स्वभानवो ज्ञानदीप्तयो येषान्ते ॥२॥
अन्वयः
पुनस्तैः कथं भवितव्यमित्युपदिश्यते।
पदार्थः
ये पृषतीभिर्ऋष्टिभिरञ्जिभिर्वाशीभिः साकं क्रियाकौशले प्रयतन्ते ते स्वभानवोऽजायन्त ॥२॥
भावार्थः
हे विद्वांसो मनुष्या युष्माभिरीश्वररचितायां सृष्टौ कार्यस्वभावप्रकाशस्य वायोःसकाशाज्जलसेचनं चेष्टाकरणमग्न्यादिप्रसिद्धिर्वायुव्यवहाराश्चार्थात् कथनश्रवणस्पर्शा भवन्ति तैः क्रियाविद्याधर्मादिशुभगुणाः प्रचारणीयाः ॥२॥ मोक्षमूलरोक्तिः। ये ते वायवो विचित्रैर्हरिणैरयोमयोभिः शक्तिभिरसिभिः प्रदीप्तैराभूषणैश्चसह जाता इत्यसंभवास्ति। कुतः। वायवो हि पृषत्यादीनां स्पर्शादीगुणानां च योगेन सर्वचेष्टाहेतुत्वेन च वागग्निप्रादुर्भावे हेतवः सन्तः स्वप्रकाशवन्तः सन्त्यतः। यच्चोक्तं सायणाचार्येण वाशीशब्दस्य व्याख्यानं समीचीनं कृतमित्यप्यलीकम्। कुतः। मंत्रपदवाक्यार्थविरोधात्। यश्च प्रकरणपदवाक्यभावार्थानुकूलोस्ति सोयमस्य मंत्रस्यार्थो द्रष्टव्यः ॥२॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे विद्वान् कैसे होने चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
(ये) जो (पृषतीभिः) पदार्थों को सींचने (ऋष्टिभिः) व्यवहारों को प्राप्त और (अञ्जिभिः) पदार्थों को प्रगट करानेवाली (वाशीभिः) वाणियों के (साकम्) साथ क्रियाओं के करने की चतुराई में प्रयत्न करते हैं वे (स्वभानवः) अपने ऐश्वर्य के प्रकाश से प्रकाशित (अजायन्त) होते हैं ॥२॥
भावार्थ
हे विद्वान् मनुष्यो ! तुम लोगों को उचित है कि ईश्वर की रची हुई इस कार्य्य सृष्टि में जैसे अपने-२ स्वभाव के प्रकाश करनेवाले वायु के सकाश से जल की वृष्टि चेष्टा का करना अग्नि आदि की प्रसिद्धि और वाणी के व्यवहार अर्थात् कहना सुनना स्पर्श करना आदि सिद्ध होते हैं वैसे ही विद्या और धर्मादि शुभगुणों का प्रचार करो ॥२॥ मोक्षमूलर साहिब कहते हैं कि जो वे पवन चित्र विचित्र हरिण लोह की शक्ति तथा तलवारों और प्रकाशित आभुषणों के साथ उत्पन्न हुए हैं इति। यह व्याख्या असंभव है क्योंकि पवन निश्चय करके वृष्टि करानेवाली क्रिया तथा स्पर्शादि गुणों के योग और सब चेष्टा के हेतु होने से वाणी और अग्नि के प्रगट करने के हेतु हुए अपने आप प्रकाशवाले हैं और जो उन्होंने कहा हैं कि सायणाचार्य ने वाशी शब्द का व्याख्यान यथार्थ किया है सो भी असंगत है क्योंकि वह भी मंत्र पद और वाक्यार्थ से विरुद्ध है और जो मेरे भाष्य में प्रकरण पद वाक्य और भावार्थ के अनुकूल अर्थ है उसको विद्वान् लोग स्वयं विचार लेंगे कि ठीक है वा नहीं ॥२॥
विषय
फिर वे विद्वान् कैसे होने चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
ये पृषतीभिः ऋष्टिभिः अञ्जिभिः वाशीभिः साकं क्रियाकौशले प्रयतन्ते ते स्वभानवःअजायन्त ॥२॥
पदार्थ
(ये) मरुतइव विज्ञानशीला विद्वांसो जनाः=पवन जैसे वैज्ञानिक स्वभाव के विद्वान् लोग, (पृषतीभिः) पर्षन्ति सिञ्चन्ति धर्मवृक्षं याभिरद्भिः=जिस जल से धर्म रूपी वृक्ष को सींचते हैं, (ऋष्टिभिः) याभिः कलायन्त्रयष्टीभिर्ऋषन्ति जानन्ति प्राप्नुवन्ति व्यवहाराँस्ताभिः=जिन कलायंत्रों की डण्डी से ढकेलते हैं, उनको जानते हुए व्यवहारों में प्राप्त करते हैं, (अञ्जिभिः) अञ्जन्ति व्यक्तीकुर्वन्ति पदार्थगुणान् याभिः क्रियाभिः= जिन क्रियाओं के द्वारा पदार्थ के गुणों को व्यक्त करते हैं, उन्हें, (वाशीभिः) वाणीभिः=वाणियों के, (साकम्) सह=साथ, (क्रियाकौशले)=क्रिया कौशल में, (प्रयतन्ते)=लगाते हैं, (ते)=वे, (स्वभानवः) वायुवत्स्वभानवो ज्ञानदीप्तयो येषान्ते=जो वायु जैसे अपने आत्मा के ज्ञान का प्रकाश करनेवाले हैं, वे (अजायन्त) धर्म्मक्रियाप्रचाराय प्रादुर्भवन्ति=धर्म की क्रिया के प्रचार के लिए प्रकट होते हैं॥२॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
हे विद्वान् मनुष्यो ! तुम लोगों को उचित है कि ईश्वर की रची हुई इस कार्य्य सृष्टि में जैसे अपने-अपने स्वभाव के प्रकाश करनेवाले वायु के सकाश से जल की वृष्टि चेष्टा का करना अग्नि आदि की प्रसिद्धि और वाणी के व्यवहार अर्थात् कहना सुनना स्पर्श करना आदि सिद्ध होते हैं वैसे ही विद्या और धर्मादि शुभगुणों का प्रचार करो ॥२॥ मोक्षमूलर साहिब कहते हैं कि जो वे पवन चित्र विचित्र हरिण लोह की शक्ति तथा तलवारों और प्रकाशित आभुषणों के साथ उत्पन्न हुए हैं इति। यह व्याख्या असंभव है क्योंकि पवन निश्चय करके वृष्टि करानेवाली क्रिया तथा स्पर्शादि गुणों के योग और सब चेष्टा के हेतु होने से वाणी और अग्नि के प्रगट करने के हेतु हुए अपने आप प्रकाशवाले हैं और जो उन्होंने कहा हैं कि सायणाचार्य ने वाशी शब्द का व्याख्यान यथार्थ किया है सो भी असंगत है क्योंकि वह भी मंत्र पद और वाक्यार्थ से विरुद्ध है और जो मेरे भाष्य में प्रकरण पद वाक्य और भावार्थ के अनुकूल अर्थ है उसको विद्वान् लोग स्वयं विचार लेंगे कि ठीक है वा नहीं ॥२॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(ये) पवन जैसे वैज्ञानिक स्वभाव के विद्वान् लोग, (पृषतीभिः) जिस जल से धर्म रूपी वृक्ष को सींचते हैं [और] (ऋष्टिभिः) जिन कलायंत्रों की डण्डियों से ढकेलते हैं, उनको जानते हुए व्यवहारों में लाते हैं। (अञ्जिभिः) जिन क्रियाओं के द्वारा पदार्थ के गुणों को व्यक्त करते हैं, उन्हें (वाशीभिः) वाणियों के (साकम्) साथ (क्रियाकौशले) क्रिया कौशल में (प्रयतन्ते) लगाते हैं। (ते) वे, (स्वभानवः) जो वायु जैसे अपने आत्मा के ज्ञान का प्रकाश करनेवाले हैं, (अजायन्त) धर्म की क्रिया के प्रचार के लिए प्रकट होते हैं॥२॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (ये) मरुतइव विज्ञानशीला विद्वांसो जनाः (पृषतीभिः) पर्षन्ति सिञ्चन्ति धर्मवृक्षं याभिरद्भिः (ऋष्टिभिः) याभिः कलायन्त्रयष्टीभिर्ऋषन्ति जानन्ति प्राप्नुवन्ति व्यवहाराँस्ताभिः (साकम्) सह (वाशीभिः) वाणीभिः। वाशीति वाङ्नामसु पठितम्। निघं० १।११। (अञ्जिभिः) अञ्जन्ति व्यक्तीकुर्वन्ति पदार्थगुणान् याभिः क्रियाभिः (अजायन्त) धर्म्मक्रियाप्रचाराय प्रादुर्भवन्ति अत्र लडर्थे लङ्। (स्वभानवः) वायुवत्स्वभानवो ज्ञानदीप्तयो येषान्ते ॥२॥
विषयः- पुनस्तैः कथं भवितव्यमित्युपदिश्यते।
अन्वयः- ये पृषतीभिर्ऋष्टिभिरञ्जिभिर्वाशीभिः साकं क्रियाकौशले प्रयतन्ते ते स्वभानवोऽजायन्त ॥२॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे विद्वांसो मनुष्या युष्माभिरीश्वररचितायां सृष्टौ कार्यस्वभावप्रकाशस्य वायोःसकाशाज्जलसेचनं चेष्टाकरणमग्न्यादिप्रसिद्धिर्वायुव्यवहाराश्चार्थात् कथनश्रवणस्पर्शा भवन्ति तैः क्रियाविद्याधर्मादिशुभगुणाः प्रचारणीयाः ॥२॥ मोक्षमूलरोक्तिः। ये ते वायवो विचित्रैर्हरिणैरयोमयोभिः शक्तिभिरसिभिः प्रदीप्तैराभूषणैश्चसह जाता इत्यसंभवास्ति। कुतः। वायवो हि पृषत्यादीनां स्पर्शादीगुणानां च योगेन सर्वचेष्टाहेतुत्वेन च वागग्निप्रादुर्भावे हेतवः सन्तः स्वप्रकाशवन्तः सन्त्यतः। यच्चोक्तं सायणाचार्येण वाशीशब्दस्य व्याख्यानं समीचीनं कृतमित्यप्यलीकम्। कुतः। मंत्रपदवाक्यार्थविरोधात्। यश्च प्रकरणपदवाक्यभावार्थानुकूलोस्ति सोयमस्य मंत्रस्यार्थो द्रष्टव्यः ॥२॥
विषय
गुणालंकृतता
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार प्राणसाधना करनेवाले लोग वे हैं (ये) - जो स्वभानवः आत्मा की दीप्तिवाले (अजायन्त) - हो जाते हैं । ये योगसाधना में आगे बढ़ते हुए अन्नमयादि कोशों से ऊपर उठकर अन्ततः आत्मा का दर्शन करते हैं । २. इससे पूर्व ये उन (आशीभिः) - वाणियों के (साकम्) - साथ होते हैं जो वाणियाँ (पृषतीभिः) - हृदय में हर्ष का वर्षण करनेवाली हैं , (ऋष्टिभिः) - ज्ञान की प्रकाशिका हैं तथा (अञ्जिभिः) - सद्गुणों से अलंकृत करनेवाली हैं ।
३. "पृषती" शब्द मरुतों की वाहनभूत मृगियों के लिए आता है । ये मृगियाँ आत्मा का मार्गण करनेवाली चित्तवृत्तियाँ ही हैं । आत्ममार्गण करती हुई और आत्मा की ओर चलती हुई ये हृदय में आनन्द का वर्षण करती हैं । 'ऋष्टि' आयुध है और ज्ञान ही वह आयुध है जिससे कि वासनारूप शत्रु का संहार होता है । 'अजि' अलंकार का नाम है । प्राणसाधना दुर्गुणों को दूर करके हमें सद्गुणों से अलंकृत करती ही है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से 'ऋतम्भरा प्रज्ञा' उत्पन्न होती है । यह 'ऋतम्भरा प्रज्ञा' हमें प्रभु की वाशी - वाणी से सुपरिचित करती है । यह परिचित वाणी हमें हृदय में आनन्दित करती है, ज्ञान का प्रकाश देती है तथा गुणालंकृत करती है ।
विषय
मरुद्गणों, वीरों, विद्वानों का वर्णन ।
भावार्थ
(ये) जो (पृषतीभिः) हृष्टपुष्ट अश्वोंवाली, या वाणों से युक्त सशस्त्र सेनाओं और (ऋष्टिभिः) आयुधों और (वाशीभिः) व्यक्तवाणियों और (अंजिभिः) स्पष्ट अभिव्यक्त करनेवाले चिह्नों के (साकं) सहित (स्वभानवः) स्वयं सूर्य के समान तेजस्वी (अजायन्त) हैं। विद्वानों के पक्ष में—(ये) जो (पृषतीभिः) हृदय में आनन्दप्रद, हर्ष का वर्षण करने वाली (ऋष्टिभिः) ज्ञान के प्रकाशक (अंजिभिः) अति स्पष्ट अर्थ बतलाने वाली व्यक्त (वाशीभि) वाणियों के साथ (स्वभानवः) स्वयं आत्मा के ज्ञान के प्रकाश करने वाले हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कण्वो घौर ऋषिः॥ मरुतो देवताः॥ छन्दः—१, २, ४, ६–८, १२ गायत्री । ३, ९, ११, १४ निचृद् गायत्री । ५ विराड् गायत्री । १०, १५ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । १३ पादनिचृद्गायत्री । पंचदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे विद्वान माणसांनो! ईश्वराने निर्माण केलेल्या या कार्यसृष्टीत जसे आपापल्या स्वभावाला प्रकट करणाऱ्या वायूच्या साह्याने जलाची वृष्टी, प्रयत्नशीलता, अग्नीचे प्रकटीकरण व वाणीचा व्यवहार अर्थात बोलणे, ऐकणे, स्पर्श करणे इत्यादी सिद्ध होतात तसे तुम्ही विद्या व धर्म इत्यादी शुभ गुणांचा प्रचार करा. ॥ २ ॥
टिप्पणी
मोक्षमूलर साहेब म्हणतात की, जे वायू चित्रविचित्र हरिण, लोखंडाची शक्ती, तलवारी व आभूषणाबरोबर उत्पन्न झालेले आहेत. ही व्याख्या अयोग्य आहे. कारण वायू निश्चित वृष्टी करविणारी क्रिया व स्पर्श इत्यादी गुणांचे योग व सर्व प्रयत्नाचे कारण असल्यामुळे वाणी व अग्नीला प्रकट करण्याचा हेतू असून स्वतः प्रकट होणारे आहेत व त्यांनी म्हटले आहे की, सायणाचार्यांनी वाशी शब्दाची व्याख्या यथार्थ केलेली आहे. तीही असंगत आहे. कारण तीही मंत्र, पद व वाक्यार्थाच्या विरुद्ध आहे. माझ्या भाष्यात प्रकरण, पद, वाक्य व भावार्थाच्या अनुकूल अर्थ आहे. त्याचा विद्वान लोक स्वतः विचार करतील की ती योग्य आहे की अयोग्य. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Those men who, like the winds, with liquid thrusts of motion in smooth, refined, chiselled and lubricated language and style, express themselves and their ideas, rise with their own brilliance like the rays of the sun.
Subject of the mantra
Then, what kind of those scholars should be, this topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(ye)=Scholars of scientific nature like air, (pṛṣatībhiḥ)=the water with which the tree of righteousness is watered, [aura]=and (ṛṣṭibhiḥ)=with the sticks of the art instruments push, knowingly put them into practice. (añjibhiḥ)=the actions by which the properties of matter are expressed are called, to them, (vāśībhiḥ)=of voices, (sākam)=with, (kriyākauśale)=in skills of action, (prayatante)=apply, (te)=they, (svabhānavaḥ)=who, like air, manifest the knowledge of his soul, (ajāyanta)=appear for the promotion of the action of righteousness.
English Translation (K.K.V.)
Scholars of scientific nature like the wind and water with which they irrigate the tree of righteousness and the instruments with which they push them, knowingly bring them into practice. The actions through which the properties of the substance are expressed, they are put into action skills along with the words. They, who like the wind, are the manifestation of the knowledge of their souls, appear to propagate the action of righteousness.
Footnote
Maharshi Dayanand’s Comments- Max Muller Sahib says that those wind images which are created with strange gold and iron power and with swords and shining ornaments. This explanation is impossible because the wind is self-luminous for the manifestation of speech and fire, due to the act of causing rain and the combination of tactile qualities and for all efforts, and what he has said is that Sayanacharya explained the word "Vashi" was rightly explained, this is not correct. Because that too is against mantra’s term and sentence meaning and which in my (Dayanand's) commentary is according to context, term, sentence and meaning, the learned people themselves will consider whether it is correct or not.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
O learned men! It is appropriate for you people that in this creation of God, just as by trying to rain water with the proximity of air which illuminates your nature, the fame of fire etc. and the activity of speech i.e. speaking, listening, touching, etcetera only propagate the good qualities of knowledge and righteousness.
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